पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के परिणामों में भविष्य की राजनीति के सूत्र छिपे हैं। उत्तर प्रदेश जनसंख्या के लिहाज से दुनिया के पांचवें सबसे बड़े देश के बराबर है। यहां स्वतंत्रता के बाद से 1957 में डॉ. संपूर्णानंद को छोड़कर किसी मुख्यमंत्री को दुबारा सरकार बनाने का जनादेश नहीं मिला। वर्ष 1984 के बाद कोई सरकार भी दुबारा नहीं आई है। ऐसे में योगी आदित्यनाथ और भाजपा सरकार फिर से आ रही है।
तो क्या उत्तर प्रदेश में राजनीति की धुरी सदा के लिए बदल रही है? इतने बड़े राज्य का यह परिणाम क्या कहता है? यह विश्लेषण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उत्तर प्रदेश को कुनबे की बपौती और जाति के खांचे से परे कभी नहीं देखा गया। विकासपरक राजनीति यहां कभी कुछ कर सकती है, ऐसा कभी राजनीतिक विश्लेषक सोच नहीं पाए। यह चमत्कार आज उत्तर प्रदेश में होता दिख रहा है।
गौर कीजिए कि यूपी से लेकर बिहार तक एक एमवाई (मुस्लिम+यादव) फैक्टर का राग अलापा जाता था। सारे आकलन उसी आधार पर होते थे। अब इसके बरक्स एक नया एमवाई (मोदी+योगी) फैक्टर आ गया है। वह जातियों का था, लेकिन नामाधारित होने पर भी यह व्यक्तियों पर नहीं, विकास के मुद्दों पर तालमेल का नाम है। भाजपा इसे डबल इंजन सरकार कहती है। डबल इंजन की यह रेलगाड़ी जाति पर नहीं, विकास की पटरी पर ही दौड़ रही है।
एक और चीज इसमें रेखांकित करने वाली यह है कि अब सुशासन अपने -आप में एक मुद्दा है, लहर है। लोकसभा के बाद विधानसभा में मत प्रतिशत की उछाल यह साफ करती है। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में कांग्रेस ने 50 प्रतिशत का आंकड़ा छुआ था। इस आंकड़े को छूना हालांकि लोकसभा में भी सरल नहीं होता। और, अगर 40 प्रतिशत से ऊपर की छलांग विधानसभा चुनाव में है तो इसका मतलब सुशासन अपने -आप में एक लहर बन गया है।
कुछ लोगों ने निहित कारणों से यूपी मॉडल को सांप्रदायिक मॉडल के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की परंतु नतीजे बताते हैं कि केवल राम मंदिर पर निशाना साधने वाले और भाजपा को वहीं तक सीमित करने वाले जनता के मन में छिपी रामराज्य की आकांक्षा को समझ नहीं पाए। यह रामराज्य की दिशा में, सुशासन पर, जनता की मुहर है। आवारा पशुओं की समस्या यूपी में थी, भाजपा भी इस पर चिंतित दिखी और निदान का वादा भी किया परंतु जनता ने बताया कि छुट्टे जानवरों से ज्यादा खतरनाक हैं छुट्टे बदमाश, जिनकी छुट्टी योगी शासन में हुई है।
राजनीतिक पंडित अपने आकलन में महिलाओं के मुद्दे शामिल नहीं करते। महिलाओं के लिए राम भी हैं, राशन भी है, शासन भी है। महिलाओं के मुद्दे सिर चढ़ कर बोल रहे हैं। इज्जत घर महिलाओं का सम्मान लौटाने का काम करता दिखा है।
पंजाब में नया प्रयोग
पंजाब की जनता प्रयोग करने में विश्वास रखती है और ऐसा हरित क्रांति के समय से देखा जा रहा है । प्रयोग की यह परम्परा वहां के लोग अभी तक निभाते चले आ रहे हैं। पंजाब की लहर बता रही है कि भारतीय राजनीति में एक नया प्रयोग पैर पसार रहा है। यह आम आदमी पार्टी की राजनीति है जिसकी उलटबांसियों ने दिग्गज राजनीतिक दलों को भी सोचने पर मजबूर कर दिया है। राजनीति का यह नया प्रयोग उच्च आदर्शों की बात करने और अतिशय लोकलुभावन तरीके से सबसे बड़े वर्गों को अपने साथ जोड़ने पर केंद्रित है। मुफ्त की सौगातों से रिझाती यह राजनीति वामपंथ का एक नया परिष्कृत रूप है। इसे समझने में चूक नहीं करनी चाहिए।
