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हिन्दू आरे से कटते रहे, नई दिल्ली सोती रही

by अश्वनी मिश्र
Mar 24, 2022, 02:30 am IST
in भारत, जम्‍मू एवं कश्‍मीर
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साल, 1990 आते-आते कश्मीर हिन्दुओं के रक्त से लाल हो उठा था। हर तरफ हत्या, बलात्कार और अपनी ही माटी से पलायन करते हिन्दुओं की चीख गूंज रही थीं। खुलेआम आतंकी कश्मीरी हिन्दुओं को मारकर टांग रहे थे। महिलाओं की अस्मिता को तार—तार किया जा रहा था। मंदिरों को जलाया जा रहा था। मस्जिदों से खुलेआम पलायन की धमकियां दी जा रही थीं और नई दिल्ली सो रही थी। पाञ्चजन्य ने तब बड़ी मुखरता से इस अंतहीन पीड़ा को उठाया था, जो आज तक जारी है। परदे के जरिए द कश्मीर फाइल्स फिल्म ने आज जिस सच को देश—दुनिया के सामने लाया है, पाञ्चजन्य उस सच को लगातार लेख और रपटों के माध्यम से उजागर करता रहा है। एक बार फिर इसी कड़ी में कुछ झकझोरने वाली पीड़ा दायक कहानियां, जिन्हें पढ़कर रोंगेटे खड़े हो जाएंगे

जान दे दी पर घर नहीं छोड़ा

अपना संपूर्ण जीवन शिक्षा, दर्शन और कश्मीरी भाषा को समर्पित करने वाले पंडित दीनानाथ मुजू जम्मू—कश्मीर की जानी-मानी शख्सियत थे। 78 वर्षीय दीनानाथ अपनी पत्नी और बच्चों के साथ श्रीनगर के रावलपोरा इलाके में रहते थे। घाटी का माहौल खराब था ही। कश्मीरी हिंदुओं को चुन—चुनकर मारा जा रहा था। दीनानाथ मुजू को भी कश्मीर घाटी छोड़ने की लगातार धमकियां मिल रही थीं। दिल पर पत्थर रखकर किसी तरह अपने बच्चों को घाटी छोड़ने के लिए राजी कर लिया।बलेकिन खुद अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि श्रीनगर छोड़ने का साहस नहीं कर पाए। इस्लामिक आतंकियों को पंडित दीनानाथ का यह फैसला चिढ़ा गया। 6—7 जुलाई की दरम्यानी रात आतंकी रावलपोरा हाउसिंग कॉलोनी में स्थित घर में घुसे और पंडित दीनानाथ की गोली मारकर नृशंस हत्या कर फरार हो गए। आतंकियों की स्पष्ट धमकी थी कि घाटी में जो भी इस्लामिक वर्चस्व का विरोधी करेगा, धमकियों को दरकिनार घाटी में टिका रहेगा, उसको रास्ते से हटा दिया जायेगा। और आतंकी ऐसा ही कर रहे थे।


 

