डॉ आलोक चांटिया
इस तथ्य को हम सभी हमेशा से स्वीकार करते रहे हैं कि किसी भी राष्ट्र का भविष्य वहां के बच्चे होते हैं और इसको हम यह कह कर भी उनके सामने प्रस्तुत करते हैं कि बच्चे भगवान की मूरत होते हैं। यहां पर भगवान का अर्थ सिर्फ उस साकार अर्थ में नहीं लिया गया है, जिसको हमारी आंखें प्रतिदिन देखती हैं बल्कि यहां पर भगवान का अर्थ उस निराकार ब्रह्म से जोड़कर देखा गया है जो ऊर्जा का एक ऐसा स्वरूप है जिसके तार जीव और आत्मा दोनों से जुड़े होते हैं। यही कारण है कि जब बच्चे के अंदर उस ऊर्जा को एक सामाजिक प्रक्रिया और नैतिक प्रक्रिया के अंतर्गत अनुभव कराने का प्रयास किया जाता है तभी यह बात चरितार्थ होती है कि बच्चे भगवान की मूरत होते हैं। इस तरह के अभिप्राय के पीछे कौन से दर्शन और निमृत छुपे हुए हैं, उन्हीं को जानना आवश्यक है।
प्रसिद्ध रूसी मनोवैज्ञानिक वसीली ने बाल हृदय की गहराइयां किताब में यह स्पष्ट लिखा है कि जब भी किसी बच्चे के जीवन में प्रवेश किया जाए या उसे समझने का प्रयास किया जाए तो इस बात का ध्यान रखा जाए कि उसका मस्तिष्क पत्ती पर पड़ी उस ओस की बूंद की तरह है, जिसमें यदि जरा सी भी असावधानी कर दी गई तो जिस तरह से ओस की बूंद नष्ट हो जाती है मिट्टी में गिर कर वैसे ही एक बच्चा अपने वर्तमान और भविष्य दोनों को चाह कर भी निर्माण की ओर नहीं ले जा पाएगा और हम उसे समाप्त होता देखते रहेंगे।
इसीलिए अपने नैतिकता के सिद्धांत में पियाजे ने इस तथ्य को ज्यादा उभारने का प्रयास किया कि बच्चा जब तक 5 वर्ष का होता है तभी तक उसकी आंखें और मस्तिष्क जिन तत्वों को ग्रहण कर लेते हैं उसके आधार पर ही उनके जीवन में एक संपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है। लेकिन, जिस तरह से बच्चा आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है वहां पर नैतिकता के दायरे में आने वाले प्रतिबंधों से भी वह अपने को स्वतंत्र पा रहा है।
जीवन की बढ़ती जटिलताएं और घटते हुए परिवार के आकारों मुख्य रूप से संयुक्त परिवारों के संकुचन ने यह स्थिति ज्यादा भयावह कर दी है कि अपने आर्थिक संतुलन को बनाए रखने के लिए किसी भी समाज की भविष्य की पीढ़ी के रूप में बच्चों को हम उन तथ्यों के साथ खुलकर रहने का अवसर प्रदान करें, जो उन्हें एक निश्चित वयस्क उम्र पर पहुंचने के बाद दिया जाना चाहिए था। ऐसा करने पर बच्चों में अकाल प्रौढ़ता की जो समस्या सामने आ रही है और उसके साथ-साथ शारीरिक परिवर्तन में जिस तरह से उन्हें अपने अंदर झंझावात महसूस हो रहा है, उसमें वे नैतिकता के जाले को तोड़ने की छटपटाहट के साथ समाज के उन तत्वों के साथ ज्यादा अपने को सहज पाने लगते हैं जो वास्तव में सामाजिक विघटन के लिए उत्तरदाई हैं।
सिगमंड फ्रायड की व्यक्तित्व की संरचना में बताए गए इड ईगो और सुपर ईगो के तत्वों पर विचार करते हुए बच्चे सामाजिकता में यह बात ईगो और सुपर ईगो के अंतर्गत माता-पिता और शिक्षक से छिपाने लगते हैं। जिसके कारण लिप्सा से जुड़ी हुई भावना (इड) और सामाजिक नैतिकता से जुड़े हुए नियम के बीच एक असंतुलन पैदा होता है।
ऊर्जा के स्रोत के रूप में जो बच्चे समाज और देश के कर्णधार बनने के लिए अग्रसर हो रहे होते हैं वहां बुरे व्यसनों के जाल में उलझ कर रह जाते हैं। समाज के और देश के साथ रहते हुए भी सिर्फ एक दायित्व बन कर रह जाते हैं। उनके अंतर उत्तरदायित्व बोध का विलोपन हो रहा है। जिस तरह से मादक द्रव्यों का उपयोग बच्चों के जीवन को संक्रमित कर रहा है और जिस तरीके से इंटरनेट की दुनिया ने पूरे विश्व और प्रतिबंधित जानकारियां भी बच्चों के सामने मुखरित कर दी है, उसके कारण बच्चा ऊर्जा के केंद्र के रूप में अपने परिवार को सबसे बड़ा दुश्मन समझ कर जीने का प्रयास कर रहा है। इसके अतिरिक्त वह सामाजिक समरसता और सामाजिक बोध के उन रास्तों को अपनाने से बच रहा है, जिसमें अनेकता में एकता, विश्व बंधुत्व जैसे भावों को पिरोया जाना चाहिए था। वह पिज्जा संस्कृति और सिर्फ अपने लिए जीने के आधार पर उस तरफ बढ़ रहा है जहां पर रिचर्ड ला पिए रे के सामाजिक आणविक सिद्धांत के अनुसार वह एक स्वतंत्र अणु के रूप में ज्यादा रहना पसंद कर रहा है।
बच्चों में ही निजता के इस भाव के कारण जो सामाजिक बिखराव आता हुआ दिखाई दे रहा है, उसको बच्चों के मनोविज्ञान के आधार पर आज समझना इसलिए भी नितांत आवश्यक है क्योंकि जिस राष्ट्र निर्माण के लिए बच्चों को तैयार किया जा रहा है वह राष्ट्र निर्माण अपनी प्रक्रिया में बढ़ता तो रहेगा लेकिन वह आर्थिक दायरे में इस तरह की संरचना लेकर खड़ा होने लगेगा, जिसमें आर्थिक आधार पर बच्चों में वैमनस्य और एक दुर्भावना का विकास दिखाई देगा। यह कुछ प्रतिशत तक दिखाई दे भी रहा है।
यह वही स्थिति होगी जब राष्ट्र एक मनो रोग से ग्रसित होता दिखाई देगा, इसीलिए यह आवश्यक है कि बच्चों की शिक्षा में समाज और नैतिकता और देश की संस्कृति को इस तरह से पिरो कर अध्ययन में सम्मिलित किया जाए ताकि वह आर्थिकी में उस प्रवाह को अंदर महसूस कर सके। जिसमें वह सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि भारतीय संविधान के समानता के मूल अधिकार को भी सभी के लिए समझते हुए राष्ट्र निर्माण में हम भारत के लोग को सम्मिलित कर पाए। आज यही सबसे बड़ी चुनौती बनकर बच्चों के विकास में हमारे सामने है। इस पर बहुत मनोयोग से गंभीरतापूर्वक राष्ट्र निर्माण और देश प्रेम के परिपेक्ष्य में कार्य किए जाने की आवश्यकता है।
(लेखक मानव शास्त्र विषय के अध्यापन कार्य में संलग्न हैं और विगत दो दशक से
मानवाधिकार विषयक जागरूकता कार्यक्रम भारतीय संस्कृति के अंतर्गत चला रहे हैं)
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