चीनी कर्ज के दलदल में फंसा श्रीलंका त्राहिमाम् कर रहा है। देश में खाने-पीने की चीजों से लेकर दवाइयों और पेट्रोल-डीजल के लिए हाहाकार मचा हुआ है। बिजली नदारद है और अस्पतालों में सर्जरी बंद है। जनाक्रोश को देखते हुए राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने एक अप्रैल को देश में आपातकाल लागू कर दिया। लेकिन त्रस्त जनता सड़कों पर है। राजपक्षे कैबिनेट के 26 मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया है। जनाक्रोश के निशाने पर रहे वित्त मंत्री बासिल राजपक्षे को बर्खास्त कर उनकी जगह नियुक्त किए गए नए वित्त मंत्री अली साबरी ने भी 24 घंटे के भीतर इस्तीफा दे दिया। 5 अप्रैल को सत्तारूढ़ गठबंधन के दर्जनों सांसदों ने सरकार से किनारा कर लिया। सत्तारूढ़ गठबंधन का समर्थन करने वाले 50 से ज्यादा सांसदों ने संसद में स्वतंत्र समूह के रूप में काम करने का एलान किया। अल्पमत में आई राजपक्षे सरकार को इसी दिन मध्यरात्रि से देश में लागू आपातकाल हटाने की घोषणा करनी पड़ी। उधर, राजपक्षे सरकार को समर्थन दे रहे 11 दलों ने कैबिनेट भंग कर अंतरिम सरकार के गठन की मांग की है। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने कहा है कि वे इस्तीफा नहीं देंगे और संसद में बहुमत साबित करने वाली किसी भी पार्टी को सत्ता सौंपने को तैयार हैं।
श्रीलंका का घटनाक्रम इस बात का सबूत है कि चीन की गोद में बैठने और उसके द्वारा थोपी गई परियोजनाओं को गले लगाने के क्या परिणाम हो सकते हैं। श्रीलंकाई अर्थव्यव्यवस्था ईंधन, खाद्यान्न, दवाइयों और अन्य जरूरी चीजों की आपूर्ति के लिए पूरी तरह आयात पर निर्भर है और विदेशी मुद्रा भंडार के रूप में उसके पास सिर्फ 2.31 अरब अमेरिकी डॉलर बचे हैं। यह दु:स्वप्न सरीखी स्थिति है। कोरोना महामारी शुरू होने के बाद इस देश में 50 लाख से ज्यादा लोग गरीबी रेखा से नीचे जा चुके हैं। विश्व बैंक के अनुमान के अनुसार, सामान्य स्थिति में पांच साल में कोई देश जितनी प्रगति करता है, वह श्रीलंका के शून्य पर पहुंच जाने के समान है। देश में वेनेजुएला जैसी स्थिति के आसार दिख रहे हैं, जहां आर्थिक संकट के कारण बड़ी आबादी पलायन कर दूसरे देशों में रहने को मजबूर है। यदि ऐसा हुआ तो भारत को बड़ी तादाद में श्रीलंकाई शरणार्थियों का बोझ उठाना पड़ेगा। छिटपुट शरणार्थियों का आना शुरू भी हो गया है। यदि हालात नहीं संभले तो स्थिति विकट हो सकती है।
श्रीलंका की मौजूदा स्थिति के लिए राजपक्षे परिवार द्वारा लिए गए कुछ तुगलकी फैसले जिम्मेदार हैं, लेकिन सबसे बड़ी समस्या इस पर विदेशी कर्ज का बोझ है। देश पर 45 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है, जो उसकी नाममात्र की जीडीपी के 40 प्रतिशत के बराबर है। इसमें सिर्फ चीन का कर्ज ही 8 अरब डॉलर है। श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार के सिकुड़ने का कारण यह है कि भारी भरकम कर्ज लेकर बनाई गयी उसकी ‘शो-पीस परियोजनाएं’ सफेद हाथी साबित हो रही हैं। उनसे कोई मुनाफा नहीं हो रहा है और कर्ज का भुगतान जारी है। चीन ने यहां विगत दो दशकों में भारी निवेश किया है, लेकिन दिसंबर 2021 में जब गोटाबाया राजपक्षे ने चीन से कर्ज के पुनर्गठन की गुहार लगाई तो उसने अनसुना कर दिया। उलटे संकट शुरू होने के बाद 21 मार्च को चीनी राजदूत ने कहा कि वह श्रीलंका को एक बिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्ज और डेढ़ बिलियन डॉलर की के्रडिट लाइन देने को तैयार है। ऐसा नहीं है कि श्रीलंका को आगाह नहीं किया गया था।
