भारत में एक तरफ बाघों के संरक्षण की बाते हो रही हैं दूसरी और बाघों के बाघों से और अन्य जीवों के संघर्ष में मौतें बढ़ रही हैं। पिछले 17 सालों में 579 बाघों की मौत आपसी संघर्ष में हुई है। बाघों के संरक्षण के प्रयास अपनी जगह है, लेकिन बाघों के आपसी संघर्ष को रोक पाना मुश्किल हो रहा है। बाघों में आपसी लड़ाई के मुख्य कारण "टेरेटरी" है। बाघों के अपने-अपने इलाके होते हैं और जवान बाघ बूढे बाघ को जब अपने इलाके से खदेड़ता है तो संघर्ष होता है। जंगल में हाथी और बाघ में भी कई बार संघर्ष होता देखा गया है। तेंदुए में भी आपसी संघर्ष देखा गया है। तेंदुए पहाड़ी क्षेत्रों में ज्यादा पाए जाते हैं, जहां उनके भोजन की उपलब्धता यदि कम होती है तो तेंदुए आपस मे लड़ते हैं और एक न एक इसमे मरता है या इलाका छोड़ कर चला जाता है।
सेंटर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसआई) की रिपोर्ट में जानकारी दी गयी है कि 2005 में 46 बाघ ,वन्यजीव संघर्ष में मारे गए, जबकि इसी साल 201 तेंदुए मारे गए और ऐसा करीब-करीब हर साल हो रहा है। 2019 में 38 बाघ और 133 तेंदुए मारे गए, जबकि 2020 में 31 बाघ और 170 तेन्दुओं की मौत हुई। रिपोर्ट में बताया गया है कि 50 बाघ और 173 तेन्दुओ की मौत जंगल में आपसी युद्ध के परिणाम स्वरूप हुई।
बाघों के इलाके में यदि तेंदुआ आ जाता है तो बाघ उसे नहीं छोड़ते, इसलिए इनके भी इलाके अलग-अलग है। कई बार हाथी और बाघ में भी टकराव देखा गया है। बाघों की उम्र जंगल में ज्यादा से ज्यादा 12 साल होती है, यहां 5 से 7 साल का बाघ अपने-अपने इलाके में राज करता है और बूढ़े बाघ को वहां से खदेड़ देता है। कई बार जंगल मे बूढ़े बाघों में भी संघर्ष होता है और इसकी बड़ी वजह शिकार होती है, जिसे वो आपस मे साझा नहीं करते। पिछले 17 सालों में बाघों की तुलना तेंदुए ज्यादा मारे गए, रिपोर्ट के अनुसार इन सालों में 2369 तेंदुए वन्य जीव संघर्ष का शिकार हुए।
उत्तराखंड के वाइल्ड लाइफ चीफ वॉर्डन डॉ पराग मधुकर धकाते बताते हैं कि वन्यजीव संघर्ष एक प्राकृतिक और स्वाभाविक प्रकिया है। इसे रोका नहीं जा सकता। कई बार वन विभाग कर्मियों ने धमाके करके भी इन जानवरों को भगाया भी है, लेकिन ये फिर लड़ जाते हैं। जंगल में वर्चस्व की लड़ाई होती है जो ताकतवर होता वही वहां टिकता है। कमजोर को इलाका छोड़ना पड़ता है। कई बार इनमें संघर्ष इतना घातक होता है कि एक को नहीं दोनों को जान गवानी पड़ती है।
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