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‘‘मेरे देशवासी एक दिन यह समझ सकेंगे कि देश व्यक्ति से बढ़कर है’’

समाज का काम मेरा काम, समाज का दुख मेरा दुख, समाज का हित मेरा हित, ऐसा सोचनेवाले लोग बिरले होते हैं। डॉ भीमराव आंबेडकर का जीवन ऐसा ही बिरला जीवन है। आज उस किरदार के जन्म की सवा सदी बीत जाने के बाद भी बाबा साहेब प्रासंगिक हैं तो इसलिए, क्योंकि उन्होंने समाज की चिंता खुद को भूलकर की।

by पाञ्चजन्य वेब डेस्क
Apr 14, 2022, 12:43 pm IST
in भारत
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समाज का काम मेरा काम, समाज का दुख मेरा दुख, समाज का हित मेरा हित, ऐसा सोचनेवाले लोग बिरले होते हैं। डॉ भीमराव आंबेडकर का जीवन ऐसा ही बिरला जीवन है। आज उस किरदार के जन्म की सवा सदी बीत जाने के बाद भी बाबा साहेब प्रासंगिक हैं तो इसलिए, क्योंकि उन्होंने समाज की चिंता खुद को भूलकर की।

बाबा साहेब ने कहा था, ‘हमारे यहाँ अलग-अलग और विरोधी विचारधाराओं वाले कई राजनीतिक दल होंगे। भारतीय जनता देश पर समुदाय को प्रधानता देगी या समुदाय पर देश को प्राथमिकता देगी? मुझे आशा है कि मेरे देशवासी एक दिन यह समझ सकेंगे कि देश व्यक्ति से बढ़कर है।’ इन शब्दों में बाबा साहब के दिल की बात है। जिसे उन्होंने कई बार लेखन, व्यक्तिगत चर्चाओं और सार्वजनिक उद्बोधनों में बार-बार कही है।

वह व्यक्तिगत या पारिवारिक लाभ की पगडंडी नहीं पकड़ते अपितु राष्ट्रीय हित का राजमार्ग रचते चलते हैं, यह बात उन्हें पूरे समाज का हितैषी बना देती है। डॉ आंबेडकर पूरे समाज के हैं, इस पूरे देश के प्रेरक पुरुष हैं, जैसे ही यह कहा जाता है, कुछ लोगों की दुकान हिलने लगती है। वे बाबा साहेब हैं, हम सबके बड़े हैं, यह बात ‘आंबेडकरवाद’ के कथित ठेकेदारों के पेट में मरोड़ पैदा करती है, जो विराट व्यक्तित्व को अपने स्वार्थ की पोटली में कैद रखना और सिर्फ उतना और उस तरह ही दिखाना चाहते हैं, जिससे उनका निजी हित सधता हो।

बाबा साहेब जुझारू हैं, बुराइयों पर किसी बड़े की तरह सबको डपटते हैं, मगर कुछ लोग उन्हें गुस्सैल, झगड़ालू और समाजद्वेषी दिखाने पर आमादा रहते हैं। हद तो यह है कि एक महान व्यक्तित्व को बौना दिखाते हुए वे बाबासाहेब के करीब, उनकी विचारधारा के प्रवर्तक भी दिखना चाहते हैं! यह वक्त ऐसे लोगों को आईना दिखाने का है।

डॉ आंबेडकर का कहना था कि ‘सबसे पहले देश है।’ यह विचार उन्होंने वर्ष 1949 के अंत में एक भाषण में सामने रखा था। भाषण का शीर्षक था ‘कंट्री मस्ट बी प्लेस्ड एबॉव कम्युनिटी.’ तो, भ्रम कहां हैं, यहां बाबासाहेब की सोच में जाति, वर्ग और पंथों के खांचों से अलग एकात्म समरस समाज और देश की साफ कल्पना है। सोचिए, जो लोग बाबासाहेब के वर्ग हितैषी, सवर्ण शत्रु और विद्रोही व्यक्तित्व का चित्र खींचते हैं, उनका चित्र कितना अधूरा और चालाकी भरा है।

