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जनादेश और इसके मायने

by WEB DESK
Mar 20, 2022, 09:30 pm IST
in भारत, दिल्ली
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

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अभी हाल संपन्न हुए चुनावों में भाजपा की जीत का श्रेय प्रधानमंत्री की कार्यशैली, संगठनात्मक नेटवर्क और सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी राजनीतिक दर्शन को जाता है। उन्होंने कार्य प्रदर्शन की जो नई राजनीति पेश की है, वह भविष्य के चुनावों में विपक्षी सरकारों की कड़ी परीक्षा लेने वाली है

राम माधव
वर्तमान चुनाव के नतीजे में भाजपा की विजय का श्रेय उन विशिष्ट तत्वों को जाता है जिन्होंने इसे अपराजेय मजबूती प्रदान की है। इसमें सबसे पहला नाम है नरेंद्र मोदी। उन्होंने कमाल की लोकप्रियता हासिल की है। दशकों तक सत्ता पर आधिपत्य जमाए बैठी पार्टी को धराशायी करके प्रधानमंत्री के पद पर बैठे नरेंद्र मोदी हर चुनाव में भाजपा की विजय का आधारस्तंभ बने रहे। उनकी लोकप्रियता उनके चुंबकीय व्यक्तित्व मात्र से नहीं, बल्कि उनकी प्रशासन शैली और राजनीति से उपजी है। सात वर्षों के अपने कार्यकाल में उन्होंने कई ऐसे कदम उठाए, जिनसे भारतीय समाज के सभी वर्गों, विशेष रूप से महिलाओं, युवाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण कार्य को गति मिली। उन्हीं लाखों लाभार्थियों की अभिभूत भावनाएं चुनावों में अपने प्रिय नेता के पक्ष में वोट डालने के लिए उमड़ पड़ीं।

भाजपा के मजबूत तत्व
मोदी एक अप्रतिम व्यक्तित्व होने के बावजूद आम लोगों के लिए एक स्नेहिल पिता और घर के बड़े की तरह दिखे जो सबका ख्याल रख रहे हैं-रोटी से लेकर बच्चों की शिक्षा और परिवार के बुजुर्गों की स्वास्थ्य देखभाल तक। मोदी ने लोगों के साथ संवाद बनाने के लिए किसी तीसरे पक्ष या माध्यम का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि उनसे सीधे बात की और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों ने उनके मन की बात दिल से सुनी। लाखों देशवासियों के साथ मोदी का शासकीय, राजनीतिक और व्यक्तिगत जुड़ाव भारत के राजनीतिक इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय बना रहेगा। 

भाजपा का दूसरा मजबूत तत्व है उसका संगठनात्मक नेटवर्क। 2014 के संसदीय चुनाव के बाद से पार्टी की संगठनात्मक शक्ति काफी मजबूत हुई है। इसका श्रेय काफी हद तक अमित शाह को जाता है। मुझे महासचिव के रूप में उनके अधीन काम करने का अवसर मिला था। उनके साथ काम करते हुए मैंने देखा कि वह कैसे समर्पित भाव से पार्टी को व्यापक विस्तार देने की दिशा में अथक मेहनत करते रहे हैं। अगर आज पार्टी ने केवल उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में ही नहीं, बल्कि मणिपुर और गोवा में भी, अपने दम पर पहली बार बहुमत हासिल करके अभूतपूर्व जीत दर्ज की है तो उसके पीछे पार्टी नेटवर्क की अहम भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जिसका विस्तार मतदान केंद्रों के स्तर तक दिखाई देता है।

तीसरी विशिष्टता भाजपा का सांस्कृतिक-राष्ट्रवादी राजनीतिक दर्शन है। आलोचक इसे नफरत और बहुसंख्यकवाद बताते हैं। वे हिंदुत्व शब्द पर हंगामा खड़ा करते हैं और तमाशा करते हैं कि भारत एक ‘हिंदू राष्ट्र’ बनने की राह पर चल पड़ा है। हिंदुत्व या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद न तो बहुसंख्यकवादी है और न ही नफरत फैलाने वाला। यह भारत की सभ्यता और संस्कृति की आत्मा है। यह हमारे देश के लोगों की मान्यताओं के साथ पूरी तरह से प्रतिध्वनित होता है, इसलिए वे इसे अपनी पहचान समझते हैं।

 


मोदी ने भारतीय राजनीति में कसौटी का स्तर बहुत ऊंचा कर दिया है। अवसरवादी गठबंधन अब नहीं चलने वाले। अब सत्तारुढ़ पार्टी हो या विपक्षी, दोनों के लिए उनका कार्य प्रदर्शन और उनसे संबंधी धारणा ही भविष्य में उनका चुनावी भाग्य तय करेगी। 


 

तिलक और गांधी जैसे नेताओं को इस सांस्कृतिक आत्मा का पूर्ण बोध था। नेहरू इसके विरोधी थे, लेकिन उनकी बेटी नहीं। जो लोग मोदी का मंदिरों में जाना ‘धार्मिक तमाशा’ कहते हैं, वे क्यों भूल जाते हैं कि इंदिरा गांधी नियमित रूप से मंदिरों और संतों के दर्शन करती थीं। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव और देवेगौड़ा भी काफी धार्मिक थे जिसे उन्होंने कभी नहीं छिपाया। यह और बात है कि उन दिनों मीडिया का दायरा न तो आज जितना व्यापक था कि इस तरह की बातों को हर पल पहाड़ बनाकर सुबह-शाम चलाता रहता, न ही बुद्धिजीवियों में कोई कुंठित तबका था जो हाय-तौबा मचाता। 

