नेपाल में अमेरिकी परियोजना मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) की मंजूरी के बाद चीन बौखलाया हुआ है। एमसीसी के तहत नेपाल को अमेरिक करीब 55 करोड़ अमेरिकी डॉलर का आर्थिक सहयोग देगा। चीन के लगातार विरोध और दबाब के बावजूद नेपाल की संसद ने एमसीसी पर प्रस्ताव पारित कर दिया, जिससे इस हिमालयी देश के प्रति चीन की नीति और रणनीति को बड़ा झटका लगा है। इसी छटपटाहट में उसने अपने विदेश मंत्री वांग यी को नेपाल दौरे पर भेजा, ताकि हिमालयी देश में अपनी उपस्थिति दिखा सके। इससे पहले चीनी डिजाइन पर एक हुए वामपंथी दलों के टुकड़ों में बंटने और चीन समर्थित दो तिहाई बहुमत वाली सरकार के गिरने के बाद ही ड्रैगन को आभास हो गया था कि वह नेपाल में अपनी जमीन खो रहा है। दूसरी ओर, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की अति-महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड (बीआरआई) में शामिल होने के पांच साल बाद भी नेपाल में उसकी परियोजना एक कदम भी बढ़ नहीं पाई। इसी बीच, अमेरिका ने एमसीसी को न सिर्फ नेपाल की संसद में पारित करवाया, बल्कि चीन समर्थित वामपंथी दलों के चेहरे को बेनकाब भी कर दिया।
कर्ज के जाल में फंसाने की कोशिश
नेपाल में अपने हर दांव के उलटा पड़ने से चिंतित चीन ने जल्दबाजी में अपने विदेश मंत्री को नेपाल भेजकर उसे बीआरआई के जाल में फंसाने की कोशिश की। एमसीसी को पारित होने से रोकने में नाकाम रहने के बाद से ही चीन ने नेपाल के राजनीतिक दलों और सरकार पर बीआरआई के कार्यान्वयन के लिए दबाव बनना शुरू कर दिया था। इसके लिए उसने नेपाल को 35 पन्नों वाला परियोजना कार्यान्वयन समझौते का मसौदा भेजा और नेपाल ने बीआरआई के तहत जिन 9 परियोजनाओं को चुना था, उन सभी को आगे बढ़ाने के लिए दबाव बनाने लगा। उधर, बीजिंग से विदेश मंत्रालय के अधिकारी फोन कर नेपाली पक्ष पर दबाव बना रहे थे, इधर काठमांडू में चीनी राजदूत होऊ यांकी सभी शीर्ष नेताओं और सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों से मुलाकात कर परियोजना कार्यान्वयन समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए लॉबिइंग कर रही थीं।
… और देउबा का भारत दौरा
चीनी विदेश मंत्री ने प्रधानमंत्री देउबा को चीन आने का न्यौता दिया, लेकिन उन्होंने दिल्ली यह संदेश भिजवाया कि वे भारत दौरे पर आना चाहते हैं। इस तरह, चीनी विदेश मंत्री के दौरे के बीच ही देउबा का भारत दौरा तय हो गया। वे 1-3 अप्रैल तक भारत में रहेंगे। वर्ष प्रतिपदा के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल की जनता को एक बड़ा उपहार देने वाले हैं। इस दिन वे करीब 10,000 करोड़ रुपये की लागत से बिहार के जयनगर से नेपाल के जनकपुरधाम तक बने रेल मार्ग का लोकार्पण करेंगे। देउबा उस ऐतिहासिक पल के साक्षी बनेंगे। इस रेल मार्ग पर रेल सेवा शुरू होने से भगवान श्रीराम की जन्मस्थली अयोध्या से माता सीता की भूमि जनकपुरधाम तक श्रद्धालुओं के लिए सफर आसान हो जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी के तीसरे नेपाल दौरे के समय अयोध्या से जनकपुर बस सेवा शुरू हो चुकी है। प्रधानमंत्री मोदी ने नेपाल और भारत के बीच रेल संपर्क के विस्तार और विकास के लिए बिहार के शहर रक्सौल से काठमांडू तक ब्रॉड गेज लाइन बनाने और उस पर विद्युतीकृत रेल चलाकर दिल्ली को काठमांडू से जोड़ने का वादा किया है। इस परियोजना पर तेजी से काम हो रहा है।