जब झेलम में मारकर फेंक दिया

कश्मीर घाटी हिन्दुओं की चित्कार से रो रही थी। दिन—प्रतिदिन हमले तेज़ हो रहे थे। हिंदुओं के ने धीरे-धीरे अपनी पुरखों की जमीन छोड़कर घाटी से बाहर बसना शुरू कर दिया था। लेकिन बहुतेरे ऐसे थे, जिन्हें अपने सदियों से साथ रह रहे मुस्लिम पड़ोसियों पर खुद से ज्यादा भरोसा था। ऐसे ही एक शख्स थे सोपोर में एग्रीकल्चरल कॉलेज में प्रोफेसर के.एल.गंजू। जाने-माने रिसर्चर गंजू और उनके परिवार को कई बार धमकियां मिल चुकी थीं। रिश्तेदारों ने घाटी छोड़ने की सलाह दी, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। मई के दूसरे सप्ताह में गंजू अपनी पत्नी प्रणा के साथ नेपाल एक सेमिनार से हिस्सा लेकर वापस लौट रहे थे। उनके साथ उनका भतीजा भी था। रास्ते में जब वह घर लौट रहे थे तो सोपोर पुल के पास आतंकियों ने उनकी जीप को रोक लिया। आतंकियों को उनके आने की खबर पहले ही दे दी गयी थी। आतंकियों ने प्रोफेसर गंजू को गाड़ी से उतारकर बेरहमी से मारा और फिर गोली मारकर झेलम में फेंक दिया। आतंकियों का इससे भी जी नहीं भरा तो भतीजे से कहा या तो नदी में कूद जाओ या फिर अपनी चाची के साथ देखो वे क्या करते हैं। आतंकियों के डर से भतीजा नदी में कूद गया। इसके बाद जिहादी प्रणा गंजू को अगवाकर फरार हो गए। भतीजे को तैरना नहीं आता था, लेकिन किसी तरह वह अपनी जान बचाने में कामयाब रहा। लेकिन इसके बाद पुलिस प्रणा गंजू की खोज़बीन करती रही। लेकिन उसके बारे में कुछ पता नहीं चला। कई दिन बाद प्रोफेसर गंजू की लाश मिल गयी। लेकिन प्रणा गंजू का कभी पता नहीं चल पाया। लेकिन उस दौरान कुछ समाचार पत्रों में खबर छपी की प्रणा गंजू के साथ आतंकियों ने कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार किया। वहशीपन की तमाम हदें पार करते हुए असहनीय यातनाएं दीं और उनकी हत्या कर दी गयी।


 

माथे पर कील ठोंक पिता—पुत्र के शव को लटकाया

कश्मीर में सर्वानन्द कौल प्रेमी की एक कवि, अनुवादक और लेखक के रूप में ख्याति थी। वह कई भाषाओं के ज्ञाता थे। सन 1924 में अनंतनाग में जन्में कौल मात्र सत्रह बरस की आयु में ही महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन में कूद पड़े थे। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात 1948 में उन्होंने कश्मीर छोड़ दिया और पंजाब सरकार में नौकरी कर ली। छह वर्ष बाद 1954 में सर्वानन्द कश्मीर घाटी लौटे और जम्मू—कश्मीर सरकार के शिक्षा विभाग में अध्यापक बन गये, जहां उन्होंने 23 वर्ष तक नौकरी की। सेवानिवृत्ति के बाद भी वह बिना वेतन के स्कूलों में पढ़ाते थे। 29 अप्रैल, 1990 की एक शाम तीन आतंकी बंदूक लेकर सर्वानन्द कौल के घर आ धमके। लूटपाट शुरू की। डरी—सहमी महिलाओं के गहने लूटे। फिर इन आतंकियों ने सर्वानन्द को साथ चलने को कहा। तीनों आतंकी पिता—पुत्र को साथ ले गए। और फिर कभी उनके परिवार ने पिता—पुत्र को जीवित नहीं देखा। 30 अप्रैल को पुलिस को उनकी लाशें पेड़ से लटकती हुई मिलीं। सर्वानंद कौल जिस स्थान पर तिलक लगाते थे, आतंकियों ने वहां कील ठोंक दी थी। पिता-पुत्र को गोलियों से छलनी तो किया ही गया था, इसके अतिरिक्त शरीर की हड्डियां तोड़ दीं। जगह-जगह उनके शरीर को सिगरेट से दागा गया।


 

जब आतंकियों के आने पर मुस्लिम पड़ोसी देखते रहे

हालात खराब होने के बाद बड़गाम जिले के कवूसा खालीसा गांव के चमन लाल पंडित ने भी परिवार समेत घाटी छोड़ने का मन बन लिया था। लेकिन साथ रहे मुस्लिम पड़ोसियों ने उनसे गांव नहीं छोड़ने को कहा। इन सभी ने वायदा किया था कि वह उन्हें एवं परिवार को कुछ नहीं होने देंगे। इसे देखते हुए चमन लाल ने घाटी छोड़ने का मन बदल दिया। पर 20 मई की सुबह आतंकियों ने अध्यापक चमन लाल का अपहरण कर लिया। जिन मुस्लिम पड़ोसियों ने यह भरोसा दिया था कि वह उन्हें एवं परिवार को कुछ नहीं होने देंगे, आतंकियों के आने पर कोई भी मदद को नहीं आया। अगले दिन चमन लाल की लाश पेड़ से लटकी मिली। उनकी हड्डियां तोड़ दी गयी थीं। उन्हें बुरी तरह तड़पाया गया था। इसके बाद चमनलाल के परिवार ने हमेशा के लिए घाटी छोड़ दी। और इसके बाद कभी भी हत्यारों का पता नहीं चल पाया।


