गत 29 मार्च को दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के तत्वावधान में एक गोष्ठी का आयोजन हुआ। विषय था- ‘पुरातत्व एवं अभिलेखशास्त्र के आलोक में भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन।’ गोष्ठी का उद्घाटन रा.स्व.संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल ने किया। उन्होंने कहा कि वामपंथी इतिहासकारों ने भारत को बांटने और भारतीयों के स्वाभिमान को तोड़ने वाला इतिहास लिखा। कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा, यह मूर्खतापूर्ण बात है, देशद्रोह है।
उन्होंने कहा कि कुछ इतिहासकारों ने औरंगजेब का महिमामंडन करने के लिए लिखा कि उसने मंदिरों के लिए दान और जमीन दी, लेकिन यह नहीं लिखा कि उसने हजारों मंदिरों को ध्वस्त किया। इसी तरह वामपंथी इतिहासकार यह नहीं लिखते कि कुतुबमीनार को 26 जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया। डॉ. कृष्णगोपाल ने नालंदा विश्वविद्यालय का उल्लेख करते हुए कहा कि कुछ इतिहासकार लिखते हैं कि व्यक्तिगत झगड़े में विश्वविद्यालय को जलाया गया, यह बिल्कुल गलत तथ्य है। उसे बख्तियार खिलजी ने ध्वस्त किया था, जिसे असम में राजा भृगु द्वारा युद्ध में पराजित किया गया। उन्होंने कहा कि विदेशी और वामपंथी इतिहासकारों ने अपने-अपने हिसाब से इतिहास लिखा। प्रश्न उठता है कि किस इतिहास को सही माना जाए? इसलिए अब भारत की दृष्टि से भारत के इतिहास का पुनर्लेखन किया जाना आवश्यक है।
इस अवसर पर संस्कृत विभाग के अध्यक्ष प्रो. रमेश चन्द्र भारद्वाज, प्रख्यात पुरातत्वविद् प्रो. बी. आर. मणि, शिक्षाविद् प्रो. चांदकिरण सलूजा ने भी अपने विचार रखे। गोष्ठी के दूसरे सत्र को डॉ. रवीन्द्र वशिष्ठ, प्रो. हीरामन तिवारी और प्रो. कौशल शर्मा ने संबोधित किया। गोष्ठी का समापन सत्र प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक श्री जे. नंद कुमार के सान्निध्य में संपन्न हुआ।
उन्होंने कहा कि उपनिवेश काल में सबसे अधिक हमारे देश की कहानी अर्थात् इतिहास को खत्म करने का काम किया गया, क्योंकि जब किसी देश के इतिहास को समाप्त कर दिया जाता है, तो वह स्वयं को हीन समझने लगता है। इसलिए हमें अपने इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता है। इस सत्र को इस्कॉन इंडिया के संयोजक श्री कृष्ण कीर्ति दास और भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद के उप निदेशक डॉ. अभिषेक टंडन ने भी संबोधित किया।
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