विशाल ठाकुर
जब भी कोई नामालूम सी दिखने वाली फिल्म इस तरह से चर्चा में आती है और प्रसिद्धि एवं कमाई के पिछले सारे रिकॉर्ड्स धवस्त करती दिखती है, तो निश्चित रूप से ध्यान जाता है कि आखिर फिल्म का निर्देशक कौन है। खासतौर से जब फिल्म किसी खास या नामचीन बैनर की न हो। बिना भव्य रिलीज प्लान के साथ आयी हो और जिज्ञासा एवं कंटेंट के मामले में भी रूखी-रूखी सी हो। पहली नजर में ऐसा ही लगता है कि द कश्मीर फाइल्स के निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ऐसे फिल्मकार तो नहीं हैं, जो फिल्म बिरादरी और देश में प्रसिद्ध हों। लेकिन उनकी फिल्म आग की तरह जिस ढंग से पूरे देश में फैल रही है, उससे उनके प्रति जानना लाजिमी सा हो रहा है।
ये सही है कि कुछ दिनों पहले तक 10 में से 9 लोग उन्हें बेशक न जानते हों पर अब 10 में से 10 लोग उन्हें जानने लगे हैं और उनके बारे में और ज्यादा जानने की इच्छा रखते होंगे। वे तो टीवी के रियेलिटी शोज में भी नहीं दिखते। अपने-अपने खेमों की पार्टीज और समारोहों में भी वह नहीं दिखते। सिने बिरादरी में उठबैठ तो छोड़िये, बल्कि वह तो हमेशा निशाने पर से रहते हैं। फिर एक ऐसे फिल्मकार की त्रासदी से भरी फिल्म को अचानक इतनी तवज्जों कैसे? जिसकी पिछली फिल्म (द ताशकंद फाइल्स) को कई प्रबुद्ध फिल्म समीक्षकों ने रिव्यू करने से ही मना कर दिया था।
एक राष्ट्रवादी फिल्मकार के लिए इससे बड़ी चुनौती क्या होगी कि फिल्म निर्माण जैसे असुरक्षित और संवेदनशील क्षेत्र में वह न केवल खुद को साबित कर पाया, बल्कि आज उसकी धमक भारत के साथ-साथ देश-विदेश तक जा पहुंची है। लेकिन तीन साल पहले तक विवेक के लिए सिनेमा की राहें कतई आसान नहीं थीं। खासतौर से जब उन्होंने पिछली सरकारों के कार्यकाल में हुई ज्यादतियों, भष्ट्राचार, नाकामियों आदि पर्दा हटाने का ऐलान किया था। इसकी पहली किस्त हम द ताशकंद फाइल्स के रूप में देख चुके हैं और दूसरी किस्त द कश्मीर फाइल्स के रूप में हमारे सामने हैं। विवेक कई जगह कह चुके हैं कि उनकी तीसरी किस्त द दिल्ली फाइल्स हीगी जो साल 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के पीछे की सच्चाई सामने लाने का काम करेगी।
जिन्होंने समीक्षा के लायक भी न समझा
साल 2019 में आयी विवेक अग्निहोत्री की द ताशकंद फाइल्स के बारे में एक बात जो सबसे ज्यादा अचरज पैदा करती है, वो यह कि कई फिल्म समीक्षकों ने बेशर्मी से कह दिया था कि यह फिल्म समीक्षा के लायक नहीं है। फिर जैसे-तैसे जिस किसी ने फिल्म की समीक्षा की भी तो जी भर भरकर नकारात्मक रेटिंग दी। दि हिन्दुस्तान टाइम्स की वेबसाइट पर ज्योति शर्मा बावा ने इस फिल्म 1 स्टार देते हुए लिखा है कि प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु पर आधारित इस पॉलिटिकल प्रोपेगेंडा फिल्म में पंकज त्रिपाठी और नसीरूद्दीन शाह सहित कई योग्य कलाकारों की प्रतिभा व्यर्थ गयी है। इसी तरह फिल्म को अर्थहीन और निरर्थक बताते हुए इंडिया टुडे ने 1 स्टार, स्क्रोल डॉट इन ने 1 स्टार, न्यूज 18 डॉट काम ने भी 1 स्टार, दि क्विंट ने 1 स्टार और एनडीटीवी के लिए रिव्यू करते हुए सैबल चटर्जी ने भी 1 स्टार दिया है। दूसरी तरफ टाइम्स ऑफ इंडिया के रिव्यू में रचित गुप्ता ने फिल्म को 2.5 स्टार दिये हैं। फिल्मफेयर के देवेश शर्मा ने भी इस फिल्म को 2.5 स्टार, एनडीटीवी इंडिया के प्रशांत सिसोदिया ने 3 स्टार और देसीमार्टिनी डॉट काम के शशांक शेखर ने 5 में से 4.5 स्टार दिये हैं और अलग-अलग बिन्दुओं पर फिल्म की तारीफ करने के साथ-साथ कुछेक बातों पर अपनी तीखी प्रतिक्रिया भी दी है।
