जेनोसाइड! इस शब्द को पहली बार महाश्वेता देवी से सुना था। एक मित्र के साथ बतौर इंटर्न महाश्वेता जी को कवर करने भोपाल के भारत भवन जाना हुआ था। वह 21वीं सदी के शुरुआती वर्ष थे। अपने व्याख्यान की शुरुआत ही महाश्वेता ने यह कह कर की थी कि गुजरात में (गोधरा के बाद) जो कुछ भी हुआ उसे राइट (RIOT) कहा जाना झूठ है, वह GENOCIDE था। अपनी उस पूरी तक़रीर में महाश्वेता देवी ने उस साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 बोगी का जिक्र बिल्कुल नहीं किया, जिसमें 59 कारसेवकों को जिन्दा भून दिया गया था। ज़ाहिर है कि आगे कभी कश्यप ऋषि की धरती कश्मीर पर आरा मशीन में चिनार और देवदार के बदले जीवित बलात्कृत देह को बराबर-बराबर हिस्से में चीर देने का जिक्र तो महाश्वेता क्या करतीं कभी। उसे कभी वे जेनोसाइड जैसा कुछ तो नहीं ही कहतीं, जैसा कभी नक्सल हमलों में जान गवाने वाले वनवासियों के पक्ष में कभी नहीं कहा उन्होंने।
ऐसी ही सभी सेलेक्टिव चुप्पियों और शैतानी बयानों की मुखालफत करती है विवेक रंजन अग्निहोत्री की फिल्म-द कश्मीर फाइल्स। यह फिल्म कश्मीर के जातीय नरसंहार को पहली बार उसके वीभत्स रूप में दिखाती है, जिसमें लाखों हिन्दू परिवार अपनी ज़मीन से कटकर, अपने ही देश में नारकीय यंत्रणा झेलने को विवश कर दिए गए थे, ऐसा नरसंहार जिसने क्रूरता की सभी सीमाओं को लांघ दिया था। अपनी तरह की पहली और अभी तक अकेली इस फिल्म के बारे में इतना लिखा जा चुका है कि कुछ भी नया कह पाना एक बड़ी चुनौती है।
देखा जाए तो इस फिल्म से आहत हो रहे हीन भावनाओं वाले लोग वास्तव में बड़े निरीह लग रहे हैं। उनके तर्क तो ऐसे-ऐसे हैं, मानो हर तरफ से पराजित कोई गिरोह अपने ही पराजय के लिए कुछ बहाने तलाश रहा हो। लेकिन हर बहाना उसे और अधिक लज्जित-पराजित होने का सबब बना रहा हो। अगर आलोचक यह कहते हैं कि इस फिल्म से मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलेगी, तो उनसे यह पूछना होगा कि क्या नाजियों-फासीवादियों की जघन्यताओं का वर्णन करने से, हिटलर-मुसोलिनी की करतूतों को फिल्माने से कभी जर्मनी या इटली के खिलाफ कोई नफरत फैली ? हालांकि आलोचकों के विमर्श में पराजय का सबब मात्र नहीं है यह फिल्म, अपितु यह फिल्म अनेकानेक मिथ्या अवधारणाओं को खत्म करने में सफल हुई है। इस फिल्म ने उस महाश्वेताई ईको सिस्टम को ध्वस्त करने में सार्थकता पायी है, जिसके द्वारा नक्सलियों, आतंकियों, लुटेरों, आक्रांताओं, कन्वर्जन के कारोबारियों, तस्करों, डकैतों … को वैचारिक प्रश्रय देकर भारत को अराजकता का केंद्र बना, कांग्रेस के लिए राजनीतिक ज़मीन तैयार की जाती रही है।
यह फिल्म बौद्धिक एकालापों को तोड़ने, इस रस्म को ख़त्म करने में भी सफल रही है कि सर उठा के रचना जगत में वही चलेगा जो खान-इब्राहिमों की शागिर्दी करेगा। इस फिल्म ने पहली बार बताया है कि खान चचा का भतीजा भी कातिल हो सकता है और पंडित भी पीड़ित होते हैं। इस फिल्म ने सृजन जगत में जड़ें जमा चुकी जड़ताओं के विरुद्ध शंखनाद किया है, काई की तरह राजनीति के घाट को फिसलन भरी बना देने वाले शैवालों के विरुद्ध एसिड, मिथ्या गाल बजाते रहने वालों की गाल पर कांग्रेस का निशान है यह फिल्म।
