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#द कश्मीर फाइल्स : साजिशों से परे सफलता

by WEB DESK
Mar 21, 2022, 01:47 am IST
in भारत, जम्‍मू एवं कश्‍मीर
द कश्मीर फाइल्स फिल्म

द कश्मीर फाइल्स फिल्म

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कश्मीर फाइल्स को लेकर देशभर और दुनिया के कई हिस्सों में एक प्रकार की जो दिलचस्पी जो इन 4-5 दिनों में दिखाई दी है, उसे न्याय के लिए एकजुटता का नाम देना ज्यादा ठीक होगा। न्याय उन कश्मीरी हिन्दुओं के लिए जो अपने समुदाय पर हुई ज्यादतियों के लिए 32 साल से केवल इस बात की बाट जोह रहे थे कि आखिर कोई उनकी बात तो करे।

द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्में रोज-रोज नहीं बनतीं। शायद पचास वर्षों में या सदी में एक आध बार ऐसा देखने में आए, जब कोई फिल्म सिनेमा जगत के लगभग सभी पैमानों और मिथकों को ध्वस्त करते हुए एक जनांदोलन का रूप ले ले और जनमानस के हृदय पर अमिट छाप छोड़ जाए। लेकिन इस फिल्म के संदर्भ में सबसे जरूरी बात याद रखने वाली यह है कि यह कोई मनोरंजक फिल्म नहीं है। घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार और पलायन की दर्दनाक दास्तान कहती यह फिल्म आमजन के कयासों से कहीं अधिक स्याह और स्तब्ध कर देने वाली है।

बॉलीवुड में 100 से 500 करोड़ या इससे अधिक पैसे बटोरने वाली मनोरंजक फिल्मों की तरह इसमें नाच-गाना नहीं है, बल्कि दिल चीर देने वाली सच्चाई का चित्रण है। इसकी अवधि भी करीब पौने तीन घंटे है, जो आजकल की फिल्में से कम मेल खाती है। नामचीन सितारे नहीं हैं, जो टिकट खिड़की से फटाफट पैसा बटोरकर देने के लिए जाने जाते हैं। ले देकर फिल्म का एक पोस्टर है और ट्रेलर, जो कहीं से भी आकर्षक नहीं है। ऐसी फिल्मों को लेकर अक्सर सिनेमा बिरादरी के पंच पहले से ही मुनादी कर देते हैं कि यह न तो चलने वाली है और न ही लोगों को पसंद आने वाली है। वे अक्सर यह भी कहते सुने जाते हैं कि ऐसी फिल्में केवल फिल्म समारोहों के लिए बननी चाहिए, जहां पुरस्कार की पुड़िया थमाकर एक फिल्मकार के अंदर के ऊबाल को शांत कर दिया जाता है। 

लेकिन जैसा कि मैंने पहले कहा कि द कश्मीर फाइल्स के साथ जो घट रहा है, वो पहले संभवत: कभी नहीं देखा गया। अपनी रिलीज के पहले ही दिन से इस फिल्म को पूरे देश में शानदार कामयाबी मिल रही है। खबर है कि फिल्म महज 20 करोड़ रुपये में बनी है, जबकि अपनी रिलीज के शुरूआती चार दिनों में यह 42 करोड़ रुपये से अधिक का कारोबार कर चुकी है। फिल्म ने पहले दिन 3.55 करोड़ रुपये, दूसरे दिन 8.50 करोड़ रुपये, तीसरे दिन (रविवार) 15.10 करोड़ रुपये और चौथे दिन 15.05 करोड़ रुपये बटोर डाले हैं। हालांकि साधारण स्टारकास्ट और कम बजट में बनी ऐसी ढेरों फिल्में हैं, जो अपनी प्रसिद्धि और कमाई से आश्चर्यचकित करती रही हैं। इस दृष्टि से फिल्म की सफलता को आंकेंगे तो कोई नई बात नहीं दिखती। लेकिन आप जैसे-जैसे फिल्म निर्माण और इसकी रिलीज के बाद के हालात पर नजर डालेंगे तो पता चलता है कि द कश्मीर फाइल्स को लेकर देशभर और दुनिया के कई हिस्सों में एक प्रकार की जो दिलचस्पी जो इन 4-5 दिनों में दिखाई दी है, उसे न्याय के लिए एकजुटता का नाम देना ज्यादा ठीक होगा। न्याय उन कश्मीरी हिन्दुओं के लिए जो अपने समुदाय पर हुई ज्यादतियों के लिए 32 साल से केवल इस बात की बाट जोह रहे थे कि आखिर कोई उनकी बात तो करे। बेशक, जो बड़े से बड़े नेता नहीं कर पाए या कोई दल नहीं कर पाया, वह एक फिल्म में कर दिखाया। लेकिन ये हुआ कैसे? 

