रामवीर श्रेष्ठ
झांसी जिले का साकिन गांव, यहां अवधेश प्रताप लल्ला यानी उत्तर प्रदेश के कृषि पंडित अपने गांव की दूध न देने वाली बेसहारा गायों को लाते हैं, उनके लिए खेत में एक प्लेटफॉर्म बनाते हैं, जिस पर दोनों ओर गायों को बांधते हैं। बीच में एक नाली बनी है, जिसके जरिये गोबर और गोमूत्र बिना किसी मानव श्रम के सीधे साथ में बने एक गोबर गैस प्लांट में गिरता है। दूसरी ओर से उतनी ही मात्रा में तरल होकर गोबर की खाद निकल रही होती है। इसमें वे एक इंच पानी और मिलाते हैं, ताकि वह और पतला हो जाए। फिर इस तरल खाद को ट्यूबवेल के पानी से जोड़ देते हैं और पूरे खेत में स्प्रिंकल से सिंचाई करते हैं। अब यूरिया, डाई और कीटनाशक की छुट्टी। लल्ला कहते हैं कि कौन कहता है कि जैविक खेती में पहले तीन साल कम पैदावार होती है। वे कहते हैं कि पहले ही साल डेढ़ गुना अधिक पैदावार होती है, जो दुगुने तक चली जाती है। उनके खेतों में अमरूद, मौसमी और भगवा अनार की भरी-पूरी फसल को कोई भी देख सकता है।
भरतपुर (राजस्थान) के गोपाल ठाकुर। गोपाल ने बेटी की शादी में अपने समधी को दहेज में उनके खेत में 20 घन मीटर का गोबर गैस प्लांट बनाकर दिया। गोपाल कहते हैं कि यह गोबर गैस प्लांट ही उनकी खाद फैक्ट्री है और यही उनका बिजलीघर। दरअसल, इस प्लांट से वे रोजाना 5 घंटे अपना ट्यूबवेल, चारा काटने की मशीन और आटा चक्की चलाते हैं। यूं कहिए कि पूरे घर के लिए बिजली उत्पादन करते हैं। ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। लेकिन बाजार की उचित व्यवस्था न होने के चलते कई लोग सिर्फ अपने परिवार के लिए ही प्राकृतिक खेती कर रहे हैं।
यह तो थी गाय के गोबर से खेती करने की बात। अब घर बनाने की। आज देश में सैकड़ों जगहों पर लोग गोबर, मिट्टी और चूने को एक अनुपात में लेकर उसे 24 घंटे की अभिक्रिया के बाद ईंटें बनाने के काम में लगे हैं। एक ईंट भट्ठा लगाने से हजारों साल पुरानी मिट्टी की उपजाऊ परत तो समाप्त होती ही है, उसमें भट्ठे में जलने वाले कोयले से कॉर्बन उत्सर्जन भी तेजी से बढ़ता है। वहीं गौक्रीट यानी गोबर, मिट्टी और चूने से बनी ईंट से कॉर्बन उत्सर्जन को शून्य से नीचे लाया जा सकता है। फिलहाल, हम आपको इतना बता सकते हैं कि एक गाय अपने जीवन काल में आपके लिए तीन कमरों वाले 25 घर बनाने की क्षमता रखती है। ऐसा घर, जिसकी दीवारें सांस लेती हैं और प्रदूषण को सोखती हैं। गौक्रीट से बनी दीवारों में सीलन भी नहीं लगती। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक र्इंट अपने जीवनकाल में 700 ग्राम कार्बन को हमेशा सोखकर रखती है और समाप्त होने के बाद मिट्टी में मिलकर खाद बन जाती है।
दरअसल, एक तरफ नवोन्मेषों के सफल प्रयोग हैं, जिन्हें यदि सफल नवाचार का नीतिगत जामा पहनाया जाए तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी। यदि गौक्रीट की मजबूती के मानक को तय कर यह तय कर दिया जाए कि दो मंजिला मकानों में गौक्रीट का ही इस्तेमाल किया जाएगा, तो ईंट भट्ठे बंद हो जाएंगे। इस तरह, हम कार्बन उत्सर्जन के एक बड़े कारण से धरती को बचा लेंगे।