द कश्मीर फाइल्स कश्मीरी हिन्दुओं की अनदिखी और अनदेखी पीड़ाओं का साक्षात्कार करने के बहाने हमें बताती है कि हमें अपनी सुरक्षा के लिए ‘फैज़’ पर नहीं बल्कि ‘फौज’ पर विश्वास करना होगा। दुनिया भर की राष्ट्रीयताएं यही करती हैं। यह फिल्म हमें बताती है कि लाजिम तौर पर आप जिस ‘फैज़’ के दिखाए को देखना चाहते हैं, हमेशा की तरह बुतों को तोड़कर ‘बस नाम रहेगा अल्लाह का’ है कर देना उनका भी मकसद था। कि आप जिन्हें आमीर खुसरो समझ झूम रहे हैं, उन खुसरो का भी अकेला लक्ष्य आपसे नैना लड़ाय के आपके ‘छाप तिलक को छीन लेना’ रहा है। फैज़ या ऐसे किसी का इंकलाब वास्तव में ‘अनलहक’ के लिए है, निजाम-ए-मुस्तफा के लिए है, दारुल इस्लाम के लिए है, सभी बुर्जुआ काफिरों का सफाया कर वास्तव में ‘गजवा ए हिन्द’ के लिए है। कश्मीर से लेकर कैराना तक महज़ बहाने हैं, मंसूबे वही हैं जिसका जिक्र ऊपर किया गया है।
बहरहाल, बात जब भारत के कम्युनिस्ट ड्रिवेन इको सिस्टम की आती है, तो सहज सवाल मन में उठता है कि आखिर भारत के सन्दर्भ में इस्लामी अतिवादी और आतंकी कम्युनिस्ट, ये दोनों एक कैसे हो जाते हैं? खासकर तब जबकि एक के लिए मज़हब अफीम है और दूसरे के लिए रेगिस्तानी कबीले में जन्म लेना वाला मज़हब ही सब कुछ? जवाब यही है कि क्योंकि निराधार वैचारिकता के कारण अस्तित्व का संकट हमेशा दोनों पर है, तो ज़ाहिर है दुश्मन का दुश्मन दोस्त समझ कर वे दोनों अपना अस्तित्व बचाने गलबहियां किये होते हैं। समानता दोनों में यह है कि मुस्लिम आतंकी एक ऐसी दुनिया का सपना देखते हैं जहां केवल मोमिन हों, जहां कथित ‘दारुल हरब’ का सफाया कर दिए जायें, वहीं कम्युनिस्टों के लिए यह दुनिया केवल मजदूरों को एक करने के लिए है, शेष सभी को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए। एक बुर्जुआ विहीन दुनिया बनाना चाहता है तो दूसरे का वादा दुनिया को काफिरों से मुक्त करना है। एक अपने आसमानी किताब के लिए खून की हर दरिया पार कर जाने को तत्पर है, तो दूसरे के लिए हर वह रक्तपात जायज़ है, जिससे उसका ‘मेनिफेस्टो’ मज़बूत होता है। एक अपने मार्क्स-माओ के अलावा शेष किसी के प्रति कोई दायित्व महसूस नहीं करता, तो दूसरे के लिए बस एकमात्र मुहम्मद ही ‘साहब’ हैं।
ये दोनों तत्व मिलकर एक ‘सिस्टम’ बनाते हैं और उसी पारिस्थितिकी तंत्र अर्थात ईको सिस्टम के सहारे कांग्रेस जैसी परजीवी पार्टी अमरबेल की तरह अपने अस्तित्व को बचाते हुए उसी जड़ को सोखती रहती है। कश्मीर फाइल्स इन्हीं अमरबेलों का पर्दाफ़ाश करती हुई, इस ईको सिस्टम को बे-हिजाब करती हुई आगे बढ़ती है। यह आख्यान उस अनदेखे दर्द को शब्द देता है, जिसे कश्मीर से लेकर कर्णावती और कांकेर तक हमने महसूस किया है। कभी पाकिस्तान समर्थित आतंक, कभी आस्तीन के गोधराई सांपों, तो कभी बस्तर में सक्रिय कम्युनिस्ट आतंकियों के रूप में!
