भारतीय राजनीति में देशभक्ति, कर्मठता, निष्ठा और समर्पण के पर्याय सुंदर सिंह भंडारी ने अपना संपूर्ण जीवन ध्येयव्रती के रूप में राष्ट्र को समर्पित कर दिया। वे ‘वज्रादपि कठोराणि मृदुनि कुसुमादपि’ के साक्षात स्वरूप बने। उन्होंने ‘परम वैभवं नेतुमेत् स्वराष्ट्रं’ को जीवन मंत्र मानकर अपने को तिल-तिल होम कर दिया… न कभी झुके, न कभी डिगे। परम पूजनीय डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के आदर्शों से उन्होंने प्रेरणा प्राप्त की और श्री गुरुजी (माननीय माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर) के शब्दों को सिद्धांत बना लिया। हर परिस्थिति में ध्येय के प्रति अविचल निष्ठा उनकी सबसे बड़ी पहचान थी। संगठन और राष्ट्र के हित को सर्वोपरि रखते हुए वे आजीवन संघ के अनुशासित सिपाही की तरह कर्तव्य पथ पर अडिग रहे। वे उस पीढ़ी के संगठनकर्ताओं में थे, जिसने साधारण थैले में दो जोड़ी कपड़े डालकर कार्यकर्ताओं के घर प्रवास करते हुए धूप-बरसात से बेपरवाह गांव-गांव, शहर-शहर घूमकर संगठन को खड़ा किया। 60 वर्ष से अधिक का उनका सक्रिय जीवन राष्ट्र की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा और आदर्शों की अमूल्य धरोहर है।
भंडारी जी योग्यता का सम्मान करते थे, लेकिन अनुशासनहीनता उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। संगठन के सिद्धांतों को लेकर वे अपने प्रिय व्यक्तियों के साथ भी सख्ती बरतने में संकोच नहीं करते थे। उनके सामने किसी की सिफारिश नहीं चलती थी। नपे-तुले शब्दों में खरी-खरी कह देना उनका स्वभाव था
12 अप्रैल, 1921 को उदयपुर (राजस्थान) में भंडारी जी का जन्म हुआ। उनके पिता पेशे से डॉक्टर थे। इंटरमीडिएट तक सिरोही और उदयपुर में पढ़ने के बाद भंडारी जी बी.ए. करने कानपुर चले गए। वहां के एस.डी. कॉलेज में पढ़ते हुए उनका संपर्क दीनदयाल जी से हुआ, जो दूसरे विषय से बी.ए. कर रहे थे और बगल वाले कमरे में रहते थे। 1938 में मकर संक्रांति के उत्सव में दोनों ने साथ में संघ की प्रतिज्ञा ली। अगले वर्ष विधि की पढ़ाई कर रहे भंडारी जी को कानपुर नगर का कार्यभार सौंपा गया। यह उनकी संघ में सक्रियता की शुरुआत थी। विधि की पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने कानपुर के ही डी.ए.वी. कॉलेज में एम.ए. में दाखिला लिया। इस दौरान संघ का कार्यक्षेत्र बढ़ा और भंडारी जी को भी अतिरिक्त जिम्मेदारियां सौंपी गईं। 1941-42 में उन्होंने अधिकारी शिक्षण वर्ग (ओटीसी) में लखनऊ में शिक्षक का उत्तरदायित्व निभाया। एम.ए. करने के बाद वे उदयपुर लौटकर वकालत की प्रैक्टिस के साथ-साथ संघ के काम में जुट गए। बाद में वकालत छोड़कर अध्यापन कार्य किया और साइक्लोस्टाइल समाचार पत्र ‘चिंगारी’ भी निकाला।
निर्भीक प्रचारक
निर्भीक भंडारी जी ने युवावस्था में ब्रिटिश राज की भी परवाह नहीं की। हेडमास्टर रहते हुए वे संघ कार्य से जुड़े हुए थे और नियमित रूप से प्रवास करके संघ का विस्तार करने में जुटे रहते थे। उस दौरान संघ की गतिविधियां राम सेवक संघ के नाम से हो रही थीं। एक बार मेवाड़ रियासत के इंस्पेक्टर जनरल ने भंडारी जी को मिलने बुलाया और उनसे पूछा कि वे लोग इकट्ठा होकर क्या करते हैं? भंडारी जी ने उत्तर दिया कि संघ की शाखा चलाते हैं। इंस्पेक्टर जनरल ने पूछा कि उन्होंने संस्था का पंजीकरण करवाया है या नहीं। भंडारी जी ने कहा, उसकी कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई।
