आर्थिक सहयोग और विकास संगठन समय-समय पर एक सर्वे कराता है जिसका नाम है-मानवशक्ति प्रतिभा अभाव सर्वेक्षण। इसके तहत दस या दस से ज्यादा कर्मचारियों वाले संस्थानों, कंपनियों और फर्मों से यह पूछा जाता है कि उन्हें अपनी जरूरत के लिहाज से कुशल कर्मचारी मिल रहे हैं या नहीं। इसके आधार पर एक सूची बनाई जाती है कि किन देशों में कुशल कर्मचारियों की सबसे ज्यादा कमी है।
सन् 2018 के सर्वे के अनुसार भारत कौशल का सबसे ज्यादा संकट झेल रहे देशों की सूची में चौथे नंबर पर था। तब भारत के 56 प्रतिशत संस्थानों ने कहा था कि उन्हें अपनी जरूरत के लिहाज से कुशल कर्मचारी नहीं मिल रहे। दूसरी तरफ ग्रेजुएटों की संख्या के लिहाज से भारत दुनिया का शीर्ष देश है। फिर भी कंपनियां कह रही हैं कि उन्हें सही उम्मीदवार नहीं मिल रहे। क्यों? हम ग्रेजुएट तो बहुत सारे तैयार कर रहे हैं लेकिन उन क्षेत्रों में नहीं, जहां देश को ज्यादा कर्मचारियों की जरूरत है। ऐसे ग्रेजुएट नहीं जिनके पास वह दक्षता हो जिन्हें बाजार तलाश रहा है। यह विरोधाभास गहन चिंतन की मांग करता है क्योंकि यह देश के भविष्य से जुड़ा मुद्दा है, जो उसके युवाओं की उत्पादकता पर निर्भर करता है।
मांग ज्यादातर सर्विस सेक्टर और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से आ रही है,जो पिछले कुछ साल से सरकार और निजी क्षेत्र, दोनों के रडार पर हैं। डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया आदि से आप अपरिचित नहीं हैं। हमारे ग्रेजुएट इन क्षेत्रों की मांग पूरी करने के लिए पूरी तरह कौशल प्राप्त नहीं हैं। इनमें इंजीनियरिंग ग्रेजुएट भी शामिल हैं। इन ग्रेजुएटों में एक बड़ी संख्या हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाएं बोलने वालों की है। अंग्रेजी में प्रवीणता रखने वालों के साथ उतनी बड़ी समस्या नहीं है लेकिन भारतीय भाषाओं की पृष्ठभूमि से आने वालों के बीच जागरूकता अपेक्षाकृत कम है।
वैज्ञानिक मानसिकता और मनोवृत्ति को बढ़ावा देने की जरूरत है क्योंकि उसके बिना देश में बड़े पैमाने पर नवाचार का सिलसिला शुरू नहीं हो सकता। न ही स्टार्टअप और छोटे-बड़े कारोबारों की आंधी आ सकती है। साथ ही दुनिया भर से आ रही मांग को पूरा करने की हमारी क्षमताओं में भी तब तक विशेष बढ़ोतरी नहीं होगी,
मैंने अपने अनुभव और अध्ययन में यही पाया है कि हम हिंदी तथा स्थानीय भाषा भाषी लोग उन क्षेत्रों में कम जाते हैं जो आज रोजगार के ज्यादा मौके पैदा कर रहे हैं और जो भविष्य में भी ऐसा करते रहेंगे। ये दूसरी नौकरियों की तुलना में आमदनी भी बहुत अधिक देते हैं। लेकिन फिर भी, हमारी प्राथमिकता में ये नौकरियां और ये कारोबार नहीं हैं। इसकी एक वजह तो आर्थिक है। हिंदीभाषी मध्य और निम्न मध्य परिवारों के लोग अपने बच्चों को आधुनिक और उन्नत किस्म के पाठ्यक्रमों में दाखिला नहीं दिला पाते। दूसरी बाधा अंग्रेजी भाषा की है जिसका ज्ञान आधुनिक कौशल पाने के लिए काफी हद तक एक अनिवार्यता है। लेकिन तीसरी और ज्यादा गंभीर समस्या हमारी जागरूकता और मानसिकता की है। जिस तरह से हमारी दुनिया समृद्धों और अभावग्रस्तों के बीच बंटी है, उसी तरह से हमारी महत्वाकांक्षाओं के बीच भी अंतर है।
हमें गांवों और कस्बों में वैज्ञानिक मानसिकता और मनोवृत्ति को बढ़ावा देने की जरूरत है क्योंकि उसके बिना देश में बड़े पैमाने पर नवाचार का सिलसिला शुरू नहीं हो सकता। न ही स्टार्टअप और छोटे-बड़े कारोबारों की आंधी आ सकती है। साथ ही दुनिया भर से आ रही मांग को पूरा करने की हमारी क्षमताओं में भी तब तक विशेष बढ़ोतरी नहीं होगी, जब तक हम विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित (एसटी ईएम) की पढ़ाई को बढ़ावा नहीं देंगे। और यह काम हमें अपनी भाषाओं में भी करना होगा।
आज इसके लिए बहुत अनुकूल समय है। एक तो सरकार की नीतियां अनुकूल हैं, दूसरे देश में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने और नए कारोबारी पैदा करने की दिशा में संकल्प दिखाई दे रहा है। तीसरे, दुनिया भर में हार्डवेयर क्षेत्र में ऐसी कई चीजों की कमी चल रही है जिनका भारत अपने यहां उत्पादन कर सकता है-जैसे माइक्रोप्रॉसेसर। मैन्यूफैक्चरिंग या विनिर्माण में चीन दबाव में है और दुनिया को वैकल्पिक आपूर्तिकर्ताओं की तलाश है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का क्षेत्र भी तेजी से नई आर्थिक संभावनाएं पैदा कर रहा है और भारत को इनका लाभ उठाने के लिए सबसे अनुकूल देशों में माना जा सकता है। भारत आईटी क्षेत्र में दुनिया की बड़ी शक्ति तो है लेकिन हमारी ज्यादातर बढ़त बीपीओ और सेवा क्षेत्र में है। सॉफ्टवेयर विकास के क्षेत्र में भी हम अभी कोई बड़ी ताकत नहीं हैं जहां हमारे लिए एक मौका है, खासकर इसलिए कि हमारे यहां पढ़े-लिखे युवाओं की बहुत बड़ी संख्या है। हां, हमें उन्हें सही दिशा में प्रोत्साहित करने की जरूरत है।
(लेखक माइक्रोसॉफ़्ट में ‘निदेशक- भारतीय भाषाएं तथा सुगम्यता’ के पद पर कार्यरत विख्यात तकनीकविद् हैं)
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