एक सीमावर्ती राज्य, जो लंबे समय तक अशांत रहा है और जिसके भीतर आक्रोश भड़काने की कोशिशें आज भी जारी हैं, वहां नव वामपंथ का यह प्रसार किस करवट बैठेगा और इसके क्या परिणाम होंगे, यह देखने वाला होगा। पंजाब में वामपंथी दलों का इतिहास रहा है, यह तथ्य है। खालिस्तानी तत्वों के बारे में कांग्रेस के निवर्तमान मुख्यमंत्री खुलकर नहीं बोले परंतु उन्होंने खुद प्रधानमंत्री से अरविंद केजरीवाल के खालिस्तानी संपर्कों की जांच करने का आग्रह किया, कभी केजरीवाल के विश्वस्त रहे कुमार विश्वास ने उनकी कथित मंशाओं को उजागर कर पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया, ये तथ्य भी बुहारे नहीं जा सकते। पंजाब में कांग्रेस तथा अकाली दल की जमीन खिसक गई है। भाजपा के पास यहाँ खोने के लिए कुछ नहीं था। नहीं भूलना चाहिए कि एकदम प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संगठन विस्तार का काम पंजाब भाजपा ने किया है। नई जमीन पर छोटा खिलाड़ी होने के बाद भी गठबंधन में अगली सीट पर रहकर भाजपा ने सीमांत राज्य में संकोची भूमिका छोड़ने के संकेत दे दिए हैं।
ईसाई बहुल गोवा में भाजपा की स्वीकार्यता
गोवा के संदर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि जनमानस में भाजपा की पर्याप्त स्वीकार्यता है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि गोवा ईसाई बहुल राज्य है और चर्च भाजपा से नाराज दिखाई देता है। हालांकि इस विधानसभा चुनाव में आधी सीटें ऐसी थीं, जहां पहले भाजपा में रह चुके उम्मीदवार कांग्रेस के टिकट पर ताल ठोक रहे थे। यहां टीएमसी और आआपा के लड़ने से वोट बंटेंगे, कितना बंटेगे, इस पर कयासबाजी थी। हालांकि शिवसेना और एनसीपी वोट काटने का यह खेल पहले भी खेल चुकी हैं। अभी यह दांव और आजमाया जाएगा।
गोवा के बारे में एक तथ्य यह भी है कि वर्तमान चुनावी राज्यों में सीटों की संख्या के हिसाब से गोवा की विधानसभा सबसे छोटी कही जा सकती है। यहां विधानसभा क्षेत्र बहुत छोटे हैं और आकार के हिसाब से 100 से 500 मतों से हार-जीत होती है।
यहां 2012 के बाद से वोटों का बिखराव रुका है और अपने कद्दावर चेहरे एवं गोवा के गौरव के प्रतीक मनोहर पार्रिकर के न रहने के बावजूद अगर भाजपा ने यह बढ़त, ऊंचाई हासिल की है तो इसके अलग अर्थ हैं। भाजपा ने इस बार 40 सदस्यीय विधानसभा में 20 सीटें जीतकर बहुमत की दहलीज पर कदम रख दिया है जो पिछले विधानसभा चुनाव में मिलीं 13 सीटों से सुधार को दर्शाता है। पिछली बार 17 सीटें जीतने वाली कांग्रेस को इस बार 11 सीटों से ही संतोष करना पड़ा है।
उत्तराखंड
उत्तराखंड इतिहास रच रहा है। पहाड़ी राज्य में यह बात बार-बार उठी थी कि यह संभावनाओं से भरा राज्य है, परंतु उस तरह का नेतृत्व नहीं मिला। इसलिए कुमाऊं और गढ़वाल बार-बार टकराते हैं और छिटक जाते हैं। हालांकि निवर्तमान मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने यह भ्रम तोड़ दिया है कि टूटते -बिखरते वोट बैंक और छत्रपों की अंतर्कलह से जूझते रहने वाले इस राज्य में एक दिशा में बढ़ने के लिए एकजुटता या संकल्प नहीं है।
यहां का सबसे बड़ा मुद्दा विकास और दूसरा, तराई क्षेत्रों में जनसंख्या असंतुलन पर चिंता है। उनकी बात से पूरे राज्य की प्रगति और उसकी सांस्कृतिक पहचान से एकजुटता दिखाई देती है।