मैंने सोसाइटी रजिस्ट्रेशन का कानून जरूर पढ़ा है। उसके लिए सात सदस्यों का होना आवश्यक है। लेकिन हम लोग संघ में इस प्रकार की कोई सदस्यता नहीं देते, इसलिए संस्था के पंजीकरण का सवाल ही पैदा नहीं होता। इस पर इंस्पेक्टर जनरल ने कहा कि यह सब नहीं चलेगा, आप चीफ सेक्रेटरी से मिलिए। भंडारी जी चीफ सेक्रेटरी से मिले तो उन्होंने भी पंजीकरण करवाने की सलाह दी। भंडारी जी ने इसकी जानकारी श्रीगुरुजी को दी। श्रीगुरुजी ने उन्हें मिलने के लिए बुलवाया। भंडारी जी ने सारी बात बताई तो श्रीगुरुजी ने कहा, ठीक है, काम जारी रखो। भंडारी जी के लिए श्रीगुरुजी का आदेश सब कुछ था, वे अपने काम में वापस जुट गए। आगे चलकर रियासतों के विलय से राजस्थान का गठन होने के बाद पुरानी संस्थाओं के कानून अप्रभावी होते गए और पंजीकरण का विषय अप्रासंगिक हो गया।
राजनीति में डंका
1951 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो श्रीगुरुजी ने उन्हें संगठन खड़ा करने के लिए अपने श्रेष्ठ पंच-प्रचारक दिए… उनमें एक भंडारी जी थे। वे जनसंघ के संस्थापकों और उसे आगे बढ़ाने वाले प्रमुख नेताओं में शामिल रहे। प्रारंभ में उन्हें राजस्थान का संगठन मंत्री बनाया गया। औपचारिक संगठन खड़ा होने के बाद जयपुर प्रजामंडल के अध्यक्ष रहे श्री चिरंजीलाल मिश्र प्रदेश अध्यक्ष बने और भंडारी जी को महामंत्री का दायित्व मिला। उस दौर में उन्हें राजस्थान में जनसंघ का पर्याय माना जाता था। भंडारी जी के संगठन कौशल को इस बात से जाना जा सकता है कि 1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में जनसंघ को देश भर में सिर्फ तीन सीटें मिलीं तो डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और उन्हीं के गृह राज्य (पश्चिम बंगाल) के एक अन्य सदस्य के अलावा तीसरे विजयी उम्मीदवार राजस्थान से थे। अन्य किसी राज्य में जनसंघ का खाता नहीं खुल सका।
यह जानना दिलचस्प है कि राजस्थान के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहे मोहनलाल सुखाड़िया के प्रथम विधानसभा चुनाव में भंडारी जी उनके विरुद्ध लड़ने वाले थे, लेकिन उनका नामांकन खारिज कर दिया गया। हुआ यह कि भंडारी जी ने एक नामांकन फॉर्म में चुनाव एजेंट के रूप में खुद का नाम दिया, लेकिन उनके दूसरे फॉर्म में एक अन्य व्यक्ति ने चुनाव एजेंट के लिए अपना नाम लिख दिया। यह बात भंडारी जी के ध्यान में आई तो उन्होंने उस व्यक्ति का नाम हटवा दिया। यह सारी प्रक्रिया स्क्रूटिनी के पहले हो चुकी थी। इसके बावजूद दो चुनाव एजेंट होने के आधार पर नामांकन रद्द कर दिया गया। हालांकि भंडारी जी ने एक नाम खुद का दिया था, इसलिए दूसरे व्यक्ति का नाम देने से भी एक एजेंट रखने के नियम की अवहेलना नहीं होती थी। यदि वे इस संबंध में याचिका दायर करते तो फैसला उनके पक्ष में आ सकता था, लेकिन सत्ता के मोह से दूर रहने वाले भंडारी जी ने प्रयास ही नहीं किया।
अपने समर्पण और सक्रियता के कारण भंडारी जी का प्रभाव राष्ट्रीय स्तर का होता गया। 1958 में जनसंघ नेतृत्व द्वारा चार संभागों में देश को वर्गीकृत करके संगठनात्मक दायित्व तय किए गए तो भंडारी जी को पश्चिमी संभाग की जिम्मेदारी दी गई। उनके कार्यक्षेत्र के मुख्य राज्य राजस्थान और मध्यप्रदेश थे, जिनके साथ गुजरात और उड़ीसा भी जुड़े थे। 1962 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ को 14 सीटें मिलीं। सिर्फ चार राज्यों में जनसंघ उम्मीदवार विजयी हुए थे; इनमें से दो राज्य भंडारी जी के प्रभार वाले थे। राजस्थान में एक और मध्यप्रदेश में तीन सीटों पर जीत मिली। मध्यप्रदेश में जनसंघ का वोट प्रतिशत (17.87) हरियाणा के बाद सर्वाधिक रहा।
नई पीढ़ी के शिल्पी
