वैज्ञानिक आधार पर राष्ट्रीय दिनदर्शिका
डॉ. अरविंद रानाडे
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक जागरूकता इसके संविधान के अभिन्न अंग हैं। इतना ही नहीं, संविधान के अनुच्छेद 51 (ए) (एच)के तहत ‘हर भारतीय का यह कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं मानवतावाद और सुधार की भावना को विकसित करे’। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि इस देश के नागरिकों ने इन्हीं विचारों से प्रेरित भारतीय राष्ट्रीय दिनदर्शिका को अपनाया ही नहीं! आमतौर पर राष्ट्रीय पक्षी पूछने पर मयूर, राष्ट्रीय पुष्प कहने पर कमल, राष्ट्र ध्वज कहने पर तिरंगा, राष्ट्रगान कहने पर जन-गण-मन जैसी बातें सर्वसामान्य लोगों को पता हैं लेकिन इस दिनदर्शिका के बारे में उदासीनता दिखाई देती है।
भारतीय राष्ट्रीय दिनदर्शिका के फायदे
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इस बात को इस समय समझना अत्यंत आवश्यक है। पूरा भारत इस समय स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है और इस दिनदर्शिका का संबंध भी भारत की स्वतंत्रता के साथ जुड़ा हुआ है! भारत पर जिन आक्रमणकारियों ने राज किया, उनमें अंग्रेज अंतिम थे लेकिन इन्हीं अंग्रेजों ने भारत को लूटते-लूटते हमारे ‘स्व’ को खत्म करने की कोशिश की, भारतवासियों के मन पर आघात किया और प्रताड़ित करते हुए कहा कि हम अति पिछड़े, सांप-संपेरों के साथ रहने वाले और अंधविश्वास में डूबे हुए लोग हैं। लेकिन इन्हीं अंग्रेजों ने अपने जीवन में कितने सारे आचरण तर्कहीनता और अ-वैज्ञानिक आधार पर किए हैं, इसके कई उदाहरण मिलते हैं। उदाहरण के रूप में देखें तो प्राकृतिक संपदा का दोहन, जंगलों का दोहन करने की सोच का बीजारोपण इन्होंने ही किया और करना भी सिखाया। भारत की यह परंपरा रही है कि हम धरती, प्राणी, पक्षी और वृक्षों की पूजा करते हैं। जिस दिनदर्शिका का उपयोग आज हम करते हैं, वह भी इन्हीं की देन है, जिसे सामान्यत: अंग्रेजी कैलेंडर कहा जाता है (मूलत: इसे ग्रिगोरी नामक पादरी व्यवहार में लाया था)। लेकिन, हम में से कितने लोगों को यह पता है कि हम लोग जिस कैलेंडर का उपयोग कर रहे हैं, वह ऋतुचक्र से मिलने के अलावा बाकी के लिए अ-वैज्ञानिक है? जैसे कि,बर, नवंबर, दिसंबर जो कि एक जमाने में 8वां, 9वां और 10वां महीना हुआ करते थे, वे आज 10वां, 11वां, और 12वां महीना बन चुके हैं।
इन सारी चीजों को जब स्वतंत्र भारत में 1950 में देखा गया तो यह पता चला कि भारत में एक नहीं, बल्कि कई सारी दिनदर्शिकाएं मौजूद हैं और भारत के लोग अलग-अलग जगह पर इनका उपयोग करते हैं। इनको भी समझना जरूरी है। और इसी कारण स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू तथा अन्य स्वाभिमानी लोगों और बुद्धिजीवियों ने इन सभी बातों का अध्ययन कर स्वतंत्र भारत को एक आदर्श राष्ट्रीय दिनदर्शिका उपलब्ध करवाने के बारे में सोचा। वर्ष 1952 में, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर)के अंतर्गत एक समिति का गठन कर इसका दायित्व सुप्रसिद्ध एवं अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त खगोल वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा को समिति के अध्यक्ष के नाते सौंपा गया। डॉ. साहा उस समय संसद के सदस्य भी थे। इस समिति का नाम ‘दिनदर्शिका पुनर्रचना समिति’ रखा गया। समिति में डॉ. साहा के साथ-साथ, प्रो. ए.सी. बनर्जी (भूतपूर्व कुलगुरु, इलाहाबाद विश्वविद्यालय), डॉ. के.एल. दफ्तरी, पुणे, श्री. जे.एस. करंदीकर, पुणे (भूतपूर्व संपादक, केसरी), प्रो. आर.वी.वैद्य, उज्जैन (विक्रम विश्वविद्यालय), पंडित गोरख प्रसाद (प्रयागराज) और प्रो. एन.सी. लाहिरी (कलकत्ता) जैसे दिग्गज विद्वान थे।
1. वर्ष का आरंभ बिंदु, कालावधि और युग निश्चित करना।
2. माह की कालावधि निश्चित करना।
3. सौर मास के नाम निश्चित करना।
4. दिन का आरंभ निश्चित करना।
5. कालगणना के लिए देश में एक मध्यवर्ती स्थल को निश्चित करना।
6. तिथि और नक्षत्र को निश्चित करना और उसका त्योहारों के साथ मिलाप करने का प्रयास करना इत्यादि
समिति ने इस कार्य के लिए भारत की लगभग 30 अलग-अलग दिनदर्शिकाओं और पञ्चांगों का उपयोग किया।
दिनदर्शिका क्या है और इसके कितने प्रकार हैं?