विपक्ष की चुनौती
भाजपा के इन विशिष्ट तत्वों ने अन्य विपक्षी दलों की रातों की नींद उड़ा रखी है। उनके लिए भाजपा के  मजबूत नेतृत्व, पार्टी संगठन और राजनीतिक दर्शन के सामने टिक पाना असंभव होता जा रहा है। कुछ लोगों ने मंत्रों का जाप करके और जनेऊ धारण करने का ढोंग किया, लेकिन कोई असली हीरे को छोड़कर नकली चुनता है क्या? ऐसे में विपक्ष के पास केवल एक ही राह खुली है-राज्य नेतृत्व। जब राज्य स्तरीय नेतृत्व के प्रदर्शन पर गौर करने की बात आती है तो विपक्ष एक साफ छवि वाले और प्रशासनिक रूप से दक्ष नेतृत्व का प्रचार कर अपनी जगह हासिल करने के लिए धक्का-मुक्की कर सकता है। पर दिलचस्प यह है कि इस बिन्दु पर भी मोदी और भाजपा के नेता कड़ी टक्कर दे रहे हैं। मोदी का ‘डबल इंजन’  फॉर्मूला महज बयानबाजी नहीं है। यह मुख्यमंत्रियों पर अच्छा प्रदर्शन करने के लिएलगातार दबाव बनाए रखता है।

सुशासन मुद्दा
जहां भाजपा नेताओं ने सुशासन पर काम किया, वहीं परिणाम उनके पक्ष में रहे। यूपी में योगी का ही मामला लें। उनके गेरुए वस्त्रों पर लोगों के कटाक्ष और उपहास खुद उन्हीं के विरुद्ध हो गए, जब योगी ने पांच वर्षों में खुद को एक साफ-सुथरा नेता, कुशल प्रशासक और विकास-केंद्रित और लोगों के कल्याण के लिए काम करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में साबित किया। डबल इंजन मोदी-योगी के सामने अखिलेश का पुराना मुस्लिम-यादव राग औंधे मुंह जा गिरा।

मैं सुदूर पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर का विशेष उल्लेख करना चाहता हूं जो कई भौगोलिक, राजनीतिक और कानून-व्यवस्था की समस्याओं से घिरा है। इस राज्य में भाजपा 2017तक कहीं नहीं थी जब तक पार्टी ने 21 सीटें जीतकर सहयोगी दलों के साथ सरकार बनाकर हैरान नहीं कर दिया। पिछले पांच वर्षों में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने दशकों से चुनौतियां झेल रहे राज्य में समाधान के प्रयास की दिशा में अपनी ऊर्जा लगाकर विश्वसनीयता पाई है। उन्होंने पहाड़ी-घाटी का विभाजन समाप्त कर दिया, सभी वर्गों-नागा, कुकी और मैतेई-को समान हितधारक बनाया और यह सुनिश्चित किया कि नगालैंड का पड़ोसी राज्यों से मजबूत संबंध विकसित हो जिससे राज्य को किसी प्रकार की नाकाबंदी का सामना न करना पड़े। पहली बार नागालैंड और मणिपुर के मुख्यमंत्रियों ने आमने-सामने बैठकर मुलाकात की।

राजनीति में जवाबदेही
यही वे अहम बातें हैं जो भाजपा को एक अजेय राजनीतिक शक्ति बनाती हैं। मोदी ने कार्य प्रदर्शन की जो नई राजनीति पेश की है, वह भविष्य के चुनावों में विपक्षी सरकारों की कड़ी परीक्षा लेने वाली है। कुछ लोगों की आलोचना के विपरीत, यह वास्तव में भारतीय राजनीति में जवाबदेही के साथ लोकतंत्र की स्थापना को बढ़ावा देता है। विपक्ष की विफलता को लोकतंत्र का कमजोर होना कहना बौद्धिक दिवालियापन दर्शाता है। अगर उस पैमाने पर मापा जाए तो नेहरू के वर्षों को सबसे निरंकुश वर्ष कहा जाएगा। भाजपा आज वहीं खड़ी है जहां कांग्रेस स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में थी।

लेकिन दोनों में एक अंतर है। मोदी ने भारतीय राजनीति में कसौटी का स्तर बहुत ऊंचा कर दिया है। अवसरवादी गठबंधन अब नहीं चलने वाले। अब सत्तारूढ़ पार्टी हो या विपक्षी, दोनों के लिए उनका प्रदर्शन और उनसे संबंधी धारणा ही उनका चुनावी भाग्य तय करेगी। नैतिकता, लोकतंत्र आदि के बारे में परिष्कृत शब्दों में शिकायत करने के बजाय, बुद्धिजीवियों को राजनीतिक प्रतिष्ठान को प्रदर्शन और ‘जनता के लिए’ काम करने के संकल्प के साथ विश्वसनीय राजनीति करने की दिशा में प्रेरित करना चाहिए, न कि ‘परिवार के लिए’ केंद्रित स्वार्थ की पूर्ति के लिए।     
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के ख्यात टिप्पणीकार हैं)

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