भंडारी जी ने कितने ही कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाया और संभावना से भरे नेताओं को शीर्ष स्तर पर अवसर दिलवाया। राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत को टिकट देने से लेकर आगे बढ़ाने तक वे राजनीतिक अभिभावक की भूमिका में रहे; इसी तरह, उत्तर प्रदेश में माधवप्रसाद त्रिपाठी के निधन के बाद कल्याण सिंह को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में आगे किया। जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष के रूप में कलराज मिश्र को लाने की योजना उन्हीं की थी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे कुशाभाऊ ठाकरे उन्हें अपना मार्गदर्शक कहते थे। वे योग्यता का सम्मान करते थे, लेकिन अनुशासनहीनता उन्हें बर्दाश्त नहीं थी। संगठन के सिद्धांतों को लेकर वे अपने प्रिय व्यक्तियों के साथ भी सख्ती बरतने में संकोच नहीं करते थे। उनके सामने किसी की सिफारिश नहीं चलती थी। नपे-तुले शब्दों में खरी-खरी कह देना उनका स्वभाव था। एक बार संगठनात्मक चुनावों के दौरान कुछ कार्यकर्ताओं ने अनुशासन तोड़ा तो राष्ट्रीय चुनाव अधिकारी के रूप में भंडारी जी ने तुरंत कार्रवाई करते हुए उन्हें चुनाव प्रक्रिया में भाग लेने से वंचित कर दिया।
आदर्शवादी आंदोलनकारी
1966 में वे पहली बार राज्यसभा के लिए चुने गए। 1967 में दीनदयाल उपाध्याय ने जनसंघ अध्यक्ष का पद संभालने पर उन्हें अखिल भारतीय महामंत्री नियुक्त किया। दीनदयाल जी की रहस्यमय मृत्यु के बाद अटल बिहारी वाजपेयी अध्यक्ष चुने गए; भंडारी जी महामंत्री के रूप में उनके साथ जुड़े रहे। 1975 में आपातकाल के बर्बर आतंक से लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश की गई। उस दौरान सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस को गिरफ्तार करके संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके विरुद्ध संघ के लोगों ने भूमिगत रहकर आंदोलन शुरू किया। नानाजी देशमुख के संयोजकत्व में लोक संघर्ष समिति तानाशाही ताकतों को चुनौती देती रही। बाद में जब नानाजी भी गिरफ्तार कर लिए गए तो आंदोलन के नेतृत्व का भार भंडारी जी के कंधों पर आ गया। वे भूमिगत रहकर आपातकाल के खिलाफ अखिल भारतीय आंदोलन का संचालन करते रहे। लेकिन आदर्शवादी इतने थे कि उस माहौल में भी झूठ बोलना स्वीकार नहीं किया। संभलकर काम करते, सावधानी से यात्राएं करते, लेकिन झूठ-प्रपंच का सहारा नहीं लिया। यहां तक कि जब पुलिस ने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर रोककर नाम पूछा तो सच बता दिया और गिरफ्तार हो गए।
पदलोलुपता से दूर
सारा जीवन राष्ट्र को समर्पित कर देने वाले भंडारी जी पदलोलुपता से सदैव दूर रहे। वे तीन बार राज्यसभा के लिए चुने गए, लेकिन उन्हें तैयार करने के लिए जनसंघ-भाजपा के नेताओं को संघ नेतृत्व के माध्यम से आग्रह करवाना पड़ता था। जब उन्हें बिहार का राज्यपाल बनाया गया तो एक वर्ष से भी कम के कार्यकाल में उन्होंने जंगलराज को ऐसी चुनौती दी कि नेताओं से माफिया तक, पूरा तंत्र उन्हें हटाने के लिए सक्रिय हो गया। तीन दशकों से अधिक समय तक जनसंघ-भाजपा के प्रमुख संगठनात्मक पदों पर रहे भंडारी जी जीवन के संध्याकाल में सक्रिय राजनीति से दूर रहते हुए भी आम राष्ट्रवादी कार्यकर्ता के दिल से जुड़े विचारों को मुखरता से उठाते रहे। काफी समय तक अस्वस्थ रहने के बाद 22 जून, 2005 को 84 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया। नश्वर संसार से उनका विदा होना नियति का अटल हिस्सा है, लेकिन जनसंघ-भाजपा के इतिहास में उनके योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकेगा।
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