बेमानी लगती है खानों की सफलता? 
किसी जमाने में बड़े से बड़े फिल्म स्टार को फ्राइडे फोबिया हुआ करता था। यह सोचकर कि शुक्रवार को रिलीज के बाद उसकी फिल्म का क्या होगा, बड़े से बड़े निर्माता तक को बुखार आ जाता था। लेकिन नए जमाने की मार्केटिंग, वीकेंड बिजनेस और बॉक्स आफिस पर करोड़ क्लब के गठन के बाद से शुक्रवार के बुखार का सिलसिला थमने सा लगा और बुखार का क्रम शुक्रवार के बजाय सोमवार पर स्थानांतरित हो गया। यानी अब जो फिल्में वीकेंड पर तो ठीक-ठाक बिजनेस कर लेती हैं, लेकिन सोमवार को ठंडी पड़ जाती है। इसलिए भी फिल्म बिजनेस के लिए सोमवार का दिन किसी भी बड़े स्टार की बड़़ी से बड़ी फिल्म के लिए भी एक चुनौतीपूर्ण दिन माना जाता है। कारण साफ है कि रविवार की छुट्टी के बाद सोमवार को लोग अपने काम धंधे में व्यस्त हो जाते हैं। लेकिन अगर कोई फिल्म इस दिन भी तगड़ी कमाई करती है, तो उसे बॉक्स आफिस की कसौटी पर खरा उतरना माना जाता है। यानी उक्त फिल्म के प्रति दर्शकों की दीवानगी इस कदर है कि सोमवार को अपने काम-धंधे के बीच उन्होंने फिल्म के लिए समय निकाला है। 

 