द कश्मीर फाइल्स पर उठाये जा रहे सभी सवालों के बीच ही इस फिल्म ने सौ करोड़ के क्लब में खुद को शामिल किया है, या यूं कहें कि इसने ऐसा एक ऑरगेनिक क्लब बनाया है, जहां गैर खान-गैर अब्राहमिक फ़िल्में भी अब सौ करोड़ी हो जाने का साहस कर सकती हैं। इस क्लब की सदस्यता के लिए अब एक स्वस्थ होड़ मचेगी, ऐसी संभावनाओं के द्वार तो इस फिल्म के बाद निस्संदेह खुले हैं।
यूं तो इस फिल्म पर बनाए सभी बचकाने सवालों ने जवाब पा लिया है। वैसे भी सफलता से बड़ा जवाब कुछ नहीं होता। फिर भी केवल एक सवाल का जवाब यहां देना अभी भी प्रासंगिक होगा। सवाल फिल्म में वर्णित समय में केंद्र में भाजपा समर्थित सरकार होने, और इस मामले में कांग्रेस को निर्दोष कहने को लेकर है। ऐसे तत्वों को कहना होगा कि कश्मीर की समस्या केवल उस एक दरम्यानी रात की नहीं है, जिसे फिल्माया गया है। ऐसे नासूर कभी एक दिन में बनते भी नहीं हैं। फिल्म के विरोधियों का जवाब देने के लिए तो वास्तव में एक ‘द कांग्रेस फाइल्स’ बनाने की ज़रूरत होगी। सीरीज में बताना होगा कि ऐसी सभी घटनाओं का अंतिम जिम्मेदार कांग्रेस है।
अगर फिल्म पर उठाये गए सवाल का जवाब देने फिर से कोई ‘विवेक’ फिल्म बनाना चाहें तो उन्हें 1857 वाले उस दौर में जाकर बात शुरू करनी होगी, जब तब के इटावा का ‘एलन ओक्टावियो ह्यूम’ नाम का फिरंगी कलक्टर साड़ी पहन कर अपनी कोठी से भाग निकलता है। अगर उस दिन ओक्टावियो ह्यूम निकल भागने में सफल नहीं होता तो कांग्रेस का जन्म ही नहीं होता। फिर कश्मीर समेत समूचे अखंड भारत की कहानी ही कुछ और होती। उस पहले स्वतंत्रता संग्राम (सिपाही विद्रोह) के देशभक्त क्रांतिकारियों के आक्रमण से मुश्किल से जान बचाकर भागे ओक्टावियो ह्यूम को झट यह महसूस होता है कि अंग्रेजों के खिलाफ उबल रहे जनाक्रोश रूपी तापमान से बर्तानिया सल्तनत रूपी प्रेशर कूकर की रक्षा के लिए एक ‘सेफ्टी वाल्व’ चाहिए होगा, उसी सेफ्टी वाल्व को हम आज ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के रूप में जानते हैं। फिल्म में भले एक सूत्र वाक्य में कांग्रेस को प्रेशर कूकर का सेफ्टी वाल्व बताया गया हो लेकिन सच यह है अगली ‘फ़ाइल्स’ बनाने के लिए उसी सूत्र वाक्य की व्याख्या करनी होगी जब अंग्रेजों द्वारा अंग्रेजों के लिए निर्मित कांग्रेस का जन्म हुआ था। अंततः अब जब बात निकली है तो इसी तरह दूर तलक जायेगी। और जब बातें जायेंगी दूर तलक तो लाजिम है हम भी देखेंगे, देखते रहेंगे ही.
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