फिर चीन की ओर से विदेश मंत्री वांग यी का दक्षिण एशियाई देशों का दौरा तय किया गया। पाकिस्तान में इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी में कश्मीर मुद्दे पर मुस्लिम देशों का साथ देने का आश्वासन देकर वांग यी अफगानिस्तान होते हुए भारत आए। यहां से तीन दिवसीय दौरे पर वे काठमांडू पहुंचे। लेकिन उनके पहुंचने तक भी नेपाल बीआरआई कार्यान्वयन समझौते पर हस्ताक्षर करने को तैयार नहीं था। नेपाली कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार और देश के प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा ने चीनी पक्ष को यह जानकारी दे दी थी कि बीआरआई के तहत उनका देश किसी भी परियोजना के लिए चीन से कर्ज नहीं लेगा। तर्क यह था कि यदि अमेरिकी परियोजना से चीन को दिक्कत है तो वह भी आर्थिक अनुदान दे सकता है, जिसे स्वीकार करने में नेपाल को कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन नेपाल की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह चीन से महंगी ब्याज दर पर मिलने वाला कर्ज लेकर उसे चुका सके। दोनों देशों के विदेश मंत्रालय के अधिकारियों की बैठक से पूर्व नेपाल ने स्पष्ट कहा कि जब विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक से उसे विकास और बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए 0.50 प्रति से 1 प्रतिशत ब्याज पर कर्ज आसानी से मिल जाता है तो वह चीनी परियोजना के लिए 4 से 6 प्रतिशत महंगे ब्याज पर कर्ज क्यों लेगा? यही नहीं, कर्ज चुकाने के लिए चीन अधिकतम 15 साल की मोहलत देता है, जबकि विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक कम से कम 35-40 साल का समय देते हैं।
भारत की तरह आर्थिक सहयोग दे
चीन किसी भी तरह तिब्बत के केरुंग से काठमांडू तक बीआरआई के तहत रेल परियोजना में नेपाल को शामिल करना चाहता था। पहले तो उसने सोचा कि केरुंग-काठमांडू रेल परिचालन की संभाव्यता अध्ययन पर जो खर्च आएगा, उसका कुछ प्रतिशत नेपाल दे या इसके लिए चीन से कर्ज ले। लेकिन नेपाल ने इसके लिए भी कर्ज लेने से मना कर दिया। उसका कहना है कि नेपाल में पूरी तरह भारत के आर्थिक सहयोग से बना रेल मार्ग परिचालन के लिए तैयार है। साथ ही, बिहार के रक्सौल से काठमांडू तक रेल सेवा शुरू करने की संभाव्यता के अध्ययन से लेकर इसका निर्माण तक भारत के सहयोग से किया जाएगा। नेपाल की आर्थिक हालत को देखते हुए चाहे तो चीन भी पूर्ण आर्थिक सहयोग देकर यह काम कराए। अन्यथा नेपाल को केरुंग-काठमांडू रेल परिचालन की कोई जरूरत नहीं है। लिहाजा, चीन अपने खर्चे पर संभाव्यता के अध्ययन और डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट) बनाने के समझौते पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर हो गया। वैसे चीन ने तीसरी बार इस रेल परियोजना की संभाव्यता के अध्ययन को लेकर समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इससे पूर्व, जब नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली 2017 में चीन की यात्रा पर गए थे, तो नेपाल ने बीआरआई में शामिल होने के लिए औपचारिक सहमति पर हस्ताक्षर किए थे। तभी केरुंग-काठमांडू रेल परियोजना की संभावना पर भी समझौता हुआ था।
