डॉ. चिंतामणि मालवीय
आजादी के बाद देश के शासकों की पहली पीढ़ी विरासत में हमारे लिए अनेक समस्याएं छोड़ गई है। ऐसी समस्याएं, जिनका समाधान उसी समय आसानी से किया जा सकता था। बढ़ती जनसंख्या का विकराल दावानल उन्हीं में से एक है। जनसंख्या नियन्त्रण के उपाय तो किए गए लेकिन समुचित योजना और सरकारों में पर्याप्त इच्छाशक्ति के अभाव के चलते यह समस्या अब सुरसा का रूप धारण कर चुकी है।
सरकारों द्वारा समय-समय पर जनसंख्या नियंत्रण के लिए कई अभियान चलाए गए। जनजागरण भी किया गया। विज्ञापनों की शृंखला शुरू की गई। जागरूकता आई भी लेकिन 'हम दो हमारे दो' का नारा केवल एक ही धर्म के कुछ मध्यवर्गीय और उच्चवर्गीय लोगों तक सिमट कर रह गया और आगे चलकर सांप्रदायिक द्वेष का मैदान बना। देश के मुस्लिम वर्ग ने गरीबी, अशिक्षा, अभावों व पिछड़ेपन के बावजूद बच्चे पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। स्वाभाविक रूप से मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ी और आबादी बढ़ने के साथ ही अपराध, अतिक्रमण, कट्टरता और 'गजवा ए हिंद' का जिहादी सपना देखने वाले भी बढ़े। सांप्रदायिक रूप से संगठित हुए वोट बैंक की ताकत ने सत्ताधारियों से इस अप्रिय लेकिन देश के लिए हितकारी निर्णय करने की हिम्मत ही छीन ली।
1975 में आपातकाल के समय संजय गांधी ने यह हिम्मत की भी लेकिन उन्होंने कानून बनाने का दूरगामी निर्णय लेने के बजाय तानाशाही पूर्ण तात्कालिक निर्णय लिये। आम आदमी के बहुपक्षीय दमन ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर कर दिया और सारा दोष मुख्य रूप से नसबंदी पर ही आ गया। तब से नसबंदी या जनसंख्या नियंत्रण का विषय भारत की सरकारों के लिए मधुमक्खी का छत्ता बन गया। इसीलिए सत्ताधारियों ने जनसंख्या नियंत्रण के विषय को अपने विचार और व्यवस्था से बाहर ही रखा।
नतीजा यह हुआ कि हमारी जनसंख्या स्वतंत्रता के समय के 30 करोड़ से बढ़कर आज लगभग 135 करोड़ है। अर्थात 70 साल में हम 100 करोड़ बढ़ गए हैं। लेकिन राजनीतिकों के लिए अब बढ़ती आबादी पर बात करना भी वर्जित विषय हो गया है। नियंत्रणहीन प्रजनन, कट्टरवादी तत्वों की आवश्यकता है और वोटों के सौदागर अदूरदर्शी सोच वाले सत्तापिपासु नेताओं और पार्टियों के लिए इस विषय पर चुप रहना उनकी मजबूरी है। वे शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन रेत में गाड़ कर इस इस समस्या से गाफिल ही रहना चाहते हैं लेकिन उससे खतरा टल नहीं जाता।
विखंडित भारत में कृषि योग्य भूमि 2% और पीने का पानी 4% ही है लेकिन आबादी दुनिया की 16% है। इससे हमारा देश समस्याओं का पिटारा बन गया है। इससे आत्महत्या, गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, प्रदूषण में भारत अन्य देशों से बहुत आगे है। स्वाभाविक है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीवन गुणवत्ता इंडेक्स में हम बहुत पीछे हैं।
हाल ही में राष्ट्रपति ने भी ट्वीट करके कहा कि भारत जैसे बड़े और घनी आबादी वाले देशों को विशेष रूप से जनसंख्या नियंत्रण के विषय पर सुविचारित कदम उठाने होंगे। अन्यथा हमारे देश में जनसंख्याजनित आपदाओं के भीषण परिणाम हो सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो 15 अगस्त को अपने भाषण में संकेत दिया कि छोटा परिवार रखना भी एक प्रकार की देशभक्ति है। बढ़ती आबादी से केवल भारत ही नहीं, समूचा विश्व चिंतित है। 2019 में विश्व की आबादी 7 अरब 71 करोड़ हो चुकी है।
हमें ध्यान रखना होगा कि बढ़ी हुई आबादी और भी अधिक तेजी से बढ़ती है। विश्व की आबादी को एक अरब होने में 2.5 लाख वर्ष लगे। यह 1804 में एक अरब थी जो 1927 में2 अरब हो गई। अर्थात 123 वर्ष में जाकर विश्व की आबादी दोगुनी हुई। लेकिन 1960 में 3 अरब तो 1974 में 4 अरब हो गई। 1987 में जो जनसंख्या 5 अरब थी, वही जनसंख्या 1999 में 6 अरब हो गई। यानी मात्र 12 वर्ष में ही एक अरब जनसंख्या बढ़ गई।