दरअसल, मुख्यधारा से जुड़े कुछेक फिल्म समीक्षकों द्वारा यह प्रचारित किया गया था कि यह एक प्रोपेगेंडा फिल्म है और फिल्म का बायकाट किया गया था। लेकिन रीढ़ वाले लोग हर दौर में होते हैं। इस संबंध में डेलीओ डॉट इन में 16 अप्रैल, 2019 को लिखे अपने एक लेख में प्रसिद्ध लेखक गौतम चिंतामणि (डार्क स्टार: दि लोनलीनेस ऑफ बीइंग राजेश खन्ना के लेखक) ने बायकाट करने वालों की जमकर खिंचाई की थी। उन्होंने ऐसे लोगों को आड़े हाथों लेते हुए एवं नसीहत देते हुए लिखा था कि किसी फिल्म की समीक्षा न करने के लिए सिरे से नकार देना और इसका कोई जायज कारण न होना, का मतलब है कि आप अपने काम को ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं। यह कहना कि फिल्म उनकी समीक्षा के लायक नहीं है, किसी समीक्षक की निजी राय हो सकती है और ऐसा करने का सबको हक है। लेकिन एक नौकरी में रहते हुए तकनीकी रूप से ऐसा करना बिलकुल अलग चीज है। उन्होंने आगे लिखा था कि निर्माण की दृष्टि से यह दोयम दर्जे की फिल्म नहीं है। इसमें नसीरूद्दीन शाह और मिथुन चक्रवर्ती जैसे प्रतिभाशाली कलाकार हैं और पंकज त्रिपाठी तथा राजेश शर्मा जैसे प्रतिभाशाली कलाकारों की भी अहम भूमिकाएं हैं। फिल्म बड़े पैमाने पर रिलीज की गयी है। ऐसे में फिल्म का रिव्यू करने से बायकाट करना बेमानी है।
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हैरत होगी ये जानकर कि बावजूद इसके फिल्म सुपरहिट हो गयी थी। फिल्म ने कुल जमा 16.75 करोड़ रुपये बटोरे और सुपरहिट रही, जबकि फिल्म को पहले दिन 50 लाख रुपये बटोरने में भी मशक्कत करनी पड़ी थी और पहले वीकेंड में फिल्म 2.20 करोड़ रुपये तथा पहले हफ्ते में केवल 3.50 करोड़ रुपये ही बटोर पायी थी। लेकिन अपने बेहद कसे हुए बजट के चलते यह फिल्म 16 करोड़ रुपये बटोरकर भी सुपरहिट कहलाई थी। लेकिन विवेक को इस फिल्म के लिए सुपरहिट का तमगा किसी प्लेट में सजाकर नहीं दिया गया था। कह सकते हैं कि यह उन्होंने अपने बल पर अर्जित किया था। इस फिल्म को साल 2021 में सर्वश्रेष्ठ सहयोगी अभिनेत्री (पल्लवी जोशी) और सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखन (विवेक अग्निहोत्री) का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। हालांकि इसमें समीक्षक बिरादरी के कुछेक पत्रकारों का भी योगदान रहा, जिन्होंने फिल्म और विवेक के जज्बे एवं उद्देश्य की सराहना करते हुए इस बात पर जोर दिया था की कम से कम इस फिल्म के बहाने देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की विदेश में हुई रहस्यमयी मृत्यु के कारणों पर से पर्दा तो हटाया जाए या कम से कम बात तो की जाए।
बुद्धिजीवी आतंकवाद पर पहला प्रहार
