दश्त से हुनक बलोच
बलूचिस्तान में कौमी आजादी चाहने वालों और कब्जागीर पाकिस्तानी फौज के बीच लड़ाई तो बहुत पुरानी है और इसमें कैलेंडर के पलटते पन्नों की तरह कभी बलूच लड़ाके हावी रहे तो कभी पाकिस्तानी फौज। कभी इधर से कुछ लोगों के मारे जाने की खबर तो कभी उधर से। जैसा आम तौर पर किसी भी वैसे इलाके में होता है, जहां आजादी की लड़ाई चल रही हो। लेकिन बलूचों की जद्दोजहद में 25 जनवरी, 2022 वह दिन है, जिसने बहुत कुछ बदल दिया है और यह हमेशा-हमेशा के लिए याद रखा जाने वाला है।
जिस वक्त मैं यह लिख रहा हूं, उस समय भी क्वेटा के फातिमा जिन्ना रोड पर पुलिस की एक गाड़ी के पास धमाके की खबर आ रही है, जिसमें फिदा हुसैन नाम का एक पुलिस अफसर मारा गया। कुछ दिन पहले होशाब में पाकिस्तानी फौज ने आजादी की जंग में हिस्सा लेने वाले 10 लोगों को शहीद कर दिया था। आईएसपीआर (इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशंस) ने बयान जारी कर अपने दामन को साफ बताने की गरज से कहा कि उन्होंने जब लड़ाकों के ठिकाने को घेर लिया तब उन पर (फौज) गोलियां चलाई गई, जिसके जवाब में फौज ने भी गोलियां चलाई और इसमें 10 लड़ाके शहीद हो गए। यह उनका तरीका है बोलने का, चीजों को पेश करने का, जो यह बतला सके कि एक देश के तौर पर पाकिस्तान जो कर रहा है, उसकी वाजिब वजह है। खैर, बलूचिस्तान में आजादी के लिए लड़ने वालों और पाकिस्तानी फौज, दोनों को समय-समय पर इस तरह की खबरें सुनने की आदत है। अंतर केवल इतना होता है कि जगह बदल जाती है, मरने वालों के नाम बदल जाते हैं, उनकी तादाद बदल जाती है। वे कभी जुल्म करने में दो कदम आगे निकल जाएं, तो कभी बलूच उन्हें सबक सिखाने में कुछ खास कर गुजरें।
लेकिन, इन सबके बीच एक ऐसा वाकया हुआ है, जिसे दूसरे तरीके से देखने की जरूरत है। वह है 25 जनवरी को दश्त के कहीर कौर सिबदान में फौज की चौकी पर हुआ हमला। सबसे पहले इसकी बात करें कि इसमें हुआ क्या? बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट (बीएलएफ) के लड़ाकों ने इस चौकी पर हमला किया और तब उनकी ओर से जो बयान आया, उसमें कहा गया कि हमले में 17 फौजी मारे गए और उनकी ओर से भी मुमताज बलोच नाम का एक नौजवान शहीद हो गया। इस दौरान बलूचों के हाथ ढेर सारे हथियार, गोला-बारूद और फौजी साज-ओ-सामान लगा। लेकिन मैंने यहां के लोगों से जो पता किया है, उसमें यह जानकारी मिली है कि 25 तारीख के बाद से रोजाना पाकिस्तानी फौज के हेलिकॉप्टर आ रहे हैं, पहाड़ों के बीच उतर रहे हैं और अपने लोगों को खोज रहे हैं।
17 नहीं, 27 मरे
आसपास के लोगों ने फौज के लोगों को यह कहते सुना है कि इस हमले में 27 लोग मारे गए हैं और चार अभी लापता हैं। लापता लोगों में एक कैप्टन भी है। सिबदान के हमले को एक माह हो रहा है और उसके बाद भी फौज को अपने चार लोगों का सुराग नहीं मिला है। इस वजह से उसने काफी हद तक यह मान लिया है कि बीएलएफ ने उन चारों को कैद कर रखा है। हालांकि बीएलएफ ने अब तक इसकी हामी नहीं भरी है। जो भी हो, एक माह से चार फौजियों का नहीं मिलना हैरत की बात तो है ही।
सिबदान एक छोटा-सा गांव है, जहां बलूचिस्तान के तमाम सुदूर इलाकों की तरह ही बहुत कम लोग रहते हैं। लेकिन इसके आसपास, बड़ी तादाद में फौज की मौजूदगी है। छोटे-छोटे फासले पर चौकियां हैं। पास में ही ईरान का बनाया हुआ डैम है, जहां 24 घंटे फौजियों की तैनाती है। इसके आसपास का शहर तुरबत है, जो यहां से करीब 60 किलोमीटर दूर है।
क्यों अहम है सिबदान आपरेशन?