 


आतंकियों ने जश्न मनाते हुए कहा—एक और मारा

पंडित प्रेमनाथ भट्ट घाटी के जाने—माने विद्वान थे। समाचार पत्रों में अपनी धारदार लेखनी के चलते उनकी ख्याति थी। वह हर बात को बिना भय के उठाते थे। 27 दिसंबर की शाम जब प्रेमनाथ भट्ट अनंतनाग में अपने घर जा रहे थे, तो उनके घर के पास दासी मोहल्ला में जेकेएलएफ के आतंकियों ने उनके सिर में गोली मारी। सरेआम मुस्लिम बहुल इलाके में हत्या करने के बाद आतंकियों ने जश्न मनाते हुए कहा- “एक और मारा।” लेकिन किसी ने एक शब्द नहीं बोला और आतंकी बंदूक लहराते हुए फरार हो गए। प्रेमनाथ भट्ट की हत्या के बाद भी उनके परिवार की सहायता करने के लिए मोहल्ले से कोई सामने नहीं आया। किसी ने भी पुलिस को कुछ नहीं बताया। अगले दिन पैतृक स्थान नरबल में उनका अंतिम संस्कार किया गया। उसके बाद उनकी दशमीं के दिन भी आतंकियों ने घर पर बम से हमला करने की कोशिश की। आतंकियों ने ऐलान कर रखा था कि किसी भी हालात में कश्मीरी हिन्दुओं के परिवार को नहीं बख्सेंगे।



गोली मार छाती पर लिखी हिन्दुओं के लिए चेतावनी

मस्जिदों से खुलेआम कश्मीरी हिन्दुओं को घाटी छोड़ने के लिए कहा जा रहा था। जगह—जगह हत्याएं हो रही थीं। कश्मीरी हिन्दू यह सब देख डरे—सहमें थे। इन्हीं में से एक 27 साल का दिलीप था। शोपियां जिले के मुजामार्ग गांव का रहने वाला दिलीप अपने 3 छोटे भाइयों और मां के साथ रहता था। पिता की मौत हो चुकी थी। घर की देखभाल का पूरा जिम्मा दिलीप के कंधों पर ही था। रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन पुश्तैनी जमीन के सहारे घर चल रहा था। लेकिन इसी बीच परिवार को घाटी छोड़ने की धमकियां मिलनी शुरू हो गईं। लेकिन दिलीप ने इन धमकियों को अनसुना कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि 19 मई को आतंकियों ने घर पर धावा बोल दिया। दरवाज़ा पीटते हुए आतंकियों ने दिलीप को बाहर निकलने को कहा। डरी-सहमी मां ने गुहार लगायी कि वह घर पर नहीं है। लेकिन आतंकी दरवाज़ा तोड़ घर में घुस आए और दिलीप को खींचकर बाहर निकाल लिया। बूढ़ी मां और छोटे भाइयों ने बड़े भाई को बचाने की खूब कोशिश की। लेकिन आतंकी दिलीप को बाहर खींचकर ले गए और बड़ी बेरहमी से उसे पीटा, जबड़ा तोड़ दिया। आतंकियों ने दिलीप के शरीर में दर्जनभर गोलियां दागीं। दिलीप के प्राण जा चुके थे। आतंकियों ने इलाके के हिंदुओं में दहशत पैदा करने के लिए दिलीप की लाश को पेड़ पर टांग दिया और एक पेपर पर चेतावनी लिखकर उनकी छाती ठोंक दिया। जिस पर लिखा था-अगर किसी में हिम्मत हो तो लाश को उतार ले और एक लाख रुपए ईनाम ले जाये। डर और खौफ के मारे किसी ने दिलीप की लाश को हाथ लगाने की हिम्मत नहीं दिखायी। आखिरकार पुलिस ने दिलीप की लाश को पेड़ से उतारा औऱ उसका अंतिम संस्कार किया। आतंकियों की इस वहशियाना हरकत के बाद हिंदुओं ने तेजी से घाटी छोड़नी शुरू कर दी।