कुरान की कसम फिर कत्ल

राजेंद्र प्रेमी गांव सोकशाली, जिला अनंतनाग के रहने वाले हैं। 1990 से शरणार्थी जीवन जी रहे हैं। इन दिनों दिल्ली के सरिता विहार में रहते हैं। जिहादियों ने उनके पिता और छोटे भाई की हत्या कर दी थी। राजेंद्र के मन-मंदिर से कभी भी वह घटना नहीं हटती, जब जिहादी उनके घर पहुंचे थे। गांव में एक ही हिंदू घर था और वह था राजेंद्र का।  27 अप्रैल, 1990 की रात लगभग नौ बजे किसी ने उनके घर का दरवाजा खटखटाया। उस समय राजेंद्र अपने कमरे में अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने ही दरवाजा खोला। खोलते ही दो बंदूकधारी जिहादी मिले। उन दोनों ने उन्हें धक्के देकर घर के अंदर कर दिया और खुद भी अंदर आ गए। राजेंद्र ने बताया, ‘‘घर के सभी लोगों को एक कमरे में बंद कर दिया। इसके बाद महिलाओं से कहा गया कि वे अपने सारे गहने उतार कर दे दें। इसके साथ ही घर की सभी महंगी चीजों को हमसे ही जमा करवाया। जो महंगी वस्तुएं वे ले नहीं जा सकते थे, उन्हें तोड़ दिया। पड़ोसी मुसलमानों ने हमारे घर के बारे में उन्हें सब कुछ बता दिया था। इसलिए वे मेरे छोटे भाई विरेंद्र को हुक्म देते रहे कि उस कमरे से वह सामान ले आओ और अपने पास रखते रहे। सामान से दो बैग भर गए। साढ़े तीन बजे के करीब जिहादियों ने मेरे पिता और भाई से कहा कि बैग उठाकर बाहर चलो। अंधेरे में उन्हें कहां ले गए, पता नहीं चला।’’ इसके साथ ही राजेंद्र फफकने लगे। कुछ देर उनसे कुछ बोला ही नहीं गया। पानी पीने के बाद वे कुछ बोलने की स्थिति में लौटे। कहने लगे, ‘‘जिहादी यह कहते हुए घर से निकले कि फिक्र मत करो, खुदा और कुरान की कसम सुबह चाय पीने आएंगे। आप लोगों को कुछ नहीं होगा। आपस में बैठ कर बातचीत करेंगे। सुबह कुछ लोग आए भी, लेकिन उनमें पुलिस वाले और गांव के लोग थे। किसी ने भी यह नहीं कहा कि तुम्हारे साथ बहुत बुरा हुआ। सभी मिले हुए थे।’’ राजेंद्र ने आगे जो बातें बतार्इं, वे काफी डरावनी हैं। उन्होंने बताया, ‘‘दो दिन बाद मेरे पिताजी और भाई के शव मिले। इसके बाद हम लोग घर की देहरी और अपनी गायों को प्रणाम कर गांव से निकल गए। पहले जम्मू और फिर दिल्ली पहुंचे। आज 32 वर्ष हो गए हैं, लेकिन अपने घर वापस नहीं लौट सके  हैं। अब तो घर भी नहीं रहा। उसे जला दिया गया है और हमारी जमीन पर कब्जा कर लिया गया है। मेरे पिता और भाई की हत्या किसने की? मेरे घर को किसने जलाया? आज तक इसकी जानकारी नहीं मिली। दोषी को सजा देना तो दूर की बात है।’’     
-अरुण कुमार सिंह 


आतंकियों ने कहा—एक और मारा

हिन्दू प्रेमनाथ भट्ट घाटी के जाने—माने विद्वान थे। समाचार पत्रों में अपनी धारदार लेखनी के चलते उनकी ख्याति थी। वे हर बात को बिना भय के उठाते थे। 27 दिसंबर की शाम जब प्रेमनाथ भट्ट अनंतनाग में अपने घर जा रहे थे, तो उनके घर के पास दासी मोहल्ला में जेकेएलएफ के कुछ आतंकियों ने उनके सिर में गोली मार दी। आतंकियों ने सरेआम मुस्लिम बहुल इलाके में हत्या करने के बाद ने जश्न मनाते हुए कहा- एक और मारा। लेकिन किसी ने एक शब्द नहीं बोला और आतंकी बंदूक लहराते हुए फरार हो गए। प्रेमनाथ भट्ट की हत्या के बाद भी उनके परिवार की सहायता करने के लिए मोहल्ले से कोई सामने नहीं आया। किसी ने भी पुलिस को कुछ नहीं बताया। अगले दिन उनके पैतृक स्थान नरबल में उनका अंतिम संस्कार किया गया। उसके बाद उनकी दशमीं के दिन भी आतंकियों ने घर पर बम से हमला करने की कोशिश की। उन्होंने ऐलान कर रखा था कि किसी भी हालात में कश्मीरी हिन्दुओं के परिवार को नहीं बख्शेंगे।


 

‘काफिरो, कश्मीर छोड़ दो’

1990 में करण नगर, श्रीनगर में रहने वाले दिलबाग सपोरी उन शरणार्थियों में शामिल हैं, जो आज भी अपनी जन्मभूमि देखने को तरस रहे हैं। इन दिनों दिल्ली में रहते हैं। दिलबाग का परिवार कई दिनों तक घर में बंद रहा। अंत में 26 जनवरी, 1990 को दिलबाग को अपनी जन्मभूमि छोड़कर शरणार्थी बनना पड़ा। वे कहते हैं, ‘‘उन दिनों श्रीनगर की मस्जिदों से लाउडस्पीकर के जरिए जिहादी नारे लगाए जाते थे। कहा जाता था, ‘काफिरो, कश्मीर छोड़ दो’, ‘जिसको कश्मीर में रहना होगा, अल्लाहो अकबर कहना होगा।’ 

