तेज रफ्तार सड़कों पर जानवर के बीच में आ जाने से मानव और पशु, दोनों के लिए जान का खतरा बना रहता है। इसमें पशुओं के घायल हो जाने पर उन्हें बेसहारा रहना पड़ता है। ऐसे ही अपाहिज हुए एक बछड़े ‘कृष्णा’ की तड़प से जयपुर के पशु चिकित्सक डॉ. तपेश माथुर द्रवित हुए और खोज हुई ‘कृष्णा लिम्ब’ की। डॉ. तपेश के पशु-जनचेतना अभियान से आज दूर-दराज के किसान और पशुपालक भी जुड़ रहे हैं और अपंग व लाचार पशुओं के लिए बेहतर जीवन की आस बंधी
आम सड़कों या हाइवे पर होने वाले हादसों की बड़ी वजहों में से एक, गाड़ियों के सामने अचानक आ जाने वाले पशु भी हैं। अंधेरे में तो सड़क पर किसी को संभलने का मौका तक नहीं मिलता और हादसे की आशंका बनी रहती है। हादसे में घायल पशुओं को समय रहते चिकित्सा नहीं मिल पाने से या तो वे जिंदा नहीं बचते या अपाहिज हो जाते हैं। हमारे देश की संस्कृति में प्राणी मात्र के प्रति सखा भाव विद्यमान है जहां बेसहारा पशुओं को गांव-कस्बों में गोचर पाल लिया करते थे। आज पशु और मानस के जीवन के बीच तालमेल में कमी की वजह से न गोचर बचे हैं, न पशु जगत से गहरा लगाव। पशुओं को खाने और खुली हवा की तलाश में भटकना पड़ता है, मगर उन्हें खाना नसीब हो न हो, हादसों का शिकार जरूर होना पड़ता है। तेज रफ़्तार वाली सड़कों पर किसी जानवर के बीच में आ जाने पर मानव और पशु, दोनों की जान के लिए खतरा बना रहता है। इतना ही नहीं, रेलवे ट्रैक और सड़कों पर जंगली जानवरों की मौत के आंकड़े भी देश में बद से बदतर हो गए हैं।
इस समस्या से निपटने के लिए देश के अलग-अलग इलाकों में पुलिस, वन विभाग और पशु पालन विभाग, नगर निकाय मिलकर अपनी-अपनी तरह की पहल कर रहे हैं, लेकिन एक मुहिम ऐसी भी है जिसने हादसों के बाद अपंग हो जाने वाले पशुओं की तकलीफ की ओर भी ध्यान खींचा है। कृष्णा लिंब के नाम से अपनी पहचान बना चुके इस पशु-जनचेतना अभियान को जयपुर के पशु चिकित्सक डॉ. तपेश माथुर ने 2014 में शुरू किया। हादसे में पैर गंवाने वाले पशुओं के कृत्रिम पैर लगाने से शुरू हुई इस मुहिम ने देश भर के पशुपालकों को यह संदेश देने की कामयाब कोशिश की है कि लाचार पशुओं के प्रति हमारा बर्ताव मानवीय रहे, और अच्छा जीवन जीने के उनके हक को हासिल करने में पूरा समाज भागीदार बने। अपंग पशुओं को कृष्णा लिंब के अपने नवाचार से आस बंधाने और अपंगता के कारणों को दूर करने के लिए उनकी कोशिशों से लोगों का नजरिया बदला है। लोग अब सड़क पर दिखने वाले घायल पशुओं की मदद के लिए उनसे सलाह लेते हैं तो साथ ही अपंग पशुओं को गौशाला या बेसहारा छोड़ने से पहले कृत्रिम पैर से चलने का विकल्प भी तलाशते हैं।
लाचार पशु देखकर कौंधा विचारइस मुहिम के तहत डॉ. तपेश ने अब तक 16 राज्यों में 120 से ज्यादा पशुओं को कृत्रिम पैर लगाकर उन्हें सक्षम बनाने का प्रयास किया है जिनमें 90प्रतिशत मामले गायों के हैं। इसके अलावा उन्होंने घोड़ा, श्वान, भैंस, खरगोश और चिड़िया के भी पैर लगाकर उनके जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश की है। अपनी इस मुहिम के तहत वे पशु क्रूरता से सम्बन्धित कानूनों और पशुओं के प्रति हमारी जिम्मेदारियों के बारे में जागरूक कर रहे
गौशाला में अपनी पोस्टिंग के दौरान अपंग पशुओं को लाचारी से सामना होने पर डॉ. तपेश माथुर ने अपंग पशुओं के लिए कृत्रिम पांव तैयार किया और 2014 में कृष्णा नाम के एक बछड़े को सबसे पहले यह पांव लगाया। टूटे पैर के बूते मुश्किल से चल पाने वाले बछड़े को दौड़ता देखना उनके जीवन का सबसे सुखद पल था जिसने उन्हें अपंग और लाचार पशुओं को बेहतर जीवन देने का आजीवन मिशन थमा दिया। इसके साथ ही अपंग और बेसहारा पशु की तकलीफ दूर करना तो उनका एक ध्येय बना ही लेकिन पशु अपंगता के कारणों को दूर करने का विचार भी उन्हें घेरे रहा। लोगों को इस मसले पर जागरूक करने के लिए उन्होंने अपने स्तर पर 2014 में देशव्यापी मुहिम शुरू की जिसमें जरूरमंद पशु को अपने पैरों पर खड़ा करना और पशुओं के प्रति समाज के बेहतर बर्ताव और सही इलाज पर भी बात करना शुरू किया। तमाम चुनौतियों के बीच अपंग गायों को सक्षम बनाने से शुरु हुए इस काम को लोगों का भरपूर स्नेह मिला, अपंगता को लेकर लोगों की धारणा बदली और भ्रांतियां भी दूर हुर्इं।
