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होम भारत

सच का हथौड़ा, झूठ की दीवार

by हितेश शंकर
Mar 18, 2022, 11:32 pm IST
in भारत, सम्पादकीय, दिल्ली
आतंकवादी हाफिद सईद के साथ यासीन मलिक, लेखिका अरुंधति राय के साथ यासीन, डॉ. मनमोहन सिंह के साथ नेता यासीन मलिक

आतंकवादी हाफिद सईद के साथ यासीन मलिक, लेखिका अरुंधति राय के साथ यासीन, डॉ. मनमोहन सिंह के साथ नेता यासीन मलिक

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पुरानी कहावत है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है और लोग इसका इस्तेमाल गलत उद्धरणों के संदर्भ में करते हैं। लेकिन इतिहास खुद को दोहराता क्यों है इसलिए कि हम उससे सबक नहीं सीखते। सो इस देश के मुसलमानों को कांग्रेस से यह सवाल करना चाहिए कि उसने एक पूरी कौम को अलगाववादी क्यों बना दिया?

जरा बॉलीवुड के दरवाजे की ओर नजर घुमाइए! ‘रिश्तों’ की आंच पर मतलब की रोटियां सेंकने वाली दुनिया के बंद दरवाजे पर एक ‘बाहरी’ ने जोरदार दस्तक दी है। इस दस्तक में इतनी ताकत है कि अगर इस बार दरवाजा नहीं खुला तो इसका टूटना तय है। क्यों? वैसे तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ भी एक फिल्म ही है लेकिन इसके साथ ऐसी कई बातें हैं जो सवाल बनकर हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं। उसे देखते समय लोगों के आंसू रुक क्यों नहीं रहे? थिएटर में भारत मां के जयकारे क्यों लग रहे हैं? फिल्म खत्म होने पर लोग अपने-आप राष्ट्रगान क्यों गाने लग रहे हैं? थिएटर से बाहर आने पर भी उनकी हिचकियां थम क्यों नहीं रहीं?  कई कंपनियों ने अपने लोगों को फिल्म देखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए छुट्टी क्यों दे दी? वहीं, बॉलीवुड से लेकर समाज के अन्य हिस्सों का एक तबका आशंकित क्यों हो गया? सियासत में भी हलचल क्यों है? इसलिए कि बॉलीवुड के बंद दरवाजे पर इस बार जो दस्तक हुई है, वह हथेली की थाप से नहीं, दशकों के दर्द को समेटे भिंची हुई मुट्ठियों से हुई है। इसने पूरे देश को झकझोर दिया है। इसमें ताकत है कि देश-समाज के कई हिस्सों में जड़ें जमाए झूठ को बेपर्दा कर दे।

ढही कश्मीरियत की रूमानी दीवार
कश्मीर फाइल्स का कथानक ऐसा है जिसमें कथा कम, व्यथा और वास्तविकता ज्यादा है। जिस तरह से कश्मीर से लाखों हिन्दुओं को उनकी जड़ से उखाड़ा गया, उनकी हत्याएं की गईं, उनकी बहू-बेटियों के साथ बलात्कार किया गया, जिस तरह सरकार मुंह फेरे खड़ी रही और हिन्दुओं के रक्तरंजित तन-मन की वेदी पर कथित कश्मीरियत की जो रूमानी इमारत खड़ी की गई, इस फिल्म ने जैसे उन सब पर पड़ी धूल को एक फूंक में हटा दिया है। 14 सितंबर, 1989 को पंडित टीका लाल टपलू की दिन-दहाड़े हत्या और फिर जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चरमपंथी मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाने वाले रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या से आकार लेने वाले आजाद भारत का वह शर्मनाक नरसंहार जल्दी ही ऐसे मुकाम पर पहुंच गया जहां खुलेआम लाउडस्पीकरों-पोस्टरों से धमकी दी जाने लगी-असि असि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान (हमें पाकिस्तान चाहिए, हिन्दुओं के बगैर पर उनकी पत्नियों के साथ)। साथ-साथ उठने-बैठने वालों ने हत्याएं कीं, बलात्कार किया।

1990 के उन काले दिनों की साक्षी पीढ़ी आज भी हमारे बीच है। उनसे बात करें, आत्मा कांप जाएगी। बहुत-से मामलों में जैसे पहले से यह बंदरबांट हो गई थी कि कौन किसकी बेटी के साथ बलात्कार करेगा, कौन किसे मारेगा, कौन किसकी संपत्ति पर कब्जा करेगा। ये जो थिएटर में लोगों को भावनाओं में बहते देख रहे हैं, वह उस समाज का अपराध-बोध है कि उसके एक कोने में इतना अंधेरा छाया रहा और वह कुछ नहीं कर सका? और तो और, उसने लगातार चले उस दौर में कभी यह जानने की भी कोशिश नहीं कि तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया में छाए सन्नाटे और कराहने की दबी-दबी सी आती आवाज के बीच की सच्चाई क्या है? उसे अपने-आप पर गुस्सा है कि देश में इतना कुछ हो गया और उसे यह भी नहीं पता कि आखिर हुआ क्या था? यह सही है कि तब नि: संदेह पाञ्चजन्य जैसे गिनती के मीडिया प्रकाशनों ने कश्मीरी हिन्दुओं के साथ हो रही बर्बरता को लगातार सामने लाने का प्रयास किया, लेकिन बाकी इसकी ओर से आंखें मूंदे रहे।