2018 में अमेरिकी उपराष्ट्रपति माइक पेंस ने इसे ‘डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी’ अर्थात् कर्ज के जाल में फंसाने वाली कूटनीति कहा था। तत्कालीन अमेरिकी अटॉर्नी जनरल विलियम बार ने कहा कि चीन गरीब देशों को कर्ज के जाल में फंसा रहा है। बाद में वह कर्ज के भुगतान की शर्तों में फेरबदल के मुद्दे पर बातचीत से इनकार कर देता है और आखिर में परियोजना पर ही कब्जा कर लेता है। अमेरिकी आरोप सही हैं। हंबनटोटा बंदरगाह इसका उदाहरण है। राजपक्षे परिवार के अपने संसदीय क्षेत्र में स्थित इस परियोजना के लिए जमकर कर्ज लिया गया। पर परियोजना सफेद हाथी साबित हुई, लेकिन इसके बावजूद इसके विस्तार के लिए कर्ज लिया गया और आखिरकार बंदरगाह चीन के हाथ में चला गया। अब चीन ने सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण इस बंदरगाह को 99 साल के लिए लीज पर ले लिया है।
कुल मिलाकर यह कि चीन ने श्रीलंका को पहले कर्ज के जाल में फंसाया, फिर कर्ज के पुनर्गठन को लेकर किसी तरह की बातचीत से इनकार किया और आखिर में सामरिक रूप से बेहद अहम एक बंदरगाह का कब्जा अपने हाथ में ले लिया। ‘कर्ज दो, कब्जा करो’ का बेहतरीन उदाहरण। कोरोना महामारी शुरू होने के समय प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे ने बाकायदा यह प्रार्थना की थी कि ईश्वर चीनी जनता को कोरोना महामारी के साये से बचा ले। लेकिन इस बार मार्च में चीनी विदेश मंत्री वांग यी जब श्रीलंका गए तो संबंधों में वह गर्मजोशी नहीं दिखी। यह संभव नहीं है कि मौजूदा हालात और कर्ज को लेकर श्रीलंकाई नेताओं और वांग यी में चर्चा नहीं हुई होगी। लेकिन वांग यी का कोई बयान नहीं आया और चीन का रुख श्रीलंका में उसके राजदूत के बयान से जाहिर हो जाता है। हालांकि वांग के लौटने के बाद चीन ने श्रीलंका को राहत के तौर पर चीनी की आपूर्ति की, लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि राजपक्षे सरकार ने मुक्त व्यापार समझौते की उसकी मांग पर चुप्पी साध रखी है।
उधर वांग यी के श्रीलंका से लौटते ही भारत ने इस देश को जरूरी चीजों की खरीद के लिए 912 मिलियन डॉलर के कर्ज और डेढ़ बिलियन डॉलर की के्रडिट लाइन देने की घोषणा की। जनवरी से लेकर अब तक भारत श्रीलंका को को ढाई बिलियन डॉलर से भी ज्यादा की सहायता की घोषणा कर चुका है। इसके अलावा भी कई अन्य फौरी राहत उपायों की घोषणा की गई है। भारत अब तक 40 हजार टन से ज्यादा डीजल और 40 हजार टन चावल श्रीलंका भेज चुका है। मार्च से लेकर अब तक भारत डेढ़ लाख टन र्इंधन भेज चुका है। कोलंबो में भारतीय उच्चायुक्त गोपाल बागले ने कहा कि श्रीलंकाई समाज के हर वर्ग ने भारत की ओर से त्वरित राहत की सराहना की है।
निश्चित रूप से कई देश यह सवाल पूछ रहे होंगे कि संकट के समय भारत जब इतना कुछ करने को तत्पर है तो उसकी तुलना में काफी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश चीन ने मदद से हाथ क्यों खड़े किए? श्रीलंका अब चीन की गिरफ्त से बाहर निकलने के लिए छटपटा रहा है। भारत और श्रीलंका में 1987 से चल रही 24 साल की बातचीत के बाद श्रीलंका ने आखिरकार त्रिंकोमाली में तेल टैंक परियोजना पर भारत के साथ मिलकर काम करने पर सहमति जता दी है। श्रीलंका को अब यह भय सता रहा है कि जो हंबनटोटा में हुआ, शायद वही कोलंबो पोर्ट ट्रस्ट परियोजना के साथ भी दोहराया जा सकता है। बाकी देश भी अब सतर्क दिख रहे हैं। हाल ही में भारत दौरे पर आए नेपाली प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने एक अनौपचारिक बातचीत में बताया कि किस तरह उन्होंने चीन से कर्ज लेने से साफ मना कर दिया। उन्होंने कहा कि हमें अपनी आधारभूत ढांचा परियोजनाओं के लिए चीनी कर्ज की जरूरत नहीं है। चीन चाहे तो अनुदान दे सकता है। चीन लंबे समय से नेपाल, मालदीव और बांग्लादेश जैसे देशों पर बेल्ट एंड रोड परियोजना में शामिल होने का दबाव बना रहा है। लेकिन उसकी तमाम कोशिशों के बावजूद नेपाल ने अभी तक इस परियोजना के लिए कोई करार नहीं किया है।
हाल ही में चीनी विदेश मंत्री वांग यी को काठमांडू से खाली हाथ लौटना पड़ा। श्रीलंकाई घटनाक्रम दक्षिण एशिया ही नहीं, बल्कि उन तमाम देशों की आंखें खोलने वाला साबित हुआ है, जिन्होंने भारी भरकम परियोजनाओं के लिए चीन से मोटी रकम उधार ले रखी है।
(लेखक साक्षी श्री द्वारा स्थापित साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं)
टिप्पणियाँ