ये नारे आग में घी का काम करते थे और और जिहादी हिंदुओं पर टूट पड़ते थे। ऐसे में श्रीनगर के सारे हिंदू कुछ ही दिनों में पलायन कर शरणार्थी बन गए।’’ दिलबाग यह भी कहते हैं, ‘‘जब हमले होते थे तो लोग पुलिस को फोन करते थे, लेकिन कोई फोन तक नहीं उठाता था। कई जगह तो पुलिस और जिहादियों ने मिलकर हिंदुओं को मारा। निराश और हताश हिंदू सेना से मदद मांगते थे, तो वे लोग कहते थे कि ऊपर से कोई आदेश नहीं है। 
-अरुण कुमार सिंह 


 

‘मुसलमान बनो या फिर …’

फरीदाबाद (हरियाणा) में रहने वाले डॉ. रोमेश रैना का श्रीनगर की रैना बाड़ी में आलीशान मकान था। ये खुद श्रीनगर में सरकारी डॉक्टर थे। पड़ोस में रहने वाले मुसलमानों के साथ बहुत अच्छा रिश्ता था। सब एक-दूसरे के सुख-दु:ख में भाग लेते थे, लेकिन 1990 आते-आते पूरा माहौल बदल गया। पड़ोसी मुसलमानों और जिहादियों की बोली एक हो गई। उन दिनों श्रीनगर में प्रतिदिन एक हिंदू की हत्या की जाती थी, ताकि हिंदुओं में दहशत पैदा हो और वे अपने घर-द्वार छोड़कर भाग जाएं।  डॉ. रैना कहते हैं, ‘‘हम लोगों के लिए एक-एक मिनट भारी हो गया था। जान बचाने के लिए छिपते फिरते थे। ऐसे ही माहौल में  20 जनवरी,1990 की सुबह चार बजे मैं अपनी गर्भवती पत्नी के साथ श्रीनगर से चल पड़ा। उस समय भी मस्जिदों से नारे लग रहे थे-‘काफिरो, चाहे तो मुसलमान बनो या फिर भाग जाओ।’ करण चौक के पास पहुंचा तो सेना के कुछ जवानों ने रोका। जब उन्हें पता चला कि हम लोग हिंदू हैं, तो कहा कि जल्दी से निकल लो। इसके बाद मैंने गाड़ी तेज कर दी। सड़कें बिल्कुल सूनसान थीं। डर के साए में ही बनिहाल पहुंचे तब लगा कि अब जान बच जाएगी।’’   


 

‘घर खाली करो, वरना मिलेगी मौत’

राजीव धर के साथ जो हुआ, वह तो दिल दहला देने वाला है। वे बडगाम जिले के बागती कनीपोरा के रहने वाले हैं, लेकिन इन दिनों दिल्ली में रहते हैं। 1990 में बडगाम स्थित पॉलिटेक्निक कॉलेज में इनका दाखिला हुआ था। राजीव बताते हैं, ‘‘उन दिनों पॉलिटेक्निक में दाखिला मिलना बड़ी बात होती थी। इसलिए खुशी के मारे मैं मिठाई के साथ घर गया। घर पहुंचा तो दरवाजे पर एक कागज चिपका हुआ दिखा। उस पर लिखा था, ‘‘दो दिन के अंदर घर खाली करके भाग जाओ, नहीं तो सभी को जान से मार दिया जाएगा।’’ घर के अंदर गया तो किसी ने कुछ नहीं कहा। सभी मायूस बैठे थे। कुछ देर बाद पिताजी कुछ बोलने लगे, लेकिन वे ठीक से बोल नहीं सके। उन्होंने लखखड़ाती जुबान में कहा कि अब हमें यहां से जाना होगा। इसके बाद हम लोगों ने 18 जनवरी, 1990 को घर छोड़ दिया।  कुछ समय जम्मू के शरणार्थी शिविर में रहे और दिल्ली आ गए। बाद में पता चला कि मेरे घर को उन लोगों ने विस्फोट से उड़ा दिया। अभी भी मेरा घर खंडहर पड़ा है। 


