संजय द्विवेदी की फेसबुक वॉल से
कोई दस साल पहले की बात है। मैं बनारस के नेपाली मंदिर में रुका हुआ था। वहां दो कमरे हैं, जिसे वे आगंतुकों को रुकने के लिए देते हैं। वहां एक छोटी-सी संस्कृत पाठशाला भी चलती है, जिसमें उस समय 10-12 बच्चे थे। जो संस्कृत के आचार्य थे, वे भी नेपाल के ही थे। बहुत सामान्य-सी दिनचर्या। बच्चे अपना भोजन स्वयं पकाते थे। बर्तन भी मांजते। बिस्तर इत्यादि भी स्वयं लगाते। कह सकते हैं कि संस्कृत पढ़ने वाले बच्चे संन्यासी का जीवन जी रहे थे या फिर यह भी कह सकते हैं कि उनके पास संसाधनों का घोर अभाव है। क्या कहना है, यह आप अपने से समझ लीजिए। वहां आचार्य जी ने एक दिन बातचीत में कहा कि संस्कृत को पूजा-पाठ और धर्म-कर्म की भाषा बनाकर हमने उसका बहुत नुकसान कर दिया है। लौकिक और पारलौकिक जीवन से जुड़ा जितना ज्ञान संस्कृत में है, उतना संसार की संभवत: किसी दूसरी भाषा में नहीं है। जब उन्होंने यह बात कही तो मुझे थोड़ा अजीब लगा। यह कैसे हो सकता है? हम तो यह मानते हैं कि ज्ञान की भाषा अंग्रेजी है। आज हर व्यक्ति अपने बच्चे को जैसे-तैसे जितना हो सके, अंग्रेजी पढ़ाना चाहता है ताकि वह समकालीन विश्व में अपने लिए अच्छे अवसर पैदा कर सके। लेकिन आचार्य कह रहे हैं कि जितना ज्ञान संस्कृत भाषा में है, उतना किसी और भाषा में नहीं। उनकी बात का एक छोटा-सा प्रमाण हाल में तब मिला, जब मेरे हाथ भृगु शिल्प संहिता ग्रंथ लगा। यह ग्रंथ देखकर मैं चौंक गया।
अरे! इसमें तो शिल्प और निर्माण का भंडार भरा पड़ा है। धातुओं (मेटल) के बारे में जैसा सूक्ष्म जीवनोपयोगी वर्णन इस ग्रंथ में है, वैसा वर्णन शायद संसार के किसी ग्रंथ में नहीं है। धातुओं से लेकर र्इंट बनाने और पकाने की जो विधि इस ग्रंथ में है, अगर उसके अनुसार मकान निर्माण किया जाए तो उसकी उम्र निश्चित रूप से हमारे सीमेन्ट-कंक्रीट वाले मकान से ज्यादा होगी। यहां तो मैं सिर्फ एक ग्रंथ का उल्लेख कर रहा हूं। चिकित्सा, रंगशास्त्र, नाट्यशास्त्र, वास्तुशास्त्र, नृत्य शास्त्र और भी जीवन की विविध विधाओं पर संस्कृत में न जाने कितने समृद्ध ग्रंथ मौजूद हैं। कुछ विलुप्त हो चुके हैं या फिर विलुप्त होने के कगार पर हैं।
यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि हमारे यहां यह धारणा पैदा की गई कि संस्कृत पूजा-पाठ और पोंगापंथ की भाषा है।
स्वाभाविक है, यह कहने की शुरुआत अंग्रेजों ने की, जिसे स्वतंत्रता के बाद काले अंग्रेजों ने जस का तस आगे बढ़ा दिया। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि हम अपनी ही ज्ञान परंपरा से कट गए। आज हम सब अंग्रेजी में मोक्ष खोज रहे हैं और जिस भाषा में लौकिक जीवन का सुख और मोक्ष, दोनों हैं उसे अपने ही हाथों से कूड़ेदान में फेंक दिया है। ल्ल
टिप्पणियाँ