कांग्रेस की सरकार के सत्ता में आने के बाद से छत्तीसगढ़ में नक्सल हिंसा और शोषण से पहले ही बुरी तरह पीड़ित रहे वनवासीगण अब मानों सरकारी हिंसा का शिकार होते रहने के लिये भी अभिशप्त से हो गए हैं। एक टीवी चैनल ने प्रदेश में एक ऐसी घटना का खुलासा किया है, जिससे कोई भी इंसान दहल जाए। वनवासी अंचल बस्तर के दंतेवाड़ा स्थित किरंदुल में दो वर्ष से एक वनवासी परिवार ने अपने लड़के के शव को इसलिए संभालकर रखा हुआ है, ताकि उसकी कथित मुठभेड़ की जांच हो। नक्सली होने के कलंक से मृत आत्मा को मुक्ति मिले। उसके बाद ही विधि-विधान से उसके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार किया जा सके। बता दें कि आज से ठीक दो वर्ष पूर्व मार्च की ही एक सुबह उस युवक को पुलिसिया गोली का शिकार होना पड़ा था।
एक सुबह सुरक्षाबलों के साथ कथित मुठभेड़ हुई और युवक बदरू माड़वी घटनास्थल पर ही मारे गए। पुलिस के अनुसार बदरू आईईडी बनाने का एक्सपर्ट एक इनामी नक्सली था, लेकिन बदरू की मां माड़वी मारको के अनुसार- ‘पुलिस बेवजह ग्रामीणों की हत्या कर रही है। चैनल के अनुसार – ‘गांव वालों ने बदरू के शव को गांव के बगल स्थित शमशान के किनारे लगभग छह फीट का गड्ढा खोदकर सफेद कपड़ों में लपेटकर नमक, तेल और कई जड़ी-बूटियों का लेप लगाकर रखा हुआ है। गांव वालों का कहना है कि इंसाफ मिलने तक शव को सुरक्षित रखेंगे। उनका ये भी कहना है बदरू नक्सली नहीं था। वो महुआ चुनने गया था। उसके पहले मासो नामक एक और ग्रामीण की हत्या पुलिस ने नक्सली बताकर की थी।’
देखा जाय तो पिछले दो-तीन साल में ऐसे अनेक मामले हुए हैं, जिसमें नक्सली बताकर वनवासियों की हत्या हुई हैं, जबकि गांव वाले उसके नक्सली होने से इंकार करते रहे हैं। इनमें से कुछ मामले तो प्रकाश में आ पाए लेकिन अनेक ऐसे मामले हैं, जिसे रिपोर्ट ही नहीं किया गया होगा। बस्तर संभाग के ही नारायणपुर जिले के मानु नुरेटी का मामला भी इसी तरह का गंभीर है। पिछले महीने ही जिले के भरांडा के जंगलों में कथित पुलिस-नक्सली मुठभेड़ हुई, जिसमें मानु की मृत्यु हुई। मृतक का भाई जो खुद DRG जवान है, उसने सुरक्षाबलों पर मानु की ह्त्या का आरोप लगाया। भाई के अनुसार मृतक मानु खुद पुलिस के ‘बस्तर फाइटर्स’ में शामिल होने की तैयारी कर रहा था, इसके लिए उसने फॉर्म भी भरा था। लेकिन पुलिस ने तमाम असलहे आदि की बरामदगी दिखाते हुए यह साबित करने की कोशिश की कि मानु नोरेटी नक्सली था।
क्योंकि मानु के आम नागरिक होने के तमाम साक्ष्य थे। अतः प्रदेश की विपक्षी पार्टी भाजपा भी हरकत में आयी और उसने एक जांच कमेटी का गठन किया। लेकिन जब तक भाजपा की इस कमेटी की रिपोर्ट आती, उससे पहले ही अंततः दबाव में पुलिस को स्वीकार करना पड़ा कि वह मुठभेड़ नकली थी। मामला बढ़ते देख बस्तर के आईजी सुन्दरराज पी. ने पत्रकारों से कहा कि युवक नुरेटी की मौत क्रॉस फायरिंग में हुई है। हालांकि फर्जी मुठभेड़ और ग़लत साक्ष्य प्रस्तुत करने आदि का आरोप साबित होने पर भी कांग्रेस सरकार ने किसी को जिम्मेदार ठहराते हुए कोई करवाई की हो, इसकी जानकारी नहीं है।
इससे पहले बस्तर के ही सिलगेर में वनवासियों की हत्या का मामला सुर्ख़ियों में रहा था। वहां भी पुलिस की गोली से तीन ग्रामीणों की मौत हुई थी। इसे लेकर वहां के ग्रामीण-वनवासी आंदोलित रहे। वहां कांग्रेस के लोग लीपापोती करने पहुंच गए, लेकिन भाजपा की तथ्यान्वेषण कमेटी को सरकार ने घटनास्थल पर जाने और आक्रोशित-आंदोलित वनवासियों से मिलने तक की अनुमति नहीं दी। उससे वहां भी इस संदेह को बल मिला कि आखिर ऐसा क्या ऐसा था जिसे कांग्रेस छिपाना चाहती थी? नक्सलियों के साथ कांग्रेस की कैसी नूराकुश्ती है कि हज़ारों ग्रामीण इस मामले में सड़क पर थे, लेकिन बस्तर के किसी भी कांग्रेस नेता ने अभी तक मुंह नहीं खोला। पूरे संभाग के बारह के बारह विधायक कांग्रेस के हैं। बस्तर के सांसद भी कांग्रेस के हैं लेकिन किसी के कान पर भी जूं नहीं रेंगी। न तो गृह मंत्री ने इस मामले को लेकर कोई पहल की और न ही मुख्यमंत्री प्रत्यक्ष तौर पर दखल देते नज़र आये।
