पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से पहली नजर में दो निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं। पहला यह कि भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं रही होगी। साथ ही कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों में मिली असाधारण सफलता इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित करेगी। उत्तर प्रदेश के परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का न तो कोई बड़ा दावा था और न किसी ने उससे बड़े प्रदर्शन की अपेक्षा ही नहीं की थी। अलबत्ता पंजाब में आम आदमी पार्टी की सफलता के राष्ट्रीय राजनीति से जुड़े निहितार्थ हैं। एक सवाल कांग्रेस के भविष्य का है। उसके शासित राज्यों की सूची में एक राज्य और कम हुआ, शायद हमेशा के लिए।
उत्तर प्रदेश की सफलता
हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की अकेली सफलता इन सब पर भारी है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण इस राज्य का महत्व है। माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। इसी वजह से भारतीय जनता पार्टी के विरोधी राजनीतिक दलों ने इस बार भाजपा को इस राज्य में हराने के लिए कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, भाजपा की सफलता है।
इन परिणामों के पीछे के राजनीतिक संदेशों को पढ़ने के लिए मतदान के रुझान, वोट प्रतिशत और अलग-अलग चुनाव-क्षेत्रों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश को लेकर, जहां जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जुड़े कुछ जटिल सवालों का जवाब इस चुनाव में मिला है। इसके लिए हमें चुनाव के बाद विश्लेषणों के लिए समय देना होगा। चूंकि कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन करने और वीवीपैट के साथ अनिवार्य मिलान करने के लिए अब मतगणना में समय ज्यादा लगता है, इसलिए इन पंक्तियों के लिखने तक पूरे परिणाम आए नहीं थे। अलबत्ता स्थितियां एकदम स्पष्ट हैं, जिनमें ज्यादा बदलाव की गुंजाइश नहीं है।
उत्तर प्रदेश का चुनाव भारतीय जनता पार्टी के लिए ही नहीं, विरोधी दलों की राजनीति के लिए भी प्रतिष्ठा का कितना बड़ा प्रश्न बना हुआ है, यह समझने के लिए आपको न्यूयॉर्क टाइम्स, वॉशिंगटन पोस्ट और गार्डियन जैसे विदेशी अखबारों और अमेरिकी विश्वविद्यालयों से जुड़े प्राध्यापकों की टिप्पणियां पढ़नी होंगी। भारत की आंतरिक राजनीति से विदेशी मीडिया का इतना गहरा जुड़ाव पिछले कुछ वर्षों से देखने को मिल रहा है। इसकी एक झलक पिछले वर्ष कोरोना की दूसरी लहर के दौरान देखने को मिली थी, जब भारतीय श्मशान घाटों पर विदेशी एजेंसियों के फोटोग्राफरों की कतारें लग गई थी, क्योंकि उनकी ऊंची कीमत के साथ-साथ पुलित्जर जैसे पुरस्कार मिलने का लोभ भी जुड़ा था।
इन बातों की भारत में प्रतिक्रिया होती है, जो इन चुनावों में देखने को मिली। बहरहाल महामारी की तीन लहरों, शाहीन बाग की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद मतदाता ने योगी आदित्यनाथ सरकार को फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला किया है, जिसे पार्टी की बड़ी सफलता के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए। यह सफलता इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि समाजवादी पार्टी के नेतृत्व में भाजपा-विरोधी शक्तियां पूरी शिद्दत से एकताबद्ध थीं। पश्चिमी बंगाल की सफलता का जोश उनके मन में था।
आक्रामक सपा
उत्तर प्रदेश में भाजपा-विरोधी ताकतें गठबंधनों के प्रयोग करती रही हैं, जिनमें उन्हें सफलता नहीं मिली है। सन् 2015 में बिहार के महागठबंधन प्रयोग से प्रेरित होकर 2017 के चुनाव में सपा और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा। पर यह गठबंधन चला नहीं और भाजपा और उसके सहयोगी दलों को कुल 403 में से 325 सीटें मिली थीं। अकेले भाजपा की 312 सीटें थीं। उसके दो सहयोगी दलों यानी अपना दल (सोनेलाल) को 9 सीटों और भारतीय सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी को 4 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार के चुनाव में भारतीय सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी सपा के साथ थी।
2017 में सपा और कांग्रेस के गठबंधन को 54 सीटों पर संतोष करना पड़ा था, इसमें सपा को 47 और कांग्रेस को 7 सीटें मिली थीं। इसके बाद 2019 में सपा-बसपा गठबंधन विफल हुआ था। इस बार केवल सपा को पुष्ट करने की रणनीति बनाई गई थी। महीनों पहले से धारणा बनाई गई कि इस बार अखिलेश की सरकार बनने वाली है। मोटा अनुमान था कि मुस्लिम वोट एकमुश्त सपा के साथ आएगा। काफी हद तक ऐसा हुआ भी है। पहली बार सपा को राज्य में 32 प्रतिशत वोट मिले हैं। कांग्रेस और बसपा के वोट में भारी गिरावट आई है। फिर भी सपा गठबंधन सवा सौ सीटों के आसपास ही रुक गया। यह तब हुआ है, जब अखिलेश यादव बार-बार कह रहे थे कि हम 300 से ज्यादा सीटें जीतेंगे।
