संविधान दो शब्दों ‘सम और विधान’ से मिलकर बना है और इसका अर्थ है समान विधान, जबकि ‘कॉन्स्टिट्यूशन’ का अर्थ है ‘विधान’। जिस प्रकार अंग्रेजी भाषा में ‘धर्म’ का कोई समानार्थी शब्द नहीं है इसलिए ‘रिलीजन’ का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार ‘संविधान’ का कोई समानार्थी शब्द नहीं है, इसलिए कॉन्स्टिट्यूशन का उपयोग होता है। वास्तव में धर्म एवं रिलीजन या संविधान एवं कॉन्स्टिट्यूशन अलग-अलग धारणा हैं।
संविधान के भावार्थ को अनुच्छेद 14, 15, 16 में स्पष्ट किया गया है। अनुच्छेद 14 कहता है कि सभी भारतीय एक समान हैं और सबको कानून का समान संरक्षण प्राप्त है। अनुच्छेद 15 कहता है कि जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और जन्म स्थान के आधार पर किसी से भेदभाव नहीं किया जाएगा और अनुच्छेद 16 कहता है कि नौकरियों में सबको समान अवसर मिलेगा। इसी प्रकार अन्य जितने भी अधिकार और नीति निर्देशक तत्व हैं, वे सब समता, समानता और समरसता मूलक समाज की स्थापना करने का निर्देश देते हैं।
अल्पसंख्यक की परिभाषा नहीं
अनुच्छेद 29-30 में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का जिक्र तो है लेकिन अल्पसंख्यक को परिभाषित नहीं किया गया है। संविधान सभा की बहस पढ़ने से स्पष्ट है कि अनुच्छेद 29 सभी भारतीयों को अपनी भाषा, शैली और परंपराओं के संरक्षण का अधिकार देता है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि किसी भी भारतीय नागरिक को धर्म, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर राज्य सरकार द्वारा संचालित या राज्य सरकार द्वारा सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थान में प्रवेश देते समय किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।
अंग्रेजों ने बांटो और राज करो नीति के तहत अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक में विभाजनकिया। इसीलिए संविधान सभा में ‘अल्पसंख्यक’ मुद्दे पर जोरदार बहस हुई थी। उस के सदस्य तजम्मुल हुसैन ने जोर देकर कहा था कि ‘हम अल्पसंख्यक नहीं हैं, अल्पसंख्यक शब्द अंग्रेजों की खोज है। अंग्रेज यहां से चले गए, इसलिए अब इस शब्द को डिक्शनरी से हटा दीजिए। अब
हिंदुस्थान में कोई अल्पसंख्यक नहीं है, हम सब भारतीय हैं’।
अनुच्छेद 30 (1) कहता है कि अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान का निर्माण करने और संचालित करने का अधिकार है। तो अनुच्छेद 30(2) कहता है कि केंद्र और राज्य सरकार शिक्षण संस्थानों को मदद देने में इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगी कि वह किसी भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा संचालित है। लेकिन संविधान सभा की बहस से स्पष्ट है कि यह अनुच्छेद धार्मिक विभाजन की त्रासदी को देखते हुए अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा की भावना पैदा करने के लिए बनाया गया था, न कि अल्पसंख्यकों को अत्यधिक अधिकार देने के लिए।
संविधान सभा ने धार्मिक विभाजन को नकारा
अंग्रेजों ने ‘बांटो और राज करो’ नीति के अंतर्गत अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विभाजन शुरू किया। सन् 1899 में तत्कालीन जनगणना आयुक्त ने तो यह भी कह दिया कि भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं और सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम अल्पसंख्यक। इसीलिए संविधान सभा में ‘अल्पसंख्यक’ मुद्दे पर जोरदार बहस हुई थी। 26 मई, 1949 को संविधान सभा में आरक्षण पर बहस के दौरान अनुसूचित जातियों को आरक्षण देने के प्रश्न पर आम राय थी लेकिन धार्मिक आधार पर आरक्षण देने पर आम राय नहीं बन पाई। पंडित नेहरू ने भी कहा था कि पंथ/आस्था/मजहब/धर्म आधारित आरक्षण गलत है लेकिन तब तक अल्पसंख्यक का मतलब मुसलमान हो चुका था। संविधान सभा के सदस्य तजम्मुल हुसैन ने जोर देकर कहा था कि ‘हम अल्पसंख्यक नहीं हैं, अल्पसंख्यक शब्द अंग्रेजों की खोज है। अंग्रेज यहां से चले गए, इसलिए अब इस शब्द को डिक्शनरी से हटा दीजिए। अब हिंदुस्तान में कोई अल्पसंख्यक नहीं है, हम सब भारतीय हैं’। तजम्मुल हुसैन के भाषण पर संविधान सभा में खूब वाहवाही हुई थी।