सामान्यत: दो प्रकार के काल होते हैं, एक प्राकृतिक, जिसमें दिन (पृथ्वी के अपने अक्ष पर होने वाले घूर्णन के कारण), महीना (चंद्रमा के पृथ्वी के साथ घूमने के कारण) और वर्ष (पृथ्वी के सूर्य के साथ घूमने के कारण) शामिल हैं। तथा, दूसरा, मानव निर्मित (कृत्रिम), घंटा, मिनट और सेकेंड। इन दो कालमापन तरीकों को समय सूचकता के साथ नीतिबद्ध तरीके से बांधने को दिनदर्शिका कहा जा सकता है जिसमें हम बारंबार होने वाले कालचक्र को नीतिबद्ध अंकों के साथ निश्चित करते हैं। उदाहरण के रूप में हम समझ सकते हैं कि, 14 अगस्त, 1947 की मध्यरात्रि भारत स्वतंत्र हुआ, जिसमें दिन, महीना, साल और समय महत्वपूर्ण है।
दिनदर्शिका तीन प्रकार की होती है। एक, सौर दिनदर्शिका- पृथ्वी के सूर्य के साथ घूमने के साथ-साथ ऋतु परिवर्तन के साथ मेल खाने वाली (उदाहरण के रूप में तमिल, बंगाली, त्रिपुरा, केरल, ग्रिगोरियन और भारतीय दिनदर्शिका शामिल हैं), दूसरी,चांद्र दिनदर्शिका- जो चंद्रमा के पृथ्वी के साथ घूमने के कारण है जिसमें ऋतु स्थिर नहीं रहतीं और इसका साल 354 दिन का होता है (उदाहरण हिजरी दिनदर्शिका) और तीसरी, सौर-चांद्र दिनदर्शिका जिसमें ऊपर की दोनों दिनदर्शिकाओं को मिलाने का प्रयास होता है (उदाहरण शक और विक्रमी संवत् दिनदर्शिका जो भारत के अधिकतर राज्यों में प्रचलित है)। सामान्यत: हमें यह याद रखना है कि सौर-चांद्र दिनदर्शिका में तिथि (जैसे, प्रतिपदा, द्वितीया,..) का उपयोग होता है।
मूलत: हमें यह याद रखना होगा कि दिनदर्शिका की संकल्पना मानव निर्मित है और व्यवहार में उपयोग करने के कारण दिन, महीना और वर्ष की संख्या पूर्णांक में होना अत्यावश्यक है। अन्यथा, अगर हम पृथ्वी, चंद्र और सूर्य की गति के साथ जोड़ते तो दिन, महीना और वर्ष, इनकी गिनती पेचीदा हो जाती और इसे व्यवहार में लाना मुश्किल होता। लेकिन हमें यह भी याद रखना होगा कि इन अपूर्णांकों को समय-समय पर जोड़कर इनको पूर्णांक बनाया जाता है। जैसे अधि (लीप) वर्ष!
भारतीय दिनदर्शिका कैसे विज्ञान पर आधारित है?