ये पंक्तियां लिखे जाने तक उत्तराखंड की 70 सदस्यीय विधानसभा के लिए 8 सीटों के परिणाम घोषित हो चुके हैं। इसमें भाजपा को 47 सीटें और कांग्रेस को 18 सीटें मिली हैं। इसमें रुद्रप्रयाग, घनसाली और लालकुआं सीटें ऐसी थीं जहां कांग्रेस तथा भाजपा, दोनों दलों में बगावत थी। इन तीनों सीटों पर भाजपा को क्रमश: 9 हजार, 10 हजार और 17 हजार मतों के अंतर से जीत मिली है। इसे नमूने के तौर पर लें तो कहा जा सकता है कि भाजपा ने टूटन की भरपाई की जबकि कांग्रेस को यह अंतर्कलह ले डूबी।
गोवा के संदर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि जनमानस में भाजपा की पर्याप्त स्वीकार्यता है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि गोवा ईसाई बहुल राज्य है और चर्च भाजपा से नाराज दिखाई देता है। हालांकि इस विधानसभा चुनाव में आधी सीटें ऐसी थीं, जहां पहले भाजपा में रह चुके उम्मीदवार कांग्रेस के टिकट पर ताल ठोक रहे थे
दरअसल कांग्रेस ने अपने नेतृत्व पर ही भरोसा नहीं किया। जिसे नेता बनाया, जिसके नेतृत्व में मझधार पार करनी थी, उसके आसापस मगरमच्छ छोड़ दिए। (यह कथन मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस के चेहरे, खुद हरीश रावत का है, जो चुनाव हार गए हैं)।
अपने क्षत्रपों के साथ खेल करना कांग्रेस की रवायत है। पंजाब में देखें तो वहां भी आलाकमान ने पहले नवजोत सिंह सिद्धू की आकांक्षाओं को हवा दी, परंतु सिरमौर चन्नी को बनाया। ऐसा ही उत्तराखंड में हरीश रावत के साथ भी हुआ। कांग्रेस के नेतृत्व से पार्टी की खिन्नता का एक बड़ा कारण यह भी है।
मणिपुर में बदली राजनीति
मणिपुर में भाजपा की मजबूती को लेकर कोई आशंकित नहीं था। भाजपा ने यहां स्पष्ट बहुमत हासिल किया है। दरअसल भाजपा ने पूर्वोत्तर की राजनीति बदल दी है। वहां के लोग विकास की मुख्य धारा में इसलिए भी शामिल हुए हैं कि लगातार दहकते अराजकता के दावानल को भाजपा ने बहुत अच्छे से ठंडा किया है। करीब दस हजार उग्रवादियों की मुख्यधारा में वापसी हुई है। भाजपा ने ‘गो टू विलेज, गो टू हिल’ कार्यक्रम के जरिए पूर्वोत्तर के सुदूर इलाकों को जोड़ने का काम किया है। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह की पारदर्शी एवं भरोसेमंद छवि का भी इस जीत में योगदान है।
भारतीय राजनीति का इतिहास कांग्रेस के बिना पूरा नहीं हो सकता। लेकिन इन नतीजों में कांग्रेस कहां है? अगर कर्णधार ही पराजय के कारण बन जाएं तो पार्टी का भविष्य क्या होगा, इसे कांग्रेस की स्थिति को देखने के बाद समझा जा सकता है। यूपी में जिस तरह से प्रियंका को पेश किया गया, उनका जो प्रदर्शन रहा, राहुल के गर्म तेवरों पर लोगों की जितनी ठंडी प्रतिक्रिया रही, उसे कांग्रेस अब भी नहीं समझेगी तो यह तय है कि देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी अपने अंतर्निहित कारणों से अंत की ओर बढ़ रही है।
बहरहाल, पंजाब की राजनीति में कांग्रेस और उत्तर प्रदेश की राजनीति में बसपा, इन दोनों का पतन किस बिंदु तक होगा, इसे देश में आने वाले समय में आकार लेने वाली नई राजनीति का स्वरूप तय करेगा। वह अलगाववादी ताकतों को साथ में लेने वाली, तुष्टीकरण पर मौन, आस्थाओं पर आघात करने वाली और अपनी ही बात से पलट जाने वाली होगी या उसका एक सुविचारित विकास का एजेंडा होगा जहां जातिभेद से परे विकास के भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का स्पष्ट खाका खींचा जाएगा? भविष्य की राजनीति की दिशा राजनीति के इन दोनों मॉडलों से ही तय होगी।
@hiteshshankar
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