छाती पर लिखी हिन्दुओं के लिए चेतावनी

उन दिनों मस्जिदों से खुलेआम कश्मीरी हिन्दुओं को घाटी छोड़ने के लिए कहा जा रहा था। जगह—जगह हत्याएं हो रही थीं। कश्मीरी हिन्दू यह सब देख डरे—सहमें थे। इन्हीं में से एक 27 साल का दिलीप था। शोपियां जिले के मुजामार्ग गांव का रहने वाला दिलीप अपने 3 छोटे भाइयों और मां के साथ रहता था। पिता की मौत हो चुकी थी। घर की देखभाल का पूरा जिम्मा दिलीप के कंधों पर ही था। रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन पुश्तैनी जमीन के सहारे घर चल रहा था। लेकिन इसी बीच परिवार को घाटी छोड़ने की धमकियां मिलनी शुरू हो गईं। लेकिन दिलीप ने इन धमकियों को अनसुना कर दिया। परिणाम यह हुआ कि 19 मई को आतंकियों ने घर पर धावा बोल दिया। उन्होंने दरवाजा पीटते हुए दिलीप को बाहर निकलने को कहा। डरी-सहमी मां ने गुहार लगायी कि वह घर पर नहीं है। लेकिन आतंकी दरवाजा तोड़ घर में घुस आए और दिलीप को खींचकर बाहर निकाल लिया। बूढ़ी मां और छोटे भाइयों ने बड़े भाई को बचाने की खूब कोशिश की। लेकिन आतंकी दिलीप को बाहर खींचकर ले गए और बड़ी बेरहमी से उसे पीटा, जबड़ा तोड़ दिया और दिलीप के शरीर में दर्जनभर गोलियां दागीं। दिलीप के प्राण जा चुके थे। आतंकियों ने इलाके के हिंदुओं में दहशत पैदा करने के लिए दिलीप की लाश को पेड़ पर टांग दिया और एक पेपर पर चेतावनी लिखकर उसे उनकी छाती पर ठोंक दिया। जिस पर लिखा था-अगर किसी में हिम्मत हो तो लाश को उतार ले और एक लाख रुपया ईनाम ले जाये। डर और खौफ के मारे किसी ने दिलीप की लाश को हाथ लगाने की हिम्मत नहीं दिखायी। आखिरकार पुलिस ने दिलीप की लाश को पेड़ से उतारा और उसका अंतिम संस्कार किया। 


 

मौत खटखटाती थी दरवाजा 

दिल्ली के द्वारका में रहने वाले अनूप कौल का हब्बा कदल, श्रीनगर में घर था। अनूप कहते हैं, ‘‘उन दिनों हमारे मुहल्ले में रहने वाले सभी मुसलमानों की भाषा और सोच एक हो गई थी और वह सोच थी हिंदुओं को हिंदू के नाते नहीं रहने देना। उन्होंने यह भी लिहाज नहीं रखा कि उन्हें किसी हिंदू माता ने दूध पिलाया है, हिंदू शिक्षक ने पढ़ाया है, किसी हिंदू ने पाला है। वे यह सब भूल चुके थे। पड़ोसी मुसलमान ही जिहादियों को बुलाते थे और हिंदुओं को मरवाते थे, ताकि वे उनके घर और संपत्ति पर कब्जा कर सकें।’’ उन्होंने यह भी बताया, ‘‘उन दिनों जब किसी हिंदू के दरवाजे को कोई खटखटाता था, तो लगता था कि मौत खटखटा रही है। हिंदुओं को न तो राज्य की पुलिस ने बचाया और न ही सेना ने। इस कारण मेरा परिवार 1990 में 18 और 19 जनवरी की रात को श्रीनगर से निकल गया।’’ 