गोबर गैस प्लांट का आविष्कार भी वैज्ञानिकों ने ही किया है। यदि यह सिद्ध है कि गोबर गैस प्लांट से निकलने वाली स्लरी में सभी 24 तत्व संतुलित मात्रा में मौजूद हैं तो फिर कुछ भी क्यों? सिर्फ बाजार के लिए। यह सही नहीं होगा। हम जानते हैं कि कृषि की पूरी व्यवस्था, उत्पादन, भंडारण, प्रसंस्करण और विपणन यानी बाजार पर टिकी हुई है। किसान, श्रमिक, कारीगर और उपभोक्ता, सब इससे सहमत होंगे। इसे लेकर मेरे पास चार प्रस्ताव हैं। जिसमें पहला प्रस्ताव उत्पादन को लेकर है।
पहला प्रस्ताव-उत्पादन
गांव की समस्त कृषि भूमि को पशुओं के साथ जोड़ा जाए। हर गांव में 100 एकड़ जमीन पर 20 घन मीटर का एक गोबर गैस प्लांट स्थापित किया जाए, जिसके साथ 30 निराश्रित या आश्रित पशुओं को जोड़ दिया जाए। इसका लाभ यह होगा कि इसी प्लांट से 100 एकड़ जमीन के लिए खाद और पानी का प्रंबंध किया जा सकेगा। यह किसानों की अपनी खाद फैक्ट्री भी होगी और अपना बिजलीघर भी। इससे निकलने वाली गैस से किसान रोजाना पांच घंटे ट्यूबवेल चला सकेंगे, जिसे स्प्रिंकल्स के माध्यम से तरल खाद और पानी को मिलाकर खेतों में सिंचाई के साथ दिया जा सकेगा।
पहली तस्वीर: एक गांव में 1,000 किसान परिवारों को सरकार किसान सम्मान निधि देती है, जिससे हर गांव में सालाना औसतन 60 लाख रुपये जाते हैं। इतने पैसों से एक साल में ही 20 घन मीटर के गोबर गैस प्लांट बन सकते हैं। साथ ही, 30 पशुओं को हर प्लांट के साथ जोड़ा जा सकेगा।
दूसरी तस्वीर: खाद और पानी की शून्य बजट में आपूर्ति के दो लाभ होंगे। पहला, जिस दिन यह ढांचा खड़ा होगा, उसी दिन से गांव, जैविक गांव में बदल जाएंगे। दूसरा, रासायनिक खादों पर दी जानी वाली गाढ़ी कमाई को बचाया जा सकेगा। यह कार्य पूरे देश में एक साथ किया जाएगा। इस तरह, देश के हर गांव में कम से कम 300 निराश्रित गौवंश की जरूरत होगी। कमी होने पर उन्हें गौशालाओं से लिया जा सकेगा। इस तरह, गौशालाओं का वैज्ञानिक तरीके से विकेंद्रीकरण हो जाएगा। मौजूदा गौशालाओं की भूमि को भी कृषि उत्पादन के लिए उपयोग में लाया जा सकेगा।
दूसरा प्रस्ताव-भंडारण
हर गांव को एक ‘फार्मर प्रोड्यूसर’ कंपनी माना जाए, जिसमें हर किसान उस कंपनी का शेयर धारक हो। खाद्यान्न उत्पादन के अनुसार, हर गांव का अपना गोदाम हो, जिसमें हर किसान अपने अतिरिक्त उत्पादन को रख सके। सब्जियों और फलों के रख-रखाव के लिए हर गांव का अपना फ्रोजन सेंटर हो, ताकि नष्ट होने वाले उत्पादों को सुरक्षित रखा जा सके।
तीसरा प्रस्ताव-प्रसंस्करण
जरूरत के अनुसार हर गांव में प्रसंस्करण इकाई हो, जिसमें गांव में पैदा होने वाले अतिरिक्त उत्पादों का प्रसंस्करण किया जा सके। हर ब्लॉक स्तर पर कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) का एक नोडल कार्यालय हो, जो गांव के अतिरिक्त उत्पादों को मांग के अनुसार निर्यात कराने में जरूरी मानकों को पूरा कराए, ताकि निर्यात आबाध गति से होता रहे।
लाभ: गांवों के भंडारण और प्रसंस्करण केंद्र बन जाने से गांव कृषि उद्योगों के केंद्र बनना शुरू हो जाएंगे। परंतु ध्यान रहे, हर गांव सिर्फ अपनी ही अतिरिक्त उपज का प्रसंस्करण करेगा। इसलिए जरूरी होगा कि बड़े दैत्याकार कारखानों के बजाय, ऐसी छोटी मशीनों का उपयोग किया जाए जो एक गांव की उपज को ही प्रसंस्कृत कर सकें।