जब मुसलमान दोस्त ने ही की नृसंश हत्या

बड़गाम निवासी तेज कृष्ण राजदान। सीबीआई में बतौर इंस्पेक्टर राजदान पंजाब में तैनात थे। फरवरी, 1990 में वह छुट्टियां मनाने गांव आए हुए थे। 12 फरवरी को बड़गाम में अपने मुस्लिम दोस्त से मिले, जिसका नाम मंज़ूर अहमद शल्ला था। लेकिन राज़दान को इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनका पुराना मुस्लिम दोस्त अब एक आतंकी बन चुका है और जेकेएलएफ आतंकी संगठन का हिस्सा है।
 
एक दिन मंजूर अहमद शल्ला ने तेज कृष्ण राज़दान को लाल चौक किसी काम से चलने के लिए कहा। दोनों लाल चौक के लिए बस में बैठकर निकल गए। थोड़ी दूर ही बस गांव-कदल में दूसरी सवारियों को उतारने के लिए रुकी, तो अचानक मंज़ूर अहमद शल्ला ने एक रिवॉल्वर निकाली और तेज कृष्ण राज़दान के सीने में कई गोलियां उतार दीं। इतना ही नहीं आतंकी मंज़ूर ने राज़दान के शव को बाहर खींचा और मुस्लिम यात्रियों को शव को पैरों के नीचे रौंदने के लिए उकसाया। काफी दूर तक उसे सड़क पर घसीटा गया और उनके शव को एक मस्जिद के किनारे फेंक दिया। घाटी के हिंदुओं के मन में दहशत भरने के लिए उसने राज़दान के पहचान पत्र निकाले और एक-एक कर कीलों से उनके शरीर पर घोंप दिए। उनका शव तब तक वही पड़ा रहा, जब तक कि उनके मृत शरीर को पुलिस ने अपने कब्ज़े में नहीं ले लिया।

आरे पर रखकर बीच से काट डाला

कश्मीरी हिंदुओं पर इस्लामिक बर्बरता की ऐसी सैंकड़ों अंतहीन दर्दभरी घटनाएं है, जिन्हें जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। गिरिजा कुमारी टिक्कू उन्हीं में से एक हैं। गिरिजा उस समय बारामूला जिले के गांव अरिगाम की रहने वाली थीं। वह एक स्कूल में लैब सहायिका का काम करती थीं। एक दिन वह स्कूल में अपना वेतन लेने गईं। इसके बाद उसी गांव में अपनी एक मुस्लिम सहकर्मी के घर उसे मिलने चली गयीं। आतंकी इन दौरान उन पर नजर रखे हुए थे। मौका पाते ही गिरिजा को उसी घर से अपहृत किया गया। यह सब गांव में रहने वाले लोगों के सामने हुआ। लेकिन किसी ने भी आतंकियों का विरोध नहीं किया। अपरहण के बाद आतंकियों ने गिरिजा के साथ सामूहिक बलात्कार किया। उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी। लेकिन पिशाच यही नहीं रुके। उन्होंने गिरिजा को बिजली से चलने वाले आरे पर रखकर बीच से काट डाला। गिरिजा टिक्कू अपने पीछे 60 साल की बूढ़ी मां, 26 वर्षीय पति, 4 साल का बेटा और 2 साल की बेटी छोड़ गयी थीं।


 