राजनीतिक लाभ के लिए अल्पसंख्यक का उपयोग
अनुच्छेद 29-30 में भाषाई-धार्मिक अल्पसंख्यक को लिए विशेष प्रावधान हैं लेकिन अल्पसंख्यक परिभाषित नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं को अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय के गठन की जरूरत नहीं महसूस हुई थी लेकिन राजनीति को इसकी जरूरत थी। 1992 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम बनाकर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग बनाया गया। इस एक्ट में भी अल्पसंख्यक की परिभाषा नहीं तय की गई। धारा 2(सी) केंद्र सरकार को किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का असीमित अधिकार देती है।
किसी जाति समूह को अनुसूचित जाति या जनजाति घोषित करने की विधि बहुत जटिल है और यह काम केवल संसद ही कर सकती है (अनुच्छेद 341-342) लेकिन किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का काम सरकारी बाबू भी कर सकता है। इसी अधिकार द्वारा केंद्र सरकार ने 23 अक्तूबर 1993 को एक अधिसूचना के जरिये पांच समुदायों (मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसी) को अल्पसंख्यक घोषित किया। 2006 में अलग से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय शुरू किया गया और 2014 में तत्कालीन संप्रग सरकार ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले जैन समुदाय को भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2006 में राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में कहा था, ‘यह सुनिश्चित करने के लिए कि अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान विकास में बराबरी से फायदा ले सकें, हमें मौलिक योजना बनानी पड़ेगी। संसाधनों पर उनका पहला हक होना चाहिए’। उन्होंने तो ‘अल्पसंख्यक’ का मतलब ही मुसलमान मान लिया था लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी देश में अल्पसंख्यक कौन है, यह तय नहीं हो पाया है। कश्मीर में मुसलमानों को किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहा जा सकता लेकिन अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सारी सहूलियतें इन्हें मिलती हैं और हिंदू समुदाय जो कि वास्तविक अल्पसंख्यक है, उन सुविधाओं से महरूम है। यही स्थिति लद्दाख, लक्षद्वीप, मिजोरम, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और पंजाब में है।
न्यायालय भी पक्ष में नहीं
2002 में टीएमए पई केस में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा था कि भाषाई-धार्मिक अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जाए, न कि राष्ट्रीय स्तर पर लेकिन उच्चतम न्यायालय के फैसले को आज तक लागू नहीं किया गया। इसका दुष्प्रभाव यह है कि कई राज्यों में जो बहुसंख्यक हैं, उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है। 2005 में उच्चतम न्यायालय की 3 जजों की पीठ ने कहा था कि धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक की अवधारणा देश की एकता-अखंडता के लिए बहुत खतरनाक है, इसलिए जितना जल्दी हो सके, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक का विभाजन बंद होना चाहिए। 2007 में पंजाब उच्च न्यायालय ने पंजाब में सिखों को मिला अल्पसंख्यक का दर्जा समाप्त कर दिया था लेकिन वह मामला भी उच्चतम न्यायालय में संविधान पीठ में लंबित है। संविधान में सभी नागरिकों को बराबर अधिकार मिला हुआ है, इसलिए अब समय आ गया है कि अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक के आधार पर समाज का विभाजन बंद किया जाए अन्यथा दूसरा उपाय यह है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा और राज्य स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान के लिए दिशा-निर्देश तय हों और यह सुनिश्चित किया जाए कि केवल उसी समुदाय को संविधान के अनुच्छेद 29-30 का संरक्षण मिले जो वास्तव में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावहीन हो और संख्या में नगण्य अर्थात एक प्रतिशत से कम हों।
(लेखक उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
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