सपा-गठबंधन के पुष्ट होने की वजह से भाजपा को मिली सीटों की संख्या में 2017 की तुलना में करीब 50 की कमी आई है, बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 में जो वोट प्रतिशत 39.67 था, वह इस बार 42 के ऊपर है। सपा का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है, जो 2017 में 21.82 प्रतिशत था और अब 31.5 प्रतिशत है, पर वह वोट उसने कांग्रेस और बसपा से छीना है। सपा गठबंधन को अतीत में इतना वोट प्रतिशत कभी नहीं मिला था। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 2.57 प्रतिशत रहा है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। राज्य में कांग्रेस का लगातार क्षय हो रहा है। बसपा का वोट प्रतिशत इस समय करीब 13 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था। राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत इस समय 3.36 प्रतिशत है, जो 2017 में 1.78 प्रतिशत था। इसका मतलब है कि ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।
‘आआपा’ के अंतर्विरोध
पंजाब में कांग्रेस का सूपड़ा साफ होना इस चुनाव का दूसरा बड़ा परिणाम है। चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस पार्टी के भीतर मचे आपसी संग्राम और उसके पहले पार्टी हाईकमान के फैसलों से इस बात का अंदेशा हो चला था कि राज्य में बदलाव होगा। कांग्रेस के साथ-साथ राज्य में शिरोमणि अकाली दल की छवि पहले से खराब है। ऐसे में पैदा हुए शून्य का लाभ आम आदमी पार्टी को मिला।
एक्जिट पोल में जब पंजाब में आम आदमी पार्टी को 90 से 100 सीटें मिलने का दावा किया गया, तब लोगों को अनायास विश्वास नहीं हुआ था। पर कांग्रेस पार्टी के राजनीतिक प्रहसन ने पंजाब के वोटर को एक आत्यंतिक फैसला करने को मजबूर कर दिया। हाईकमान ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया और नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष। विपरीत दिशा में दौड़ने वाले घोड़ों ने पार्टी की दुर्दशा कर दी। अब पार्टी असमंजस में है, जिसे इस चुनाव में पंजाब के साथ उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर की पराजय ने और ज्यादा बढ़ा दिया है।
2017 के चुनाव में कांग्रेस को 77 सीटों पर विजय प्राप्त हुई थी। तब उसे 38.5 प्रतिशत वोट मिले थे।
इस बार सीटें तो कम हुईं, कांग्रेस का वोट प्रतिशत भी गिरकर 23 के आसपास आ गया है। 2017 में पहली बार उतरी आम आदमी पार्टी 20 सीटें जीतकर राज्य की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। तब उसे 23.7 प्रतिशत वोट मिले थे, जो शिरोमणि अकाली दल के 25.2 प्रतिशत से कम जरूर थे, पर उसकी 15 सीटों से उसे पाँच सीटें ज्यादा मिली थीं। इस बार के चुनाव में आम आदमी पार्टी को 42 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं। वोट प्रतिशत में करीब 20 प्रतिशत की वृद्धि ने चमत्कारिक परिणाम दिए हैं।
पिछले साल किसान आंदोलन के दौरान भी पार्टी ने अपने लिए जगह बनाई है। चूंकि यह पार्टी इसके पहले लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों में सफलताएं प्राप्त करती रही है, ऐसे में वोटर ने उसे विकल्प के रूप में देखा है। क्या यह विकल्प स्थायी होगा? चिंता का एक और विषय है। किसान आंदोलन की आड़ में देश-विरोधी ताकतों ने भी पंजाब में सिर उठाया है। इसे हमने पिछले साल 26 जनवरी को लालकिले पर हुए हमले के दौरान देखा था। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल का अराजक व्यवहार भी चिंता का विषय रहा है।
दिल्ली केंद्र-शासित क्षेत्र है, पूर्ण राज्य नहीं। पंजाब पहला पूर्ण राज्य है, जहां इस पार्टी को शासन करने का मौका मिलेगा। पाकिस्तान और कश्मीर से जुड़े होने के कारण इस राज्य की स्थिति राष्ट्रीय-सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। अरविंद केजरीवाल की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं उन्हें अब उस सम्भावित राष्ट्रीय महागठबंधन की दिशा में ले जाएंगी, जहां उन्हें प्रवेश मिल नहीं पा रहा था। कांग्रेस पार्टी उन्हें अपने साथ नहीं ले रही थी, पर अब ममता बनर्जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की सम्भावनाएं बन रही हैं। केजरीवाल ने ममता के साथ अपने तार जोड़ रखे हैं।
उत्तराखंड की सफलता
उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी ने लगातार दूसरी बार विजय हासिल करके बड़ी सफलता प्राप्त की है। इस चुनाव में मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की हार के संदेश को पढ़ने की जरूरत भी है। हाल के वर्षों में उत्तराखंड में कुछ महीनों के अंतराल में तीन बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े। इस नव-सृजित राज्य में प्रशासनिक-व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त और भ्रष्टाचार रहित बनाने की जरूरत है। यहां दो पार्टियों के बीच सीधा मुकाबला होता है, इसलिए एक-दो प्रतिशत वोटों का असर होता है।