जब छाती को गोलियों से छलनी कर दिया

पं टिकालाल टपलू पेशे से वकील और जम्मू—कश्मीर, भाजपा के नेता थे। वह शुरुआत से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े थे। वकालत से वे जो कुछ भी कमाते उसे विधवाओं और उनके बच्चों के कल्याण हेतु दान दे देते थे। पूरे हब्बाकदल निर्वाचन क्षेत्र में हिन्दू—मुसलमान सभी उनका सम्मान करते थे और उन्हें बड़ा भाई कहकर संबोधित करते थे। टपलू जी उस समय कश्मीरी हिन्दुओं के सर्वमान्य और सबसे बड़े नेता थे। अलगाववादियों को उनकी यह छवि कांटे की तरह चुभ रही थी। आतंकियों ने उनकी हत्या करने की साजिश रची। श्री टपलू को आभास हो चुका था कि उनकी हत्या का प्रयास हो सकता है, इसीलिए उन्होंने अपने परिवार को सुरक्षित दिल्ली पहुंचा दिया और 8 सितम्बर को कश्मीर लौट आये। चार दिन बाद उनके आवास पर हमला किया गया। यह हमला उन्हें सचेत करने के लिए था, किंतु वे भागे नहीं और डटे रहे। महज दो दिन बाद 14 सितम्बर को सुबह जब अपने आवास से बाहर निकले तो उन्होंने पड़ोसी की बच्ची को रोते हुए देखा। पूछने पर उसकी मां ने बताया कि स्कूल में कोई कार्यक्रम है और बच्ची के पास पैसे नहीं हैं। टपलू जी ने बच्ची को गोद में उठाया, उसे पांच रुपये दिए और पुचकार कर चुप करा दिया। इसके बाद उन्होंने सड़क पर कुछ कदम ही आगे बढ़ाये होंगे कि आतंकवादियों ने उनकी छाती को गोलियों से छलनी कर दिया। कश्मीरी हिन्दुओं के सर्वमान्य नेता को मारकर आतंकियों ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि अब कश्मीर घाटी में ‘निज़ाम-ए-मुस्तफ़ा’ ही चलेगा।



जब आतंकियों ने जस्टिस गंजू को मार डाला

पं नीलकंठ गंजू, जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी। कुछ समय बाद वह हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। 4 नवंबर, 1989 को जब वह दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकियों ने उन्हें गोली मार दी थी। आतंकियों ने जस्टिस गंजू से मकबूल बट की फांसी का प्रतिशोध लिया था। यह वह समय था जब मस्जिदों से नारे लग रहे थे कि —ज़लज़ला आ गया है, कुफ़्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में। आतंकियों ने जज की हत्या करके भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का चुनौती दे दी थी। किसी तरीके का भय उन्हें नहीं रह गया था।



दिल को निशाना बनाकर मारी गोली

पुलवामा के खोनमुहा इलाके में रहने वाले 57 वर्षीय पुष्कर नाथ राजदान अपने घर में थे। उनके साथ 2 बेटे और एक बेटी समेत पत्नी भी मौजूद थीं। 12 अक्टूब, 1990 को एक दिन कुछ आतंकी जबरन घर में घुसे और राजदान को खींचकर बाहर ले गये। उनकी पत्नी और बच्चे चीखते-चिल्लाते रहे, लेकिन कोई मदद को आगे नहीं आया। आतंकियों ने पुष्कर नाथ के दिल को निशाना बनाते हुए गोली मारी और फरार हो गए। घरवाले पुष्कर नाथ को तुरंत श्रीनगर के बादामी बाग अस्पताल लेकर आये, जहां उनका ऑपरेशन किया गया, लेकिन उनको बचाया नहीं जा सका।


 


जब हाथों में कील ठोंक मार डाला

54 साल के किसान कन्या लाल पेशिन अपनी पत्नी, 2 बेटों और 1 बेटी के साथ बांदीपोरा के पज़ालपोरा में रहते थे। 18 अक्टूबर, 1991 की रात 9 बजे आतंकी घर में घुस आए और उनका अपहरण कर लिया। आतंकी कन्यालाल को गांव से दूर ले गए, जहां उन्हें बुरी तरह तड़पाया गया। उनके हाथों में कील ठोंक दी। मुंह में कपड़ा ठूंस दिया गया, ताकि आवाज़ दूर तक न जाए। कन्यालाल की लाश अगले दिन खेतों में पड़ी मिली। बाद में पता चला कि हिज्बुल के आतंकियों ने कन्यालाल की हत्या कर थी। इस हत्या के बाद बांदीपोरा में भी कश्मीरी हिंदुओं ने घाटी छोड़ना तेज़ कर दिया।

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