अल्लाह के घर से धमकी

वड्डीपुरा, कुपवाड़ा में हर तरह से सुखी जीवन जीने वाले भारत भूषण को भी 1990 में शरणार्थी बन कर एक समय के निवाले के लिए भी दर-दर भटकना पड़ा। अब दिल्ली में रहते हैं। भारत कहते हैं, ‘‘जिसे अल्लाह का घर कहा जाता है, वहां से हिंदुओं को धमकी दी जाती थी कि यदि जान प्यारी है तो भाग जाओ। मार्च, 1990 तक हालात बिल्कुल खराब हो गए थे। आखिर में हमारे गांव के 50 हिंदू परिवार अपने खेत-खलिहान, बाग-बगीचा छोड़कर निकल गए।’’ वे यह भी कहते हैं,‘‘कश्मीर की पुलिस का रवैया बहुत ही खराब था। पुलिस के सामने हिंदुओं पर हमले होते थे और पुलिस चुप रहती थी।’’
-अरुण कुमार सिंह 


जब मुसलमान दोस्त ने की नृसंश हत्या

बड़गाम निवासी तेज कृष्ण राजदान। सीबीआई में बतौर इंस्पेक्टर राजदान पंजाब में तैनात थे। फरवरी, 1990 में वह छुट्टियां मनाने गांव आए हुए थे। 12 फरवरी को बड़गाम में वे अपने मुस्लिम दोस्त से मिले, जिसका नाम मंजूर अहमद शल्ला था। लेकिन राजदान को इस बात का अंदाजा तक नहीं था कि उनका पुराना मुस्लिम दोस्त अब एक आतंकी बन चुका है और जेकेएलएफ आतंकी संगठन का हिस्सा है। 

एक दिन शल्ला ने तेज कृष्ण राजदान से किसी काम से लाल चौक चलने के लिए कहा। दोनों लाल चौक के लिए बस में बैठकर निकल गए। थोड़ी दूर ही बस गांव-कदल में दूसरी सवारियों को उतारने के लिए रुकी, तो अचानक शल्ला ने एक रिवॉल्वर निकाली और राजदान के सीने में कई गोलियां उतार दीं। इतना ही नहीं, आतंकी मंजूर ने राजदान के शव को बाहर खींचा और मुस्लिम यात्रियों को शव को पैरों के नीचे रौंदने के लिए उकसाया। उसे काफी दूर तक सड़क पर घसीटा गया। और शव को एक मस्जिद के किनारे फेंक दिया। घाटी के हिंदुओं के मन में दहशत भरने के लिए उसने राजदान के पहचान पत्र निकाले और एक-एक कर कीलों से उनके शरीर पर घोंप दिए। उनका शव तब तक वही पड़ा रहा, जब तक कि उसके मृत शरीर को पुलिस ने अपने कब्जे में नहीं ले लिया।


आरे पर रखकर बीच से काट डाला

कश्मीरी हिंदुओं पर इस्लामिक बर्बरता की ऐसी सैंकड़ों अंतहीन दर्दभरी घटनाएं है, जिन्हें पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्हीं में से एक हैं गिरिजा कुमारी टिक्कू। गिरिजा उस समय बारामूला जिले के गांव अरिगाम की रहने वाली थीं। वे एक स्कूल में लैब सहायिका का काम करती थीं। एक दिन वे स्कूल में अपना वेतन लेने गईं। इसके बाद उसी गांव में अपनी एक मुस्लिम सहकर्मी के घर उसे मिलने चली गयीं। आतंकी इन दौरान उन पर नजर रखे हुए थे। मौका पाते ही गिरिजा को उसी घर से अपहृत कर लिया गया। यह सब गांव में रहने वाले लोगों के सामने हुआ। लेकिन किसी ने भी आतंकियों का विरोध नहीं किया। अपहरण के बाद आतंकियों ने गिरिजा के साथ सामूहिक बलात्कार किया। उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी। लेकिन वे नरपिशाच यही नहीं रुके। उन्होंने गिरिजा को बिजली से चलने वाले आरे पर रखकर बीच से काट डाला। वे अपने पीछे 60 साल की बूढ़ी मां, 26 वर्षीय पति, 4 साल का बेटा और 2 साल की बेटी छोड़ गई। 

 