संवेदना और सेवा
डॉ. माथुर ने इस मुहिम के तहत उन्होंने अब तक 16 राज्यों में 120 से ज्यादा पशुओं को कृत्रिम पैर लगाकर उन्हें सक्षम बनाने का प्रयास किया है जिनमें 90प्रतिशत मामले गायों के हैं। इसके अलावा उन्होंने घोड़ा, श्वान, भैंस, खरगोश और चिड़िया के भी पैर लगाकर उन्हें खड़ा करने और उनके जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश की है। अपनी इस मुहिम के तहत वे पशु क्रूरता से सम्बन्धित कानूनों के बारे में और नागरिक के तौर पर पशुओं के प्रति हमारे कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के बारे में भी युवाओं और आम लोगों को जागरूक कर रहे हैं। डॉ. तपेश का कहना है कि हमें इस बारे में भी सोचना होगा कि हम किस तरह के समाज में रह रहे हैं जहां काम में आने के बाद पशुपालक अपने पशुओं को बेसहारा छोड़ देते हैं। हाइवे और सड़कों पर घूमते पशुओं की वजह से जो हादसे होते हैं, उससे इन्सान और पशु, दोनों के जीवन को खतरा है जिसका समाधान समाज की संवेदना और जागरूकता से ही उपजेगा। केवल घरेलू पशु ही नहीं, जंगली जानवर भी सड़क और रेल हादसों के शिकार होते हैं, जिन्हें बचाने के लिए नागरिक और तकनीक की निगरानी ही कारगर है। और, इस मामले में कई राज्य अपनी-अपनी तरह से काम भी कर रहे हैं।
अपंग-अक्षम पशु की आस
पशुओं के लिए विकसित कृष्णा लिम्ब की प्रेरणा उन्हें दो साल के कृष्णा नाम के बछड़े से मिली जिसने उन्हें ये सोच दिया कि पशुओं के लिए आत्मनिर्भरता के क्या मायने हैं। शरीर पर बाहरी तौर पर लगाए जाने वाले कृष्णा लिंब को लगभग 5-7 घंटे तक लगातार लगाया जा सकता है। और इसके लिए सेवाभावी पशु मालिक या सेवक होना जरूरी शर्त है। कीमत के कारण कोई पशु कृष्णा लिम्ब से वंचित ना रहे, इसलिए इसे कम लागत में तैयार कर गरीब और जरूरतमन्द किसान-पशुपालकों की अच्छी देखरेख में पल रही गायों और अन्य पशुओं को यह सेवा मुफ्त में उपलब्ध करवाने का लक्ष्य है। डॉ. तपेश बताते हैं कि चलने-फिरने में अक्षम होने पर पशु को सहारे की जरूरत होती है। ऐसे पशुओं की शारीरिक कार्य की यानी फिजियोलॉजी और पौष्टिकता में लगातार गिरावट आती है और वे औसतन 6 माह या दो साल से ज्यादा जीवित नहीं रह पाते। इसके लिए सबसे बड़ी जागरूकता सड़क हादसों को रोकने और घायल पशुओं को वक्त पर चिकित्सा मुहैया करवाने की है। यही एक तरीका है जिससे पशुओं को स्थायी तौर पर अपंग होने से रोका जा सकता है। सबसे जरूरी बात यह कि टूटे पैर को काटना सबसे आखिरी विकल्प ही रहे क्योंकि पशुओं में कृत्रिम पैर लगाने की चुनौतियां इंसान के मुकाबले कई गुना ज्यादा।
आंकड़े जो बदलने चाहिए
एक रिपोर्ट के अनुसार देश में होने वाले कुल सड़क हादसों में से करीब 18 प्रतिशत, सड़क पर बेसहारा पशुओं के टकराने की वजह से होते हैं। लेकिन राज्यों में दुर्घटना में घायल होने वाले पशुओं का कोई प्रामाणिक आंकड़ा नहीं होने से इस मसले की गंभीरता का अंदाजा नहीं लग पाता। यदि एक गौशाला में औसतन 5-6 अपंग पशु मानें और एक राज्य में अगर 1000 गौशालाओं का औसत लिया जाए तो इनकी संख्या 5-6 हजार होगी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि देश भर के लिए यह कितना अहम मसला है जिसका समाधान सही देखभाल, चिकित्सा और जहां संभव हो, वहां कृत्रिम पैर से भी निकाला जा सकता है। डॉ. तपेश ने एक गौशाला में अपने पदस्थापन के दौरान जब इस मामले के मानवीय पक्ष को समझा तो उन्होंने खाने-पीने के लिए मुहताज पशुओं के लिए थर्मोप्लास्टिक मैटीरियल से बने कृष्णा लिम्ब के निशुल्क वितरण का बीड़ा उठाया। खुद के स्तर पर ही शुरू इस मुहिम को अब लोगों का समर्थन और सहयोग, दोनों मिलने लगे हैं। डॉ. तपेश कहते हैं कि समाज और पशु चिकित्सा जगत में घायल पशुओं की शल्य चिकित्सा को लेकर जागरूकता फैलाने की जरूरत है ताकि लाखों पशु अपंगता के अभिशाप से मुक्त रह सकें।

