हिमालयन ग्राम विकास समिति गंगोलीहाट के द्वारा उत्तराखण्ड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केन्द्र देहरादून के सहयोग से जल स्रोतों के संवर्धन हेतु भू-जल के पुर्नभरण पर आयोजित कार्यशाला के दूसरे दिन जीबी पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पन्तनगर के सिविल इंजीनियरिंग के विभागध्यक्ष, प्रो. पीएस महर ने बताया कि पृथ्वी पर मौजूद जल का तीन प्रतिशत पानी ही पीने लायक है। उन्होंने भूजल के पुर्नभरण पर जानकारी देते हुए बताया कि हमें वर्ष जल के बहाव को रोकते हुए उसे जमीन के अन्दर रिसने का मौका देना होगा। इसके लिए आम जनमानस के साथ ही विभागों व सरकारों को ईमानदारी के साथ प्रयास करने होंगे और योजनाओं की सफलता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब हम लोगों की आवश्यकता और पंचायतों के द्वारा तय की गयी योजनाओं को स्वीकृति देकर उन्हें क्रियान्वित किया जाए।
प्रो. पीएस महर ने भू-जल संरक्षण के लिये किये जाने वाले कार्यों के अलावा पहाड़ों की चोटी में बसे गांवों की पेयजल समस्या के निदान के लिये वर्षा जल के स्टोरेज टैंकों के निर्माण पर भी जोर देने की बात कही। इस बात पर जोर दिया कि हमें अभियांत्रिकी कार्यों से ज्यादा ध्यान जंगलों के संरक्षण पर देना होगा क्योंकि वानस्पतिक उपचार से ही हम पानी की समस्या का स्थाई समाधान पा सकते हैं। और हमें चौड़ी पत्ती के प्रजाति के जंगलों के साथ-साथ अखरोठ, रीठे आदि के पौधे भी लगाने चाहिए, ताकि जल संरक्षण के साथ-साथ आर्थिक लाभ भी प्राप्त हो सके। उन्होंने उत्तराखण्ड विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान केन्द्र देहरादून का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि सूदूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को जागरुक करने हेतु वे कार्यशालाओं के आयोजन करने के लिये मदद कर रहे हैं, जो सराहनीय है।
कार्यशाला में सेवानिवृत प्रधानाचार्य भीम सिंह कोरंगा ने द्वारा धर्म शास्त्रों साहित्य में जल की महत्ता के उल्लेखों की जानकारी देते हुए कहा कि पानी का ही जीवन से पहला और गहरा संबंध है। कार्यक्रम में खण्ड विकास अधिकारी-आशा मेहता द्वारा प्रतिभागियों को मनरेगा योजना की जानकारी देते बताया कि जल संरक्षण के कार्यों को प्राथमिकता से किया जाता है। ग्रामवासी अपनी खुली बैठकों में विचार-विमर्ष कर योजनाओं के प्रस्ताव तैयार करें। उन्होंने कच्चे तालाबों में मछली पालन कर लोगों से अपनी आय को भी बढ़ाने की भी कही।
कार्यशाला में मुख्य रूप से यह सुझाव आये कि पहाड़ की चोटियों में जल संरक्षण के कार्यों के साथ ही उनकी पेयजल समस्या के समाधान के लिये वर्षा जल के टैंकों का निर्माण किया जाए। अधिकांश नालों में फरवरी माह तक पानी का बहाव रहता है। इन नालों के बहते जल को भी स्टोर करने लिये कम से कम एक लाख लीटर के स्टोरेज टैंक बनाये जाएं, जिससे मार्च से जून तक लोगों को पानी उपलब्ध होता रहेगा। कार्यशाला में यह बात प्रमुख रूप से आई कि गांवों की अधिकांश भूमि आरक्षित वनभूमि के क्षेत्र में आती है, जहां जल संरक्षण के कार्य करने की अत्यधिक सम्भावनायें हैं, परन्तु वनभूमि में चाल खाल निर्माण में वन विभाग द्वारा अनापत्ति नहीं दिये जाने के कारण कार्य नहीं हो पाते हैं। इस मामले पर राज्य सरकार को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।
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