1. महीनों के नाम और आकाश में उसका अस्तित्व : भारतीय राष्ट्रीय दिनदर्शिका में महीनों के नाम भारतीय पद्धति से दिए गए हैं। पूरे विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां 27 नक्षत्रों की बात की गई है। इसमें, चंद्रमा के सतत होने वाले मार्ग क्रमण पर आने वाले मार्ग को 27 समान हिस्सों में बांटा गया है और हर हिस्से का नामकरण किया गया है। हर नक्षत्र में तेजस्वी (आंखों से दिखने वाले) तारों को योगतारा कहा गया है। और चंद्रमा का भ्रमण हर दिन नए-नए नक्षत्रों में होता है अंतत: पृथ्वी के साथ प्रदक्षिणा पूर्ण करते हुए वह इन नक्षत्रों से घूमता है। इन 27 में से सिर्फ उन 12 नक्षत्रों को महत्व दिया गया है जिस नक्षत्र के योगतारे के पास चंद्र उस महीने में पूर्णिमा के समय होता है और ऐसा एक साल में सिर्फ एक बार पूर्णिमा के साथ संबंध होने के कारण इन पर 12 महीनों का नाम दिया गया है। अत: एक बात निश्चित है कि राष्ट्रीय दिनदर्शिका में दिए गए महीनों में उस नक्षत्र को रात में आकाश में देखा जा सकता है। इस आधार पर यह कहना गलत नहीं है कि राष्ट्रीय दिनदर्शिका के महीनों के नाम दर्शनीय खगोलीय घटना या स्थिति के साथ जुड़े हुए हैं।
2. खगोलीय बिन्दु और उसकी विशेषता : हमें यह समझने के लिए आकृति 1 की मदद लेनी होगी, जिसमें पृथ्वी का काल्पनिक विषुवत (पृथ्वी के विषुवत का आकाश में कल्पना से बनाया हुआ स्वरूप) और क्रांतिवृत (जिस कक्षा पर सूर्य, पृथ्वी की प्रदक्षिणा करते/घूमते हुए नजर आता है ऐसा काल्पनिक स्वरूप) एक दूसरे को दो बिन्दुओं पर छेदते हुए नजर आता है जिसे वसंत संपात और शरद संपात कहते हैं, और क्रांतिवृत पर उत्तर दिशा का अंतिम छोर, जिसे ग्रीष्म अयनांत और इसी क्रांतिवृत पर दक्षिण दिशा का अंतिम छोर, जिसे शीतकालीन अयनांत कहा जाता है, यह चार बिन्दु विशेष महत्वपूर्ण हैं। और, भारतीय राष्ट्रीय दिनदर्शिका में इन्हीं चार बिन्दुओं का उपयोग किया गया है। यानी ..वसंत संपात बिन्दु, एक ऐसा दिन जिसमें दिन और रात का समय एक समान होता है, इसी दिन से दिनदर्शिका यानी नए साल की शुरुआत होती है। (चैत्र 01)
ग्रीष्म अयनांत, जो कि सबसे लंबा दिन है,उस दिन भी नया महीना शुरू होता है (आषाढ़ 01)। इसी के बाद दक्षिणायन शुरू होता है।
शरद संपात बिन्दु, एक ऐसा दिन जिसमें दिन और रात का समय एक समान होता है, और इस दिन भी नया महीना शुरू होता है (आश्विन 01)।
और अंतिम, शीतकालीन अयनांत, जो सबसे छोटा दिन है और उस दिन भी नया महीना शुरू होता है (पौष 01)। इसी के बाद उत्तरायण शुरू होता है।
इस प्रकार इन चार खगोलीय घटनाओं को चार नए महीनों के साथ जोड़ने का काम किया गया है। और भारतीय संस्कृति में प्रचलित दक्षिणायन और उत्तरायण को भी नए महीनों से साथ जोड़ने का काम किया गया है।
3. पृथ्वी की सूर्य के साथ घूमने की कम और ज्यादा गति और महीनों की लंबाई: हमें यह समझने के लिए आकृति 2 की मदद लेनी होगी जिसमें हमें, पृथ्वी स्थिर और सूर्य क्रांतिवृत पर घूमते हुए प्रतीत होता है (जबकि वास्तविक स्थिति इसके विपरीत होती है)। केप्लर के नियमों के कारण हम सब जानते हैं कि, सूर्य (पृथ्वी), पृथ्वी (सूर्य) के साथ भ्रमण करते समय जब वह दूर होता है तब उसकी भ्रमण गति धीमी होती है और निर्धारित भ्रमणक्षेत्र पूर्ण करने के लिए इसे ज्यादा समय लगता है। और इस स्थिति को ध्यान में रखें तो वसंत संपात बिन्दु के बाद से शरद् संपात बिन्दु तक आने वाले महीनों में दिन की संख्या 31 दर्शाई गई है और यह वास्तविकता भी है। इसमें सिर्फ एक अपवाद है, कि, उस साल में चैत्र 31 दिन का होगा जो अधिवर्ष (लीप वर्ष) होगा।