कश्मीर से लाखों हिन्दुओं को उनकी जड़ से उखाड़ा गया, उनकी हत्याएं की गईं, उनकी बहू-बेटियों के साथ बलात्कार किया गया, जिस तरह सरकार मुंह फेरे खड़ी रही और हिन्दुओं के रक्तरंजित तन-मन की वेदी पर कथित कश्मीरियत की जो रूमानी इमारत खड़ी की गई, इस फिल्म ने जैसे उन सब पर पड़ी धूल को एक फूंक में हटा दिया है। 14 सितंबर, 1989 को पंडित टीका लाल टपलू की दिन-दहाड़े हत्या और फिर जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के चरमपंथी मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाने वाले रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या से आकार लेने वाले आजाद भारत का वह शर्मनाक नरसंहार जल्दी ही ऐसे मुकाम पर पहुंच गया


बाद में भी अन्याय
एक तो इतनी यातना झेली और उसके बाद घरवापसी की जो कुछ भी आधी-अधूरी कोशिशें की गईं, वे वैसी नहीं थीं कि हिन्दुओं के मन में बैठे डर को दूर कर सकें, तो हिन्दू वापस कैसे जाते? क्या किसी ने गारंटी ली कि कल जो हो गया, वो आगे नहीं होगा? क्या सत्ता में कोई अपराध बोध था? अगर होता तो क्या थोक के भाव में पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों को रिहा करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री फारुक अब्दुल्ला यह कहते कि ‘उन्हें (हिन्दुओं को) इस बात का अहसास करना होगा कि कोई भीख का कटोरा लेकर उनके सामने आकर नहीं कहेगा कि आओ और हमारे साथ रहो, कदम उन्हें ही उठाना होगा’? अगर लाखों कश्मीरी हिन्दुओं को न्याय दिलाने की बात होती तो क्या कांग्रेस अलगाववादियों के मान-मनुहार की नीति पर चलती? यासीन मलिक जैसे अलगाववादी के साथ देश के प्रधानममंत्री मनमोहन सिंह मुलाकात करते, मुस्कराकर फोटो खिंचाते? इतना ही नहीं, आज जब पूरे देश में कश्मीरी हिन्दुओं के पक्ष में जनभावना मजबूत हो रही है, तो केरल कांग्रेस द्वारा ताबड़तोड़ ट्वीट करके यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि कश्मीर में मुसलमानों के साथ हिंदुओं की तुलना में कहीं अधिक अत्याचार हुआ?

कांग्रेस ने नहीं सीखा सबक
कहावत है कि इतिहास अपने आप को दोहराता है और लोग इसका इस्तेमाल गलत उद्धरणों के ही संदर्भ में करते हैं। लेकिन इस पर विचार तो करना ही चाहिए कि इतिहास अपने-आप को दोहराता क्यों है? इसलिए कि हम उससे सबक नहीं सीखते। आज क्या हो रहा है? लगता है कि कांग्रेस ने अलगाववादियों को हथेलियों पर रखकर किस्तों में अमन-चैन खरीदने की नीति के दुष्परिणामों से कोई सबक नहीं लिया। इस देश के मुसलमानों को कांग्रेस से यह सवाल करना चाहिए कि उसने एक पूरी कौम को अलगाववादी क्यों बना दिया? कांग्रेस और कुछ तत्वों को क्यों लगता रहा कि मुट्ठी भर अलगाववादियों को अगर साथ मिलाकर नहीं चले तो इस देश का मुसलमान नाराज हो जाएगा? उनकी नीति थी अलगाववादियों को हथेलियों पर रखकर अमन खरीदने की, बेशक इसके कारण वहां भ्रष्टाचार सांस्थानिक रूप से ही क्यों न स्थापित हो गया हो और वहां आतंकवाद तथा अलगाववाद को बनाए रखने का एक तंत्र खड़ा हो गया।

अगर सियासत में कुछ लोगों को डर लग रहा है, तो इसका उचित कारण है। कट्टरपंथी तभी तक वोट बैंक बनकर उनके काम आ सकते हैं जब तक उन्हें तुष्टिकरण की खुराक पर पाला जाए। अपराध को बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक के खांचों में देखना उन्हें रास आता है, उनकी रीति-नीति को सुहाता है क्योंकि उन्हें लगता रहा कि ऐसा करके ही उनके सियासी हित आसानी से पूरे हो सकते हैं।

वैसे ही, आज अगर बॉलीवुड में कुछ लोगों को डर लग रहा है तो उसकी भी वजह समझी जा सकती है। उन्हें डर इस बात का है कि कहीं मनोरंजन के नाम पर खड़ी की गई हमाम की दीवार ही न ढह जाए। मनोरंजन की इस दीवार पर सच का हथौड़ा बजा है तो सब थर्रा गए हैं क्योंकि उस पार आतंक और कट्टरता को पोसता बार-बार भारत को लांछित करता बड़ा जमावड़ा नंगा हो जाएगा।

एक बात याद रखिए, थिएटर में उमड़ने वाले ये आंसू, ये आक्रोश, यह खीझ, उस समाज की है जिसे अपने ही इतिहास, अपने भारतीय कुटुंब से काटकर रखने की चाल चली गई। गलत और छोटे रास्ते पर चलकर अपने हितों को साधने की ताक में रहने वाले सावधान! समाज का यह सामूहिक बोध ऐसे तत्वों को पहचान चुका है, और निश्चित ही क्षमा नहीं करेगा।

@hiteshshankar

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