कश्मीर में हिंदू नरसंहार को दबाने में जब पूरा सरकारी तंत्र जुटा था, तब भारतीय मीडिया का एक विशेष तबका उसका सहयोगी था। आज तीन दशक बाद उस पर फिल्म बनने पर वही तंत्र इस अभिव्यक्ति को कुचलने के प्रयास कर रहा है
जब कश्मीर में हिंदुओं का नरसंहार हो रहा था तब भारतीय मीडिया क्या कर रहा था? यह प्रश्न अक्सर पूछा जाता रहा है। अधिकांश लोग इसका उत्तर जानते भी हैं। लेकिन पहली बार भारत के करोड़ों आम लोगों ने फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के माध्यम से देखा कि पूरा सरकारी तंत्र कैसे हिंदुओं के नरसंहार को दबाने में जुटा था और भारतीय मीडिया उसका सहयोगी था। उस घटना के लगभग तीन दशक बाद इस फिल्म के बनने पर वही तंत्र अभिव्यक्ति को कुचलने के पूरे प्रयास कर रहा है।
इस तंत्र की ही ताकत थी कि इतने वर्षों तक कोई निर्माता-निर्देशक इस मानवीय त्रासदी पर एक सच्ची फिल्म बनाने का साहस नहीं जुटा सका था। एनडीटीवी, टाइम्स आॅफ इंडिया और इंडिया टुडे जैसे मीडिया समूह कश्मीर के हिंदू नरसंहार के समय भी हुआ करते थे। उस समय उन्होंने पीड़ितों का साथ देने के स्थान पर आतंकवादियों के बचाव में तर्क गढ़े थे। विश्व इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता, जब किसी देश के मीडिया ने वहां के ही नागरिकों पर होने वाले अत्याचार का बचाव किया हो। क्या इसके कारणों की समीक्षा नहीं होनी चाहिए?
विचित्र बात यह कि ऐसे पक्षपाती मीडिया को अक्सर न्यायपालिका का समर्थन मिलता रहा है। दिल्ली के हिंदू विरोधी दंगों के समय केरल के ‘मीडिया वन’ ने अत्यंत आपत्तिजनक और भड़काऊ रिपोर्टिंग की थी। बाद में यह जानकारी सामने आई कि यह चैनल कट्टरपंथी संगठन जमाते-इस्लामी से जुड़ा हुआ है, जिसके बाद केंद्र ने इसकी सुरक्षा अनुमति वापस ले ली। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय पर रोक लगा दी। विरोधाभास यह है कि इसी न्यायालय ने कुछ वर्ष पहले सुदर्शन टीवी के आंकड़ों और तथ्यों पर आधारित एक कार्यक्रम पर रोक लगा दी थी। उसमें सिविल सेवा परीक्षाओं में भाषा और मजहब के आधार पर हो रहे पक्षपात का विषय उठाया गया था।
मुख्यधारा मीडिया का एक बड़ा वर्ग अभी तक उत्तर प्रदेश समेत चार राज्यों में भाजपा की विजय के सदमे से बाहर नहीं निकल पाया है। मतदाताओं को कोसने से लेकर वोटिंग मशीनों तक पर प्रश्नचिन्ह उठाने के प्रयास देखे जा सकते हैं। मीडिया ने जिन मुद्दों और नेताओं को पिछले चार-पांच वर्षों से बड़ा बनाने के प्रयास किए थे, जनता ने उन सभी को नकार दिया।
अंतिम चरण के मतदान से ठीक पहले नवभारत टाइम्स ने फेक न्यूज छापी कि लखनऊ में समाजवादी पार्टी के समय बने पार्कों और उनके नेताओं के बंगलों पर सफाई कराई जा रही है। यह समाचार मतदान को प्रभावित करने के उद्देश्य से फैलाया गया था। हालांकि उत्तर प्रदेश के लोग झांसे में नहीं आए। वैसे अगले पांच वर्ष यह चुनौती और बड़ी होने वाली है। उत्तर प्रदेश के जनादेश को लुटियंस मीडिया के मठाधीश पचा नहीं पाए हैं और वे दुष्प्रचार का खेल और तेज करेंगे।
उधर पंजाब में आम आदमी पार्टी ने चुनाव जीतने के साथ ही विज्ञापनों का खेल आरंभ कर दिया है। पहले दो-चार दिन में ही करोड़ों के विज्ञापन बांटे जाने के समाचार हैं। यही ‘केजरीवाल मॉडल’ है। दिल्ली की तरह पंजाब में भी अब मीडिया का मुंह विज्ञापनों से बंद कर दिया जाएगा। वहां की केवल अच्छी-अच्छी खबरें ही छापी जाएंगी। न वहां अब नशे की समस्या होगी, न पराली जलाने से दिल्ली तक प्रदूषण आएगा। ऐसे में पंजाब की सही स्थिति के लिए सोशल मीडिया और स्वतंत्र मीडिया संस्थानों पर ही निर्भर रहना होगा।
उधर छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार के विरुद्ध एक व्यंग्य लेख छापने के आरोपी पत्रकार नीलेश शर्मा को जेल भेज दिया गया। बाद में उन पर कई ऐसे आरोप भी लगा दिए गए जिनसे उनका चरित्रहनन किया जा सके। असम में एक अवयस्क बच्ची से सामूहिक बलात्कार का समाचार सामने आया। उसका वीडियो भी बनाकर फैलाया गया। इस अमानवीय घटना के समाचार को अधिकांश समाचार पत्रों ने अंदरूनी पन्नों पर छिपा दिया, कारण यह कि सभी पांच आरोपी एक मजहब विशेष के हैं। जिस तरह से कश्मीर में हिंदुओं के नरसंहार को सामान्य अपराध बताकर वर्षों तक दबाया जाता रहा, मीडिया वही काम पूरे देश में अलग-अलग स्तरों पर करता रहता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सेकुलर मीडिया का यह चरित्र व्यापारिक और वैचारिक दोनों ही कारणों से है।
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