स्थिति की गंभीरता को समझते हुए राज्यपाल श्रीमती अनुसुईया उइके ने शासन को पत्र लिखकर सर्वदलीय समिति वहां भेजने को कहा। राज्यपाल ने गणमान्य व्यक्तियों की समिति भी बनाने को कहा। बस्तर में पांचवीं अनुसूची लागू है, जिसके तहत राज्यपाल को वहां विशेष अधिकार भी हैं, लेकिन कांग्रेस सरकार के प्रवक्ता, वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री ने कहा कि अब किसी भी कार्रवाई की ज़रूरत नहीं है। इससे आपत्तिजनक और असंवैधानिक बात क्या हो सकती थी भला ? विपक्ष भाजपा द्वारा लाख कोशिश करने पर भी उसकी समिति को घटनास्थल तक नहीं जाने दिया गया।
कांग्रेस की पुरानी केंद्र सरकार द्वारा ही नक्सलियों को देश की आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़ा संकट बताया गया था। लेकिन उस राष्ट्रीय संकट के प्रति बघेल सरकार कितनी गंभीर है, यह इसी से साबित होता है कि इतनी घटनाएं लगातार हो रही है, लेकिन मुख्यमंत्री अन्य चुनावी राज्यों में कांग्रेस के प्रचार में ही अपने लाव-लश्कर के साथ व्यस्त रहे पूरे तीन साल। पिछले वर्ष तो जब बीजापुर में 22 से अधिक जवान बलिदान हुए तब भी उस जघन्य घटना के बावजूद बघेल असम में प्रचार करने में लगे रहे। प्रचार की मियाद ख़त्म होने के बाद ही बघेल छग आये, जबकि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह असम के तय कार्यक्रम से तुरंत वापस आकर बैठकों में लग गए थे। उस समय शहादत की रात ही उसी बस्तर के सांसद के साथ प्रसन्नचित्त किसी होटल में डिनर कर थकान उतारते, हँसते—मुस्कुराते सीएम बघेल का फोटो काफी वायरल हुआ था। वह फोटो उसी बस्तर के कांग्रेसी सांसद ने सगर्व पोस्ट की थी, जहां इतनी बड़ी शहादत हुई थी।
बहरहाल, सवाल केवल नक्सल चुनौतियों का ही नहीं है। छत्तीसगढ़ बना ही इसलिए था, क्योंकि कांग्रेस के लम्बे शासन के दौरान यह अंचल कुशासन, शोषण और लूट का अड्डा बना हुआ था। वहां के संसाधन से ताकतवर लोग मालामाल हो रहे थे, लेकिन वनवासीगण दो मुट्ठी चावल के लिए भी मुहताज थे। इन समस्याओं ने ही नक्सल को पैदा होने का बहाना भी दिया। लेकिन आज कांग्रेस के समय में वनवासी समाज फिर से बदहाली की उसी लम्बी सुरंग में जाने को विवश है। राज्यसभा में दी जानकारी के अनुसार कांग्रेस के इस तीन साल के कार्यकाल में वनवासी क्षेत्र के 25 हज़ार से अधिक बच्चों की समुचित इलाज़ के अभाव में मौत हुई है। लगभग 1 हज़ार महिलाओं की प्रसव के दौरान मौत हुई है। एक आंकड़े के अनुसार यहां के 65 प्रतिशत से अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार हैं। हज़ारों बच्चों की मौत कुपोषण से होने की रिपोर्ट यूनिसेफ की है। लेकिन इन तमाम आंकड़ों से बेपरवाह मुख्यमंत्री भूपेश बघेल फिलहाल उत्तर प्रदेश की चुनावी सभा में कथित छत्तीसगढ़ मॉडल के नाम पर डींगें हांक रहे। जहां अपने राष्ट्रीय नेता को यह कहलवाने में सारी उर्जा लगा रहे कि छग के हर जिले में आप टमाटर ले कर जाएं और फ़ूड पार्क से पैसे ले कर वापस आ जाएं। कुछ—कुछ उसी तरह जैसे कभी कथित आलू ले जाकर वापस में सोना मिल जाता था।
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