विश्व की तुलना में भारत जनसंख्या विस्फोट के मुहाने पर बैठा हुआ है। कहने को तो हमारी आबादी चीन से थोड़ी कम है लेकिन शीघ्र ही हम चीन के बराबर जा पहुंचेंगे।? जबकि चीन के पास भारत से 3 गुना ज्यादा भूमि है। चीन का कुल क्षेत्रफल 96लाख वर्ग किलोमीटर है किंतु भारत के पास मात्र 32.9लाख वर्ग किलोमीटर भूमि ही है। लेकिन अखंड भारत से तुलना करें तो हम बहुत पहले ही चीन को पीछे छोड़ चुके हैं। 1941 की जनगणना के अनुसार देश की आबादी 31.8 करोड़ थी। कुछ क्षेत्रों की गणना नहीं होने के कारण इसे 34 करोड़ माना गया। इसमें सिर्फ 4.3 करोड़ मुसलमान थे और 29.4 करोड़ जनसंख्या हिन्दू थी। यदि आज पाकिस्तान की 20 करोड़, बांग्लादेश की 17 करोड़ और 135 करोड़ भारत की आबादी भी जोड़ दें तो भारत की जनसंख्या 70 वर्ष में 34 करोड़ से बढ़कर 172 करोड़ हो चुकी है। इस कालखंड में मुस्लिम आबादी बहुत तेजी से बढ़ी है। 1947 के भारत में जो मुसलमान 4 करोड़ थे, वह अब बढ़कर 57 करोड़ हो चुके हैं। यानी उनकी जनसंख्या की वृद्धि दर लगभग 1500%से ज्यादा रही। मतलब 15 गुना अधिक। जबकि हिंदू आबादी 30 करोड़ से बढ़कर 100 करोड़ यानी मात्र 3 गुना ही बढ़ी है।
विखंडित भारत में कृषि योग्य भूमि 2% और पीने का पानी 4% ही है लेकिन आबादी दुनिया की 16% है। इससे हमारा देश समस्याओं का पिटारा बन गया है। इससे आत्महत्या, गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, प्रदूषण में भारत अन्य देशों से बहुत आगे है। स्वाभाविक है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जीवन गुणवत्ता इंडेक्स में हम बहुत पीछे हैं। जैसे साक्षरता में हम 168वें स्थान पर हैं, न्यूनतम वेतन में 64वें स्थान पर हैं, आर्थिक विकास में 51वें तो भ्रष्टाचार में 80वें स्थान पर हैं। प्रति व्यक्ति आय में हम 139वें स्थान पर हैं। कानून भी हमारे यहां आबादी के भार से दब सा गया है। जाहिर है कि रूल आॅफ ला में हम 68वें स्थान पर हैं।
ऐसा नहीं है कि केंद्र व राज्य सरकारें इन समस्याओं से लड़ नहीं रही हैं लेकिन सरकारी कोशिशों को बढ़ती आबादी ग्रस लेती है। हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री ने 2022 तक सबको मकान देने की योजना बनाई। एक करोड़ मकान बने भी लेकिन हर साल 35 लाख नए मकानों की जरूरत बढ़ जाती है। क्योंकि आबादी 1 साल में एक करोड़ 60 लाख की गति से बढ़ रही है। 1976 में इंदिरा सरकार ने 42वां संविधान संशोधन किया जिसमें जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन को समवर्ती सूची में डालकर इस समस्या को राज्य सरकारों पर लादने की कोशिश की गई थी। लेकिन किसी राज्य ने इस पर कोई कानून नहीं बनाया। कुछ कोशिशें हुईं तो समाज में विसंगति ही बढ़ी। जो लोग अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर डॉक्टर, इंजीनियर, अधिकारी बना सकते हैं, वे बच्चे पैदा नहीं कर रहे हैं और गुणवत्ताविहीन जीवन जीने वाले लोग धार्मिक कारणों से8-8, 10-10 बच्चे पैदा कर रहे। इससे समाज में गुणवत्तापूर्ण आबादी की कमी की परेशानी आ गई है।
अभी असम सरकार ने आदेश जारी किया कि 2 बच्चों से अधिक पैदा करने वाले लोगों को सरकारी नौकरी और अन्य सुविधाएं नहीं मिलेंगी तथा वे स्थानीय निकाय चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। इस पर विरोध करते हुए 'आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट' के प्रमुख बदरुद्दीन अजमल ने कहा कि 'इस्लाम दो बच्चों की नीति में विश्वास नहीं करता' जिसे दुनिया में आना है उसे कोई नहीं रोक सकता। स्वाभाविक है कि देश की सरकार और वैज्ञानिक चाहे जितने उपाय कर लें, इस प्रकार की मानसिकता सब कुछ निष्फल कर देगी। इसलिए जरूरत है केंद्र सरकार ऐसा सख्त कानून बनाए जिसमें कम से कम 10 वर्ष की सजा का प्रावधान हो। तभी देश को बचाया जा सकता है और यही आखिरी उम्मीद है।
(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद और मध्य प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के उपाध्यक्ष हैं)
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