सिबदान आॅपरेशन क्यों एक ऐतिहासिक कार्रवाई है, इसे समझना जरूरी है। बलूच स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस फौजी चौकी पर हमला किया, वह एक ऊंची पहाड़ी की चोटी पर थी और वहां तैनात फौजियों का काम नीचे की केंद्रीय छावनी की हिफाजत करना था। नीचे स्थित फौजी छावनी में किसी भी वक्त सौ से ज्यादा फौजी होते हैं और इसीलिए इनकी हिफाजत के लिए ऊपर पहाड़ी पर चौकी बनाई गई थी। इस पर हमला बोलना निहायत खतरनाक था। फौज से सेवानिवृत्त एक शख्स ने बताया, ‘‘इसमें शक नहीं कि पाकिस्तान की फौज एक बाकायदा प्रशिक्षित फौज है और किसी ऊंची पहाड़ी के शिखर पर काबिज फौज के खिलाफ नीचे से चढ़ाई करते हुए आपरेशन करना हो, तो हमलावर की तादाद आठ गुना होनी चाहिए। वह भी तब, जब हमला किसी फौज को करना हो।’’ इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक सीधी चढ़ाई वाली चोटी पर किया गया यह हमला कितना मुश्किल था।
सबसे पहले, बीएलएफ ने पाकिस्तानी फौज को यह बता दिया कि आप जिसे सबसे महफूज समझते हैं, हम वहां भी हमला करके आपको भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। फौज के लिए यह हमला उनके हौसले को तोड़ने वाला है। यह लंबे समय तक उनके दिलो-दिमाग पर हावी रहने वाला है। फौज के लिए यह हमला उसकी पूरी रणनीति को बदल देने वाला है। उस आॅपरेशन के बाद पाकिस्तान ने अपनी कई बड़ी फौजी छावनियों की सुरक्षा के लिए बनाई गई ऐसी चौकियों को हटाना शुरू कर दिया है। यहां पास ही ऐसी कई चौकियां थीं, जिन्हें पिछले एक माह के दौरान हटा दिया गया है।
पाकिस्तानी हुकूमत के लिए तो यह एक बड़ा धक्का है, क्योंकि इससे पाकिस्तान-चीन आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) को लेकर पहले से ही फिक्रमंद चीन के मन में कई तरह के सवाल उठेंगे। फिर दुनिया को यह संदेश भेजने की कोशिश की गई कि देखें, पाकिस्तान में क्या हो रहा है। उसने कैसे एक आजाद मुल्क पर जबरन कब्जा कर रखा है और वहां के लोग कैसे इसका जवाब दे रहे हैं। सबसे ज्यादा असर कौमी आजादी के लिए जद्दोजहद कर रहे बलूचों पर पड़ेगा। उन्हें इस बात का अहसास होगा कि वे मुश्किल से मुश्किल ठिकाने को तबाह कर सकते हैं।
बलूचिस्तान यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर सिबदान के आपरेशन को एक ऐसे वाकये के तौर पर देखते हैं जो आजादी की लड़ाई को पूरी तरह बदल सकता है और शायद यह ऐसे तमाम आपरेशन का एक लंबे समय तक चलने वाला सिलसिला शुरू कर दे। वे कहते हैं, ‘‘बलूचों की कौमी आजादी की जद्दोजहद में आॅपरेशन सिबदान को उन चंद सफलताओं में देखा जाएगा, जिनकी तारीखी अहमियत है। मुझे लगता है कि अगर बलूचों में आजादी के लिए लड़ने-मरने के जज्बे को एक नई ऊंचाई देने के लिहाज से बात करें तो इस आपरेशन को 2019 में ग्वादर के पर्ल कॉन्टिनेंटल होटल पर हुए हमले के बाद का सबसे बड़ा वाकया माना जाना चाहिए। बलूचों ने नामुमकिन को मुमकिन कर दिखाया।’’
चलते-चलते दश्त में मिले एक आम इनसान के हवाले से पूरे संघर्ष को समझने की कोशिश करते हैं। रोजाना हो रहे फौजी आपरेशन की बाबत कुछ जानकारी देने के बाद वह कहते हैं, ‘‘तमाम बलूचों ने तय कर लिया है कि वे अपनी जिंदगी को ऐसे ही बेकार नहीं जाने देंगे और कम से कम फौजी जुल्मों को सहते हुए तो आंखें बिल्कुल बंद नहीं करेंगे। ये जो सिबदान में हुआ है, उसी जज्बे का नतीजा है।’’ दरअसल, फौजी जुल्म ने बलूचों को ऐसे मुकाम पर पहुंचा दिया है, जहां उनकी आंखों से मौत का खौफ खत्म होता जा रहा है और किसी भी कब्जागीर की सबसे बड़ी ताकत यही दहशत होती है। जब वही खत्म हो जाए, तो कब्जा भी खत्म हो जाएगा।
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