चौथा प्रस्ताव -विपणन
उत्पादन, भंडारण, प्रसंस्करण और विपणन को संचालित करने के लिए हर गांव में सोसायटी गठित हो। इनमें इनमें हर 30 परिवार अपना एक-एक प्रतिनिधि दें, जो अपना एक प्रतिनिधि चुन सके। इसी तर्ज पर शहरों में भी 3 बूथों पर एक सोसायटी का गठन हो। एक गांव की सोसायटी उत्पादक इकाई हो, जो निकटतम शहर की उपभोक्ता सोसायटी से जुड़ी होगी। यही दोनों सोसायटी पीडीएस धारकों को राशन देंगी। साथ ही, उपभोक्ता सोसायटी के प्रतिनिधि के साथ बैठकर, उन्हें साल भर की जरूरत बताएंगे। साथ ही, दोनों सोसायटी बैठकर दूध समेत प्रत्येक कृषि उत्पाद का एमएसपी तय कर लेंगी। कृषि को संरक्षित व्यापार के तौर पर विकसित किया जाएगा, जिसके बाजार पर उत्पादन से लेकर विपणन तक का काम किसान करेंगे। गांव के पीडीएस धारकों का साल भर का राशन गांव के गल्ले से ही दे दिया जाएगा, सरकार जिसका भुगतान गांव की सोसायटी को कर देगी। इस सबके बीच सरकार एक नियामक की भूमिका निभाएगी।
यह नियामक हर ग्राम पंचायत को आबादी के हिसाब से शहरों में उपभोक्ताओं की सोसायटी आवंटित करेगी। यही सोसायटी शहर में अपनी उपभोक्ता सोसायटी के परिवारों की रसोई से जुड़ी तमाम जरूरतों की पूर्ति करेगी। केवल कृषि उत्पाद ही नहीं, बल्कि गांव में रहने वाले कारीगरों जैसे- जुलाहा, कुम्भकार, शिल्पकार आदि द्वारा तैयार उत्पाद भी हर सोसायटी तक पहुंचेंगे। यही नहीं, महिलाओं और युवाओं को उत्पादन से लेकर प्रसंस्करण तक में रोजगार मिलेगा। इसका असर यह होगा कि किसान भी खुश होकर कृषि उत्पादों का उत्पादन उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार करेंगे। इससे कृषि उपज में संतुलन कायम होगा। यानी हर उत्पादक गांव, अपने उपभोक्ताओं के लिए सब चीजों का उत्पादन कर रहा होगा।
उत्पाद विशेष
ड्राई फ्रूट या कुछ मसालों समेत जिन चीजों का उत्पादन किसी क्षेत्र विशेष में ही होता है, वहां की ग्राम सोसायटी ही मांग के हिसाब से इनकी खरीद, ऐसी चीजों का उत्पादन करने वाली सोसायटी से करेगी। यानी पहले मांग के अनुसार चीजें सीधे गांव की सोसायटी में आएंगी, फिर वहां से शहर की उपभोक्ता सोसायटी तक आपूर्ति होगी।
इसमें इकलौता सवाल यह खड़ा हो सकता है कि खाद्य सामानों की बिक्री या उनके प्रसंस्करण में लगे लोगों के रोजगार का क्या होगा? जवाब सीधा सा है। वे सब 5,000 की आबादी पर बनी इन सोसायटियों के आउटलेट को संचालित करेंगे, जिससे होने वाले तय 5 प्रतिशत लाभ में उनका बराबर का हिस्सा होगा। यानी किसानों को दी जाने वाली एमएसपी के बाद जब उत्पाद सोसायटी तक पहुंचेगा तब उस पर अधिकतम 10 प्रतिशत लाभ लिया जाएगा। जो उत्पादक और उपभोक्ता सोसायटियों में 5-5 प्रतिशत बांट दिया जाएगा। इस तरह से शुरू होगा कृषि क्रांति का नया अध्याय। इस पूरे अध्याय में सरकारों पर एक पैसे का बोझ नहीं आएगा। वह तो बस एक संरक्षक की तरह से काम करेगी। सहकार की संस्कृति और गौमाता के आशीर्वाद से हम सब मिलकर एक बार फिर से ग्राम निर्भर भारत बनाने में कामयाब होंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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