द कश्मीर फाइल्स, इस कसौटी पर भी खरी उतरी पाई गई है। यही कारण है कि जहां चौथे दिन बड़ी-बड़ी फिल्में पानी मांगने लगती हैं, वहीं इस फिल्म ने पूरे 15 करोड़ रुपये से अधिक बटोर डाले हैं। यानी इस फिल्म ने अपने पहले सोमवार को वीकेंड के बराबर ही कमाई कर डाली, जिसे लेकर सिने बिरादरी दो खेमों में बंट गई। एक खेमा वो जो इस बात से खुश है कि इस फिल्म की कामयाबी से सिनेमाघरों में रौनक लौट आई है और दूसरे खेमे की चिंता इस बात को लेकर है कि विवेक अग्निहोत्री की आखिर चल कैसे रही है। दरअसल, एंटी खेमा इस तरफ सोच ही नहीं पा रहा है कि यह महज एक फिल्म नहीं है और इसकी सफलता किसी आम बॉलीवुड फिल्म सरीखी नहीं है।  

फिल्म संबंधी खबरें और फिल्मों के कारोबार का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाली वेबसाइट कोईमोई डॉट कॉम के अनुसार इस फिल्म ने महज चार दिनों के भीतर ऐतिहासिक कलेक्शन (42 करोड़ रुपये) करते हुए 111 फीसदी (रिर्टन आॅफ इन्वेस्टमेंट) मुनाफा अर्जित किया है। इसमें दो राय नहीं कि अपने पहले सप्ताह में यह 70 से 80 करोड़ रुपये के आंकड़े तक पहुंच जाए। अगर यह फिल्म 107 करोड़ रू. बटोर लेती है तो यह साउथ की फिल्म पुष्पा से आगे निकल जाएगी, जिसे फिलहाल सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाली फिल्म का श्रेय हासिल है। कहना गलत न होगा, लेकिव विवेक की इस छोटी सी फिल्म के आगे न केवल खान तिकड़ी, बल्कि कई अन्य नामचीन सितारे भी बौने से नजर आ रहे हैं। खासतौर से वे जिनके मुंह से इस फिल्म की प्रशंसा में अब तक भी एक शब्द नहीं फूटा है। फिल्म के लिए न सही, आखिर कश्मीरी हिन्दुओं पर हुए अत्याचार पर तो उंगलियां हिलाने की जहमत उठाई ही जा सकती है। 

बाहुबली को भी दी पटखनी
ये भी देखने वाली बात है कि द कश्मीर फाइल्स के आगे-पीछे आई फिल्मों के साथ क्या हुआ। इससे सबसे प्रभावित हुई बाहुबली के नाम से चर्चित साउथ के सुपरसटार प्रभास की ताजा रिलीज फिल्म राधे श्याम जो कि 11 मार्च को ही बड़े जोर शोर से बड़े पैमाने पर रिलीज की गई थी। लेकिन हिन्दी पट्टी में यह फिल्म बमुश्किल 14-15 करोड़ का ही कारोबार कर पायी है। बाहुबली प्रभास की प्रसिद्धि को देखते हुए इस आंकड़े पर यकीन करना मुश्किल है। तो उधर 4 मार्च को आई अमिताभ बच्चन की फिल्म झुंड भी महज 13 करोड़ रुपये बटोर पाई है।

वैसे, द कश्मीर फाइल्स के कलेक्शंस और ताबड़तोड़ सफलता का मुकाबला अलिया भट्ट की फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी से भी किया जा रहा है, जो कि अपनी रिलीज (25 फरवरी) के बाद से करीब 117 करोड़ रुपये बटोर चुकी है। यहां रोचक तथ्य यह है कि द कश्मीर फाइल्स की रिलीज के बाद से आलिया भट्ट की फिल्म के कलेक्शन पर तगड़ा ब्रेक लग गया है, वरना यह माना जा रहा था कि आलिया की यह फिल्म होली वीकेंड का फायदा उठाते हुए 200 करोड़ का आंकड़ा तो बड़े ही आराम से छू लेगी। पर अब शायद ऐसा होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि विवेक अग्निहोत्री की इस फिल्म की सुनामी जो चल पड़ी है। इसी तरह से हॉलीवुड फिल्म द बैटमैन (4 मार्च को रिलीज) जो 40 करोड़ बटोरकर काफी भरोसे के साथ आगे बढ़ रही थी, कश्मीरी हिन्दुओं की दर्दभरी दास्तान के आगे पूरी तरह से बैठती दिख रही है।