प्रश्न यह है कि, महापुरुष भी क्या कभी तेरे-मेरे होते हैं? घर का पुरखा क्या किसी एक का होता है ? समाज की चीज समाज के सामने पूरी सचाई से आये, इसमें किसी को चिंता और परहेज क्यों होना चाहिए? बाबा साहब को समाज विभाजक तुच्छ सोच के खांचों में बंद करने की कोशिश करने वालों से पूछा जाना चाहिए कि जिन डॉ आंबेडकर का खुद लिखा विपुल साहित्य उपलब्ध है, जिनके भाषण- आख्यान और पत्रों के विवरण विविध प्रकाशनों के जरिये सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध हैं, ये लोग उस पारदर्शी व्यक्तित्व का कौन सा पक्ष छिपाना चाहते हैं?

आंबेडकर को ब्राह्मण विरोधी बताने वाले यह कभी नहीं सुनना चाहेंगे कि बाबासाहेब का विरोध ब्राह्मण या वैश्य से नहीं, जाति-व्यवस्था और अस्पृश्यता जैसी बुराइयों से था। छद्म या मायावी आंबेडकर भक्त यह कभी नहीं बताना चाहेंगे कि बाबासाहेब, जिनका पैतृक उपनाम सकपाल था, ने अपने ब्राह्मण शिक्षक का दिया उपनाम आजीवन अपने हृदय से लगाये रखा। बाबासाहेब की पत्नी सविता आंबेडकर स्वयं सारस्वत ब्राह्मण थीं, यह बात पता चलने पर डॉ आंबेडकर के व्यक्तित्व की अल्पज्ञात परतें हटती हैं, तो उन लोगों की दुकान बंद होती है, जो उन्हें वर्गीय नफरत के प्रतीक के तौर पर प्रचारित कर अपना ‘राजनीतिक कारोबार’ चला रहे हैं।

31  वर्ष बाद आंबेडकर यदि तथ्यों के आईने में फिर जीवंत हो उठे हैं, तो इसलिए क्योंकि कोई भी राष्ट्र एक बार जागने के बाद अपने राष्ट्रनायकों से छल बर्दाश्त नहीं करता।  आज देश जागा हुआ है और उसे अपने बाबासाहेब के साथ कोई छल अब और बर्दाश्त नहीं है।

बाबासाहेब के हिंदुत्व और राष्ट्र विषयक विचार सामने आयें, इसमें बुद्धि की ठेकेदार कुछ टोलियों को भारी आपत्ति है। पाकिस्तान के कट्टर मंसूबों का नोटिस लेते हुए और हिंदू समाज की राष्ट्रहित में एकता पर बाबासाहेब ने तत्कालीन परिस्थिति में कैसी स्पष्टता से बात रखी, कुछ लोग उन बातों पर परदा पड़ा रहने देना चाहते हैं। इस बारे में किसी ‘चिंतक’ की बजाय खुद बाबासाहेब की एक टिप्पणी सारी बात साफ कर देती है, जो उन्होंने मुंबई में आयोजित प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला के दौरान कही थी। डॉ आंबेडकर कहते हैं- ‘इस झूठी धारणा को न पालें कि पाकिस्तान अपने मुसलिम साम्राज्य को भारत में फैलाने में समर्थ होगा। हिंदू उन्हें धूल चटा देंगे। मैं मानता हूं कि कुछ बातों पर हिंदुओं का आपसी झगड़ा है, लेकिन मैं आपके समक्ष शपथ लेता हूं कि मैं अपनी मातृभूमि के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दूंगा।’