केप्लर के ही नियमों के आधार पर देखें तो सूर्य (पृथ्वी), पृथ्वी (सूर्य) के साथ भ्रमण करते समय जब नजदीक होता है, तब उसकी भ्रमण गति तेज होती है और निर्धारित भ्रमण क्षेत्र पूर्ण करने के लिए इसे कम समय लगता है। और इस स्थिति को ध्यान में रखें तो शरद् संपात बिन्दु के बाद से वसंत संपात बिन्दु तक आने वाले महीनों में दिनों की संख्या 30 दर्शाई गई है और यह वास्तविकता भी है। ऊपर दिए गए तथ्यों के आधार पर भारतीय राष्ट्रीय दिनदर्शिका के वैज्ञानिक आधार पर खड़े होने का प्रमाण मिलता है।
1. भारतीय राष्ट्रीय दिनदर्शिका – सौर दिनदर्शिका होगी।
2. इसके वर्ष आयनिक (सायन सौर) हों अर्थात 365.2422 दिन का वर्ष हो।
2. पृथ्वी की घूर्णनगति के कारण वसंत संपात बिन्दु की चलायमान स्थिति का गणित और उससे होने वाली बाकी खगोलीय घटनाओं का अवलोकन करने के लिए एक स्थितीय खगोल विज्ञान केंद्र की स्थापना करने का प्रस्ताव।
4. वर्ष का आरंभ वसंत संपात के दूसरे दिन से होगा, अर्थात ग्रिगोरियन दिनदर्शिका के अनुसार 21 या 22 मार्च होगा।
5. प्रमाण समय के लिए जगह का अक्षांश 820 30 ‘पूर्व और 230 11’ उत्तर रेखांश होगा। अर्थात् यह जगह प्रयागराज होगी।
6. देश में अधिकतर शक गणना के प्रचलित होने के कारण शालिवाहन शक संवत का उपयोग करेंगे।
7. सामाजिक व्यवहार हेतु दिन का प्रारंभ मध्यरात्रि से ही होगा।
8. वैशाख से भाद्रपद महीनों में दिन की संख्या 31 हो और आश्विन से फाल्गुन महीनों में दिन की संख्या 30 हो। मार्गशीर्ष महीने का नाम अग्रहायण हो। बारह महीनों के नाम चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, अग्रहायण, पौष, माघ और फाल्गुन हों।
9. अधिवर्ष (लीप वर्ष यानि जिसके चैत्र महीने में 31 दिन हो) घोषित करने के लिए सूत्र है
अ. जब, (शक + 78)/4 = क्ष, ‘क्ष’ पूर्ण संख्या होना आवश्यक है।
आ. जब (शक + 78)/100 = फ ‘फ’ पूर्ण संख्या हो और,
(शक + 78)/ 400 = प ‘प’ भी पूर्ण संख्या होना आवश्यक है।
10. त्योहारों के लिए तिथि होना अनिवार्य होने के कारण पंचांग कर्ता अपनी-अपनी रीतिनुसार उसका निर्वहन करें।
11. इस भारतीय राष्ट्रीय दिनदर्शिका को 22 मार्च, 1957 अर्थात चैत्र 01, 1879 से आरंभ करें।
इन सभी सुझावों को भारत की संसद ने पारित करते हुए 22 मार्च 1957 यानि चैत्र 01, 1879 से लागू कर दिया था। और, इस का उपयोग, नाममात्र सरकारी कागजों में यानी, अन्य देशों के साथ करार के समय, रिजर्व बैंकके कुछ चुनिंदा दस्तावेजों में और आकाशवाणी, दूरदर्शन जैसे सरकारी तंत्रों में ही दिखाई देता है। इसके लिए सरकारी तथा निजी व्यवहार में काफी उदासीनता दिखाई देती है। इसे दुर्भाग्य के सिवा और कुछ कहा नहीं जा सकता। इसी के साथ, पाठकों और आम जनता को स्वतंत्रता के इस अमृत महोत्सव वर्ष में इसे स्वीकार कर अपनाने का अनुरोध करना अनिवार्य लगता है।
(लेखक विज्ञान प्रसार में वैज्ञानिक हैं।)
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