बाद में 2019 में जब चीनी राष्ट्रपति नेपाल दौरे पर आए तो नेपाल ने न सिर्फ बीआरआई का हिस्सा बनने के लिए फिर से समझौते पर हस्ताक्षर किए, बल्कि अपनी ओर से चीन को 35 परियोजनाओं की एक सूची भी सौंपी थी। इसमें शीर्ष पर केरुंग-काठमांडू रेल मार्ग निर्माण भी शामिल था। लेकिन चीन ने इस सूची को काट-छांट कर 9 परियोजनाओं तक सीमित कर दिया था। इसमें भी उसने केरुंग-काठमांडू रेल परियोजना को पहले स्थान पर रखा था। लेकिन राजनीति हालात और समीकरण बदलने के बाद नेपाल की बदली हुई सरकार ने चीन से दूरी बनाने और उसके कर्ज के जाल में नहीं फंसने का मन बना लिया है। नेपाल के सामने श्रीलंका, पाकिस्तान सहित कई अफ्रीकी देशों का उदाहरण है, जो चीनी कर्ज के जाल में फंसकर बर्बादी के कगार पर पहुंच चुके हैं। नेपाल इस बात को लेकर भी सतर्क है कि कर्ज के जाल में फंसने के बाद समय पर पैसा नहीं लौटाने पर किस तरह चीन परियोजनाओं पर कब्जा कर लेता है।
अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा बना गले की फांस
चीनी विदेश मंत्री के दौरे से पहले नेपाल के गृह मंत्री बालकृष्ण खांड पोखरा में थे, जहां चीन से कर्ज लेकर पिछली सरकार ने अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे का निर्माण कराया है। बालकृष्ण ने कहा कि पिछली सरकार ने महंगी ब्याज दर पर चीन से 22 अरब रुपये का भारी-भरकम कर्ज लेकर हवाईअड्डा तो बनवा लिया, लेकिन इसके संचालन की कोई कार्ययोजना नहीं बनी है और न ही उड़ान के तकनीकी पहलुओं पर भारत से कोई सहमति हुई है। चीन को ब्याज चुकाने और कर्ज वापसी का समय भी आ गया है। गृह मंत्री इस बात के लिए चिंतित दिखे कि मात्र 14 साल में 22 अरब का कर्ज और उस लगने वाला ब्याज कैसे चुकाया जाएगा। यदि कर्ज नहीं चुकाया गया तो समझौते के मुताबिक, चीन इस हवाईअड्डे पर दावा ठोकने में देर नहीं करेगा। चीनी विदेश मंत्री के दौरे पर निर्माण कार्य पूरा किए बिना, तकनीकी पहलुओं की जांच किए बिना जिस तरह तामझाम के साथ यह हवाईअड्डा नेपाल को सौंपा गया, उससे लगा कि चीन ने इसे बनाकर नेपाल को उपहार में दिया है। इसकी नेपाल में काफी आलोचना भी हुई। नेपाली मीडिया का कहना था कि माना चीन ने ऋण दिया, लेकिन उसे चुकाना तो नेपाली जनता को ही पड़ेगा, फिर किस हैसियत से चीनी विदेश मंत्री ने चाभी सौंपी है? बता दें कि नेपाल में पोखरा के अलावा, लुंबिनी भैरहवा में गौतम बुद्ध अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डे का निर्माण भी चीनी कर्ज से हुआ है।
दौरे के दौरान चीनी विदेश मंत्री ने नेपाल के साथ 9 समझौतों पर हस्ताक्षर किए, जिनमें आर्थिक और प्राविधिक सहयोग शामिल है। लेकिन नेपाल ने एक ऐसी शर्त रखी, जिसे चीन को न चाहते हुए भी मानने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस बार नेपाल ने द्विपक्षीय वार्ता के दौरान चीन के सामने सीमा विवाद का मुद्दा उठाया और इसकी जांच व समाधान के लिए चीन को संयुक्त जांच समिति बनाने पर सहमति देनी पड़ी। बता दें कि पिछली सरकार के समय चीन द्वारा नेपाल के कुछ भूभाग पर कब्जा करने और सीमा क्षेत्रों में अनाधिकृत तरीके से सैन्य ठिकाने बनाने के अलावा कई जिलों से सीमा अतिक्रमण की बात सार्वजनिक हुई थी। उस समय नेपाल में चीन समर्थित वामपंथी दलों की दो तिहाई बहुमत की सरकार थी, जो नेपाली भूभाग पर चीनी कब्जे और अतिक्रमण से इनकार करती रही। उसका कहना था कि नेपाल-चीन संबंध बिगाड़ने के लिए इसे तूल दिया गया। लेकिन प्रमुख विपक्षी दल नेपाली कांग्रेस ने इसकी जांच के लिए सांसदों और नेताओं की एक समिति बनाई थी, जिसने नेपाली भू-भाग पर चीनी कब्जे और सीमा पर अतिक्रमण को सच बताया था। बाद में जब नेपाली कांग्रेस सत्ता में आई तो उसने एक उच्च स्तरीय समिति गठित की, जिसने अपनी रिपोर्ट में चीनी षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया।