पहचान और सम्मान
‘कृष्णा लिम्ब’ के नवाचार और इसे देश भर में उपलब्ध करवाने के उनके प्रयासों को कई राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सराहा गया है। पशु शल्य चिकित्सा के शीर्षस्थ संस्थान इंडियन सोसायटी फॉर वेटेरिनरी सर्जरी की ओर से इस नवाचार को प्रमाणित करते हुए उन्हें 2014 और 2015 में राष्ट्रीय पुरस्कार और स्वर्ण पदक मिला। साल 2019 में वर्ल्ड वेटेरिनरी एसोसिएशन की ओर से भी इस नवाचार के लिए उन्हें एनिमल वेलफेयर अवार्ड हासिल हुआ। भारत के उपराष्ट्रपति की ओर से 2020 में लोकार्पित भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के संकलन ‘अन्त्योदय बेस्ट प्रैक्टिसेस’ में इस नवाचार को शामिल किया गया। केन्द्र सरकार के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की ओर से पशु क्रूरता को रोकने के लिए बनी केन्द्रीय समिति सीपीसीएसईए के सदस्य के तौर भी उन्हें नामित किया गया। समानुभूति के भाव को जगाने में अपने योगदान को सबसे बड़ी उपलब्धि मानने वाले इस चिकित्सक के लिए यह बड़ा सम्मान है कि अपाहिज पशुओं की तकलीफ दूर करने के लिए लोग उनसे संपर्क करते हैं, सलाह लेते हैं, इस काम की सीमाएं भी समझते हैं और अपना योगदान देने के लिए तत्पर भी रहते हैं। कृष्णा लिंब को देश भर के दूर-दराज के इलाकों के लोगों की सराहना मिलती है जिनमें हाल ही में दक्षिण भारत के 6 साल के बच्चे का एक पत्र भी शामिल है जिसमें वह बड़ा होकर उनके जैसा पशु चिकित्सक बनने की बात लिखता है। कृष्णा लिंब के जरिए मासूमियत बरकरार रखने का यह सिलसिला जारी रहे, इसके लिए उनसे संपर्क करने वाले हर व्यक्ति को वे स्थानीय पशु चिकित्सक के जरिए ही पशु की अच्छी चिकित्सा और देखभाल की सलाह लेने को जरूर कहते हैं।
आगे की राह
इस मिशन को जारी रखने के लिए उन्होंने गरीब किसान-पशुपालकों के अपंग हुए पशुधन को अपनी प्राथमिकता में रखा है। साथ ही पालतू और छोटे पशुओं के लिए वे एनिमल कार्ट भी बना रहे हैं। वह न्यूरो और अन्य समस्याओं से जूझ रहे पशुओं को सक्षम बनाने की भी भरपूर कोशिश करते हैं। लेकिन पैर काटने की सलाह वे तभी देते हैं जब चिकित्सीय तौर पर बाकी सारे विकल्प खत्म हो जाएं। जागरूकता के लिहाज से वे बताते हैं कि पिछले छह साल से जारी इस काम की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि लोगों का अपंग पशुओं के प्रति नजरिया बदला है और पशुपालक उन्हें बेसहारा या गोशालाओं में छोड़ने के बजाय घर पर ही रखने को प्रेरित हो रहे हैं। देश के छोटे गांव-कस्बों के पशुपालक उनसे संपर्क करते हैं और परिवार के सदस्य की तरह पाले-पोसे गए पशुओं के अपंग होने पर अच्छी सार-संभाल कर उन्हें हौसला देने का काम कृष्णा लिंब की टीम बखूबी करती है। लोग अक्सर हादसे के शिकार पशुओं को स्थानीय तौर पर संस्थाओं और नगर निकायों की मदद मुहैया नहीं होने की चुनौती भी साझा करते हैं। ऐसे में चिकित्सक के तौर पर उनका यही सुझाव रहता है कि घायल पशु का इलाज कराएं और किसी सुरक्षित जगह रखने में मददगार बनें। पशु केंद्रों में छोड़ने के बजाय पशु को अपनाने पर जोर देने वाले डॉ. माथुर फिलहाल देश भर में अपनी सेवाएं देकर अपने काम में और बेहतरी और जन-जागरूकता के काम में जुटे हुए हैं।
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