2017 में भाजपा को यहां कुल 70 सीटों में 57 सीटें मिली थीं। इसके बाद दूसरे नंबर की पार्टी कांग्रेस रही जिसे 11 सीटें मिली थीं। अन्य को दो सीटें मिली थीं। 2017 में भाजपा को 46.5 प्रतिशत वोट मिले थे, जो इस बार गिरकर 44 प्रतिशत के आसपास आ गए हैं और कांग्रेस का वोट प्रतिशत पिछली बार के 33.5 प्रतिशत से पांच प्रतिशत बढ़कर करीब 39 प्रतिशत हो गया है। इस कम होते अंतर से समझा जा सकता है कि पार्टी को संगठन के स्तर पर कितना काम करना है।
गोवा में निर्णायक जनादेश
भारतीय जनता पार्टी के लिए गोवा की सफलता इस लिहाज से महत्वपूर्ण है कि वोटर ने निर्णायक जनादेश दिया है या कम से कम कांग्रेस से भारतीय जनता पार्टी की दूरी इतनी बड़ी रखी है कि सरकार आसानी से बन सके। एक्जिट वोट में त्रिशंकु विधानसभा की भविष्यवाणी की गई थी। इसकी वजह से राजनीतिक गतिविधियां तेज हो गई थीं। कांग्रेस पार्टी ने अपने विधायकों को बाकायदा रिसॉर्ट में भिजवाने का इंतजाम कर लिया था।
2017 में गोवा में कांग्रेस को कुल 40 सीटों में 17 सीटें मिली थीं। इसके बाद दूसरे नंबर की पार्टी भाजपा थी, जिसे 13 सीटें मिली थीं। बावजूद इसके वहां भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी और पांच साल चली। कांग्रेस ने गोवा में लंबे समय तक शासन किया है, लेकिन पार्टी का संगठन लचर स्थिति में है। इसी वजह से वह 2017 में सरकार बनाने में असमर्थ रही। गोवा में आम आदमी पार्टी भी प्रवेश करने की कोशिश कर रही है और इस बार उसे दो सीटों पर सफलता भी मिली है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने भी यहां से प्रत्याशी खड़े किए थे, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। भाजपा को 2017 में यहां 32.5 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि इसबार 33.5 प्रतिशत के आसपास मिले हैं। इसके विपरीत कांग्रेस पार्टी को पिछली बार मिले 28.3 प्रतिशत वोटों के मुकाबले इसबार 23.3 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो उसके पराभव की कहानी कहते हैं।
मणिपुर का महत्व
आमतौर पर मणिपुर की राजनीति राष्ट्रीय विमर्श का विषय नहीं बनती है, पर पूर्वोत्तर के राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की राजनीतिक सफलता उसके राष्ट्रीय विस्तार का महत्वपूर्ण पड़ाव है। असम, अरुणाचल, त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड और मणिपुर में पार्टी सत्ता में है। मणिपुर में पार्टी पहली बार अपने भरोसे सरकार बनाएगी। इस राज्य में भाजपा की राजनीति 2014 के बाद ही शुरू हुई है। 2017 के चुनाव के पहले 2016 में एन. बीरेन सिंह कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए और उसके बाद पार्टी की ताकत बढ़ती गई। 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व में चुनाव में उतरी और कुल 60 में से 21 सीटें जीतीं। हालांकि कांग्रेस को उससे ज्यादा 28 सीटें मिलीं, पर भाजपा ने नेशनल पीपुल्स पार्टी और नगा पीपुल्स फ्रंट के साथ समझौता करके सरकार बनाई।
राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव
वर्ष के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव होंगे। एक तरह से 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले राजनीतिक दृष्टि से यह सबसे महत्वपूर्ण वर्ष है। उत्तर प्रदेश का चुनाव केंद्र सरकार के लिए मध्यावधि जनादेश की भूमिका निभाता है। ये परिणाम विरोधी दलों के उस महागठबंधन की जरूरत को एकबार फिर से रेखांकित कर रहे हैं, जो तमाम कोशिशों के बावजूद बन नहीं पा रहा है।
2015 में बिहार के विधानसभा चुनाव में इसकी कोशिश हुई, जिसे सफलता मिली, पर वह गठबंधन 2017 में टूट गया। उसके बाद कर्नाटक और महाराष्ट्र में गैर-भाजपा सरकारें बनीं, जिनमें कर्नाटक की सरकार सफल नहीं हुई, पर महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी और शिवसेना गठबंधन की सरकार चल रही है। पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल चुनाव में सफलता पाने के बाद से ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस ने राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन बनाने की कोशिश की है। यह प्रयास कितनी दूर तक जाएगा, कहना मुश्किल है, क्योंकि कांग्रेस के साथ उसके अंतर्विरोध बढ़ रहे हैं। पंजाब में सफलता के बाद आम आदमी पार्टी भी इस गठबंधन की सदस्यता पाने की दावेदार हो गई है। उसकी सफलता कांग्रेस के क्रमश: होते क्षय को रेखांकित कर रही है।
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