नेपाल के रुख से हताश चीन
नेपाल के रुख से चीन हताश हो गया है। वह अच्छी तरह समझ गया है कि नेपाल की मौजूदा सरकार के रहते उसकी कोई चाल सफल नहीं होगी। इसलिए जब चीनी विदेश मंत्री को कोई खास सफलता नहीं मिली, तो सरकारी मीडिया में खबरों और लेखों में चीन का गुस्सा स्पष्ट दिखा। चाहे विदेश मंत्री के साथ द्विपक्षीय वार्ता हो या नेपाल के प्रधानमंत्री शेरबहादुर देउबा के साथ उनकी अकेले मुलाकात, चीन की सरकारी मीडिया में एक ही बात कही गई कि चीन नेपाल में किसी भी अन्य देश के हस्तक्षेप को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता। देश चाहे छोटा हो या बड़ा, चीन सभी का समान रूप से सम्मान करता है। यही नहीं, नेपाल में अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के बढ़ते प्रभाव, तिब्बती शिविरों में उनके भ्रमण पर भी निशाना साधते हुए चीनी मीडिया ने कहा कि इस विषय पर चीन बहुत ही गंभीर है और नेपाल से यह अपेक्षा करता है कि वह अपनी भूमि से चीन के खिलाफ कोई साजिश नहीं करने देगा।
चीनी विदेश मंत्री के दौरे पर निर्माण कार्य पूरा किए बिना, तकनीकी पहलुओं की जांच किए बिना जिस तरह तामझाम के साथ यह हवाईअड्डा नेपाल को सौंपा गया, उससे लगा कि चीन ने इसे बनाकर नेपाल को उपहार में दिया है। इसकी नेपाल में काफी आलोचना भी हुई। नेपाली मीडिया का कहना था कि माना चीन ने ऋण दिया, लेकिन उसे चुकाना तो नेपाली जनता को ही पड़ेगा, फिर किस हैसियत से चीनी विदेश मंत्री ने चाभी सौंपी है?
हालांकि चीनी मीडिया की खबरों पर नेपाल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। लेकिन इससे चीन के मिजाज का अंदाजा लगाया जा सकता है। यह पहला अवसर है, जब चीन के उच्चस्तरीय दल के दौरे के दौरान दोनों पक्षों में से किसी के बयान में एक चीन नीति की बात को शामिल नहीं किया गया। इससे पहले जब भी चीन के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री या अधिकारी नेपाल आते थे, तो वह बयान में एक चीन नीति के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करते थे। लेकिन नेपाल ने इस बार इस परम्परा को भी तोड़ा है। इसके कई मतलब निकाले जा सकते हैं। किसी समय नेपाल तिब्बती शरणार्थियों का गढ़ हुआ करता था। तिब्बती शरणार्थी यहां खुद को सुरक्षित महसूस करते थे और बेहिचक देश के किसी भी हिस्से में घूम सकते थे। महत्वपूर्ण बात यह कि कोई तिब्बती अगर नेपाल की सीमा में प्रवेश करता था तो उसे सुरक्षित शरणार्थी शिविर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी सुरक्षाकर्मियों की होती थी। यही नहीं, उन्हें भारत में धर्मशाला तक आने-जाने की छूट होती थी। लेकिन बीते 5 साल में हालात बहुत बिगड़ गए। वामपंथियों की सरकार बनने के बाद नेपाल सीमा में तिब्बतियों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। सुरक्षाकर्मी उन्हें पकड़ कर चीन के हवाले कर देते थे। इसके अलावा, काठमांडू में सभी तिब्बती शिविरों पर कड़े पहरे लगा दिए गए। किसी को भी अपने शिविर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती थी। आलम यह था कि वे अपने धर्म गुरु दलाई लामा का जन्मदिन भी नहीं मना पाते थे। लेकिन अब उन पर लगे सारे प्रतिबंध हटा लिए गए हैं। चीन को बस इसी से तकलीफ हो रही है।
टिप्पणियाँ