जब तक झारखंड नहीं बना था, तब तक आए दिन आंदोलन हुआ करते थे। अब झारखंड बने 21 साल से अधिक का समय हो गया है। इसके बाद भी झारखंड में आंदोलनों का दौर थम नहीं रहा है। इन दिनों राज्य में भाषा आंदोलन के साथ—साथ 1932 के खतियान को लागू करने के लिए भी आंदोलन हो रहे हैं। इस खतियान को लागू करने का अर्थ है कि 1932 में जिन लोगों के नाम से जमीन हुआ करती थी, उनके ही वंशज असली झारखंडी हैं। यानी आंदोलनकारी चाहते हैं कि 90 वर्ष पुराने कागज के आधार पर यह तय किया जाए कि कौन झारखंडी है और कौन नहीं! इसी खतियान के आधार पर स्थानीय नीति और नियोजन नीति भी बनाने की मांग की जा रही है। अधिकतर लोग इसे बहुत ही अव्यावहारिक मांग मान रहे हैं।
जनजाति समाज से आने वाले समाजसेवी सनी टोप्पो कहते हैं, ''1932 के खतियान को लागू करने की मांग के पीछे बहुत बड़ा षड्यंत्र है। जो लोग इस तरह की मांग कर रहे हैं, क्या उन्हें यह पता नहीं है कि झारखंड में अभी भी अशिक्षा है। 90 वर्ष पहले तो इलाके भर में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिलता होगा, जो ठीक से हिंदी भी पढ़ सकता हो। इसके साथ ही 90 वर्ष के अंदर अनेक बार बाढ़ आई, जिसमें घर के घर बह गए। ऐसे में कोई कागज सुरक्षित कैसे रह सकता है! जनजाति समाज के अधिकतर लोगों के पास अपनी जमीन के कागजात नहीं हैं। इसलिए 1932 के खतियान की मांग करना बहुत ही घटिया सोच है। यह भी कह सकते हैं कि इसके माध्यम से कुछ लोग जनजातियों की जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं।''
ठीक ऐसी ही राय धनबाद के छात्र नेता राकेश कुमार सिंह की भी है। वे कहते हैं,''1932 के खतियान की मांग पूरी तरह राजनीतिक है। ये लोग जनजाति समाज का शोषण करने के लिए यह मांग कर रहे हैं।'' राकेश का यह भी कहना है कि 1932 के खतियान को पूरी तरह लागू करने से झारखंड में सैकड़ों वर्ष से रह रहे बंगाल, बिहार, ओडिशा आदि राज्यों के लोगों के सामने संकट पैदा होगा, क्योंकि ऐसे लोग जमीन खरीदकर बसे हैं। इनके पूर्वजों के नाम किसी भी खतियान में नहीं हैं। क्या इन्हें झाखंड से बाहर कर दिया जाएगा! ऐसा संभव नहीं है। राकेश का सुझाव है कि झारखंड के मूल लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए नियोजन नीति बनाई जा सकती है और उसमें यह प्रावधान किया जा सकता है कि केवल और केवल झारखंड के युवा ही राज्य सरकार की नौकरियों के लिए आवेदन कर सकते हैं।
भाजपा नेता और भवनाथपुर के विधायक भानु प्रताप शाही कहते हैं, ''पूरा झारखंड आज बेरोजगारी की मार झेल रहा है, लेकिन सरकार न तो नियोजन नीति बना पा रही है और न ही स्थानीय नीति स्पष्ट कर पा रही है। झारखंड सरकार को जल्दी से जल्दी स्थानीय नीति को निर्धारित कर नियोजन प्रक्रिया को पूर्ण करना चाहिए। ऐसे मामलों में देरी होने की वजह से झारखंड की जनता असमंजस की स्थिति में है।''
वहीं ऐसे लोगों की भी कोई कमी नहीं है, जो कहते हैं कि 1932 के खतियान की मांग राज्य सरकार के इशारे पर ही की जा रही है। गोड्डा निवासी कारोबारी शंभू मंडल कहते हैं, ''भाषा को लेकर आंदोलन हो या फिर स्थानीयता के नाम पर आंदोलन, इन सबके पीछे कहीं ना कहीं झारखंड सरकार का ही हाथ दिखाई देता है। आज पूरे झारखंड के अंदर लोगों के पास रोजगार की समस्या है। सरकार के पास रोजगार के लिए कोई नीति नहीं है। यही कारण है कि सरकार लोगों को भटकाने और उलझाने के लिए कोई न कोई आंदोलन करवाती रहती है।'' दुमका में रहने वाले सेवानिवृत्त शिक्षक गोपाल प्रसाद कहते हैं,''झारखंडी और बिहारी में मतभेद पैदा करने के लिए इन आंदोलनों को झारखंड सरकार ही हवा देने का काम कर रही है।''
रामगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता सहदेव महतो कहते हैं,''झारखंड सरकार भाषा और संस्कृति के नाम पर जनता को उलझा कर रखना चाहती है। इस मामले में राज्य सरकार को न्यायसंगत फैसला लेना चाहिए।'' उन्होंने बताया कि 1982 में बिहार की स्थानीय नीति आई थी। उसमें स्पष्ट कहा गया था कि जिस व्यक्ति के पूर्वजों के नाम जिले के अंतिम सर्वे सेटेलमेंट में हैं, उसे बिहार का स्थानीय नागरिक माना जाएगा। बिहार से झारखंड अलग होने के बाद इसी स्थानीय नीति को झारखंड में भी यथावत रखा गया है। ऐसे में राज्य सरकार को इसी के तहत स्थानीयता को परिभाषित करना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि झारखंड में जिन लोगों के नाम किसी खतियान में नहीं हैं, उनके लिए ग्राम प्रधान के जरिए रास्ता निकाला जा सकता है, ताकि किसी के साथ अन्याय न हो।
अंत में सनी टोप्पो की एक महत्वपूर्ण बात की चर्चा आवश्यक लगती है। उन्होंने कहा कि झारखंड में जो आंदोलन हो रहे हैं, वे एक तरह से बिहार मूल के लोगों के विरोध में हैं। ऐसे लोग राज्य में रह रहे बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों के विरोध में आवाज उठाते तो आज झारखंड में एक भी घुसपैठिया नहीं रहता और झारखंड के संसाधनों का इस्तेमाल केवल यहीं के लोग करते। उल्लखेनीय है कि झारखंड में बांग्लादेशी घुसपैठियों की बहुत ही बड़ी संख्या है। इन लोगों ने हर छोटे काम पर कब्जा कर लिया है। कम मजदूरी में भी ये लोग काम करते हैं। इस कारण स्थानीय लोगों के सामने रोगजगार का संकट खड़ा हो गया है। झारखंड के युवा देश के अन्य शहरों में मजदूरी कर रहे हैं और झारखंड में बांग्लादेशी मुस्लिम घसपैठिए मौज कर रहे हैं। जो लोग 1932 के खतियान की बात कर रहे हैं, उन लोगों को सबसे पहले बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों के विरुद्ध आंदोलन करना चाहिए, क्योंकि इन लोगों ने झारखंड के युवाओं के अधिकारों पर कब्जा कर लिया है।
दस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। राजनीति, सामाजिक और सम-सामायिक मुद्दों पर पैनी नजर। कर्मभूमि झारखंड।
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