दरअसल, द ताशकंद फाइल्स को लेकर भी लगभग वैसा ही रवैया देखा गया था, जैसा कि अब द कश्मीर फाइल्स को लेकर कई समीक्षाओं में देखा गया है। उसे भी प्रौपगैंडा फिल्म बताया गया था। लेकिन द कश्मीर फाइल्स के संदर्भ में इस बार किसी की दादागिरी नहीं चली। केवल फिल्म की चली, जो अब रोजाना के हिसाब से नए-नए कीर्तीमान स्थापित कर रही है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को अपने संबोधन में द कश्मीर फाइल्स की जिक्र करना पड़े। ये कहते हुए कि लोगों तक सच्चाई पहुंचने से रोकने की कोशिशें पहले भी हुई हैं और इस बार भी, लेकिन इस बार मंसूबे कामयाब नहीं हुए। असल बात यह है कि प्रोपगैंडा शब्द विवेक के लिए कोई नया नहीं है। बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम (2014) के समय से वह इसका सामना कर रहे हैं और करारा जवाब भी देते रहे हैं। इसे और गहराई से जानने के लिए हमें एक दशक से ज्यादा पीछे जाना होगा।
विवेक रंजन अग्निहोत्री ने अपने फिल्म करियर की शुरूआत साल 2004 में अनिल कपूर, सुनील शेट्टी, इरफान खान, इमरान हाशमी, अरशद वारसी और तनुश्री दत्ता आदि सितारों से सजी एक थ्रिलर फिल्म चॉकलेट से की थी, जो मोटे तौर पर हॉलीवुड फिल्म द यूजअल सस्पेक्ट (1995) का रूपांतरण थी। फिल्म को मिली-जुली प्रतिक्रया मिली। इसके बाद आने वाले करीब 10-11 वर्षों में उन्होंने धन धना धन गोल, हेट स्टोरी, जिद और जुनूनियत जैसी अलग-अलग कलेवर की बॉलीवुड मार्का फिल्में निर्देशित की, लेकिन साल 2016 में आयी उनकी फिल्म बुद्धा इन ए ट्रैफिक जाम से मानो सब बदल सा गया। ऐसा कह सकते हैं कि आज जो द कश्मीर फाइल्स हमारे सामने आ पायी है, उसकी नींव इस फिल्म से पड़ने लगी थी। दरअसल, विवेक ने इस फिल्म के जरिये उस खास फ्रेम में कदम रखा, जहां या तो ज्यादातर फिल्मकार जाने से कतराते रहे या उस दायरे की रक्षा करते रहे। फिल्म में दिखाया गया था कि कैसे बुद्धिजीवी वर्ग के कुछ लोग जिसमें शिक्षक, साहित्यकार तथा कलाकार इत्यादि शामिल हैं, कुछ नामचीन शिक्षण संस्थानों या अन्य संगठनों के माध्यम से छात्रों को भ्रमित कर अपना मोहरा बना रहे हैं और अपने एजेंडा तथा गंदी मानसिकता उन पर थोप रहे हैं। देश के लिए इसे एक बड़ा खतरा बताते हुए विवेक ने अपनी फिल्म में दर्शाया था कि कैसे देश को विचारधारा के स्तर पर दो हिस्सों में बांटा जा रहा है। यह फिल्म पूंजीवाद और साम्यवाद की कलऊ खोलने का काम करती है। लेकिन इस फिल्म के साथ भी वही करने की कोशिश की गयी जो आज की जा रही है।
विवेक अपनी टीम के साथ इस फिल्म की स्क्रीनिंग जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय ने करना चाहते थे, लेकिन बताया जाता है कि वामपंथी छात्रों एवं शिक्षकों के दबाव में आकर डीन द्वारा स्क्रीनिंग की इजाजत नहीं दी गयी। हालांकि बाद में इजाजत दे दी गयी। देश के कई प्रसिद्ध कॉलेजो और विश्वविद्यालयों में इस फिल्म की स्क्रीनिंग के कार्यक्रम विवादों में रहे। कहीं जमकर विरोध हुआ कहीं शोज को बाधित करने की कोशिश की गयी। लेकिन इन तमाम कोशिशों को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) के प्रयासों से असफल बनाने में मदद मिली और विवेक अधिकांश मंचों पर अपनी बात खुलकर रख पाये। ये भी कहना गलत न होगा कि अग्हिोत्री ऐसे पहले निर्देशक रहे जो फिल्मों एवं अपनी किताबों के जरिये बुद्धिजीवी आतंकवाद पर मुखर होकर बात करने की पहल करने के लिए जाने जाएंगे। बेशक, इसी के चलते वह पहले द ताशकंद फाइल्स और अब द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों का निर्माण कर पाने में सफल रहे हैं। लेकिन विवेक की इस सफलता को फिल्म समीक्षक साल 2014 से लेकर आज तक नकारते रहे हैं।
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