कुछ लोग उन्हें हिंदू विरोधी ठहराते हुए तर्क देते हैं कि उन्होंने इस धर्म का त्याग कर बौद्ध मत अपना लिया था। लेकिन बाबासाहेब को ढाल बनाकर हिंदू धर्म को निशाना बनाने वाले लोग यहां भी गलत हैं। बाबासाहेब की पीड़ा हिंदू समाज की कुरीतियों की पीड़ा है। उनका बौद्ध मत को अपनाना उस आक्रोश का संदेश है, जो वह अपने समाज को देना चाहते थे। वंचित समाज वामपंथ की पैसे-कौड़ी पर आधारित समता की तरफ ना लुढ़क जाये, वह हिंदू समाज की छतरी तले भले कुछ अंतर पर रहे, लेकिन वहीं बना रहे, ऐसा उनका प्रयत्न था। बौद्धमत और कम्युनिज्म पर बाबासाहेब के विचारों का साक्षात्कार झूठ के बवंडर को उड़ाने के लिए जरूरी है। इस संदर्भ में भारतीय मजदूर संघ के प्रणेता दत्तोपंत जी ठेंगड़ी के साथ हुई वार्ता को पढ़ना दिलचस्प हो सकता है। बौद्धमत की ओर कदम बढ़ाते बाबासाहेब कहते हैं- ‘अनुसूचित जातियों और कम्युनिज्म के बीच आंबेडकर एक बाधा है और सवर्ण जातियों और कम्युनिज्म के बीच गोलवलकर (तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी) एक बाधा हो सकते हैं’. (डॉ बाबासाहेब आंबेडकर, दे बा ठेंगड़ी पृष्ठ-16).

आज कामरेड बाबासाहेब का चित्र लगाकर उन पर वर्ग संघर्ष के पुरोधा का ठप्पा लगाते हैं। यह षड्यंत्र बंद होना चाहिए. यह बाबासाहेब के अंतर्मन से अन्याय है। डॉ आंबेडकर ने साफ-साफ कहा है कि मैं कम्युनिस्टों का कट्टर दुश्मन हूं। कम्युनिस्ट राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजदूरों का शोषण करते हैं। बाबासाहेब को हिंदू धर्म से अलग करने के लिए पोप के प्रतिनिधि आये, निजाम के हरकारे आये, लेकिन उन्होंने किसी को घास नहीं डाली। उन्होंने कहा कि यदि मैं इसलाम में गया या ईसाइयत को स्वीकार किया, तो यह देश एक बड़े खतरे में चला जायेगा। इसलिए मैं उसी रास्ते को अपना रहा हूं, जिससे इस देश के मौलिक तत्वज्ञान के साथ जुड़ा रहूं।

डॉ आंबेडकर को हिंदू विरोधी बताने वाले कभी यह नहीं बताना चाहेंगे कि कानून मंत्री के तौर पर उन्होंने जिस हिंदू कोड बिल का प्रस्ताव रखा, उसमें उन्होंने हिंदू शब्द की व्याख्या के अंतर्गत वैदिक मतावलंबियों के अलावा शैव, सिख, जैन, बौद्ध सभी को शामिल किया था। यह बाबासाहेब का लिखा प्रस्ताव था, उनका अपना मन और मत था। अपने मन से वह हिंदू धर्म की छतरी से बाहर कब हुए? सो, यह समय सच का है। तकनीक का, मीडिया का है। 131  वर्ष बाद आंबेडकर यदि तथ्यों के आईने में फिर जीवंत हो उठे हैं, तो इसलिए क्योंकि कोई भी राष्ट्र एक बार जागने के बाद अपने राष्ट्रनायकों से छल बर्दाश्त नहीं करता।  आज देश जागा हुआ है और उसे अपने बाबासाहेब के साथ कोई छल अब और बर्दाश्त नहीं है।

(पाञ्चजन्य ने बाबा साहेब पर विशेष अंक प्रकाशित किया था। इस अंक ने बिक्री के नए कीर्तिमान बनाए। शोधार्थियों के बीच आज भी इस विशेष अंक की मांग बनी हुई है।) 

Topics: समाज का काम मेरा कामसमाज का दुख मेरा दुखसमाज का हित मेरा हितहिंदू समाज की छतरी तलेCountry must be placed above community.
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