सच्चाई से कराएं अवगत
शायद यह कभी पता न चल पाएगा कि आखिर वे क्या कारण रहे होंगे कि लोगों को लगा कि यह फिल्म सभी को देखनी चाहिए। शायद देश के कई राज्यों में फिल्म को टैक्स-फ्री (खबर लिखे जाने तक केवल भाजपा शासित या समर्थित राज्यों में) किया जाना काफी नहीं था, इसलिए लोगों ने खुद से आगे बढ़कर मुफ्त के सिनेमा टिकट देने की पेशकश कर डाली। देश के जाने-माने डालमिया ग्रुप ने 14 मार्च को ऐलान किया कि वह अपने कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए इस फिल्म के मुफ्त टिकट मुहैया कराएंगे। वहीं आर. के. ग्लोबल नामक एक कंपनी ने देशभर में फैले अपने कर्मचारियों के लिए इस फिल्म के मुफ्त टिकट मुहैया कराने का ऐलान किया, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग उस भयावह त्रासदी का सच जान सकें। यह खबर भी आयी कि 14 मार्च तक मल्टीप्लेक्स शृंखला आईनॉक्स देशभर में इस फिल्म के 3.5 लाख सिनेमा टिकट बेच चुकी थी। 

इस बीच हमें कुछ अलग प्रकार का योगदान करने वालों की भी बात करनी चाहिए। लोगों को इस फिल्म के संगीतकार के बारे में जानना चाहिए। अग्निहोत्री ने इसका संगीत बुडापेस्ट में तैयार किया, जिसके लिए संगीतकार ने बहुत कम पैसे लिए। ये कहते हुए कि फिल्म में कश्मीरी हिन्दुओं के नरसंहार की दर्दभरी दास्तान हैं, जिसे लेकर मुनाफा नहीं कमाया जा सकता। फिल्म का संगीत रोहित शर्मा ने दिया है, जो इससे पहले विवेक की ही फिल्म बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम के लिए संगीत दे चुके हैं। रोहित ने अविनाश दास निर्देशित फिल्म अनारकली आफ आरा (2017) और आनंद गांधी की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म शिप आॅफ थिसियस (2013) के लिए संगीत दिया था। फिल्म में केवल स्याह पक्ष और प्रोपेगैन्डा की सड़ांध का जायजा लेने को आतुर रहने वालों को यह सब सामान्य ही लग रहा होगा। क्योंकि उनके पास हर बार अगर, मगर, लेकिन और क्यों के पहाड़ हैं।

यह भी एक बड़ी वजह है कि इस फिल्म को लेकर कुछ अलग ढंग से हमले भी हो रहे हैं। बताया जा रहा है कि न केवल विवेक अग्निहोत्री के वीकीपेडिया पेज से छेड़छाड़ की बातें सामने आयीं, बल्कि इस फिल्म के विवरण पेज को लेकर भी बहुत गलत ढंग से जानकारियों के साथ छेड़छाड़ की गई है। यही नहीं, वैश्विक स्तर पर सभी प्रकार की फिल्मों और टीवी शोज की रेटिंग इत्यादि करने वाली वेबसाइट आईएमडीबी तक ने इस फिल्म के प्रति दोहरा रवैया अपनाया है। पहले इस साइट पर फिल्म को 10 में से 10 रेटिंग दी गयी थी, जिसे बाद में 8.3 कर दिया गया। यह तर्क देते हुए कि फिल्म के रीव्यूज में असामान्य ढंग से हलचल देखी जा रही है। बता दें कि इस वेबसाइट पर करीब 94 फीसदी लोगों ने फिल्म को 10 की रेटिंग दी थी, जबकि महज एक फीसदी लोगों ने 1 की रेटिंग दी थी।     — विशाल ठाकुर

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