संघ के बौद्धिक विभाग की हरिद्वार में बैठक थी। हम चार-पांच कार्यकर्ता ‘भारतमाता मंदिर’ के संस्थापक पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी के दर्शन के लिए गए। वे मौन व्रत में थे, फिर भी हमारी बातें ध्यान से सुनकर कागज पर उसका समाधान लिखकर हमें संतुष्ट कर रहे थे। थोड़ी देर बाद प्रसाद एवं आशीर्वाद लेकर हम मोटर में बैठ रहे थे, उसी समय स्वामीजी के एक शिष्य दौड़ते हुए हमारे पास आए और कहा कि महाराज आपको बुला रहे हैं। हम फिर आश्रम में पहुंचे तो पूज्य स्वामीजी बरामदे में खड़े थे। शिष्य के हाथ में परमपूजनीय डॉ. हेडगेवार जी की मूर्ति थी। उस मूर्ति की ओर संकेत करते हुए स्वामी जी ने कागज पर लिखा ‘मैं प्रतिदिन प्रात: जगने के बाद सर्वप्रथम डॉ. हेडगेवारजी की मूर्ति को वंदन करता हूं।’
भारत के एक श्रेष्ठ संन्यासी की दिनचर्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक को वंदन करते हुए प्रारंभ होती है, इस बात ने हम सबको अंतर्मुखी होकर सोचने के लिए बाध्य किया।
संघ की दैनिक शाखा की प्रार्थना में भारत के नवोदय के लिए अजेय शक्ति, सुशील, ज्ञान, वीरव्रत एवं अक्षय ध्येयनिष्ठा – इन पांच गुणों का स्मरण किया जाता है। इस साधना से संपूर्ण हिन्दू समाज में ‘ना भय देत काहू को, ना भय जानत आप’ का उच्च मनोबल निर्माण करने का प्रयास चलता है। डॉ. हेडगेवार जी के समग्र जीवन का अवलोकन किया जाए तो हमारे ध्यान में आएगा कि यह सारे गुण उनके व्यक्तित्व में विद्यमान थे
सैकड़ों वर्ष पूर्व आद्य शंकराचार्य जी ने जिस कुल के व्यक्ति को ‘धर्म संरक्षक’ नियुक्त किया था, उस परिवार में डॉ. हेडगेवार जी का केवल जन्म ही नहीं हुआ बल्कि उन्होंने भारत को गुलाम बनाने वाले अंगेजों के विरुद्ध संघर्ष करने के साथ वर्तमान भारत के सर्वांगीण विकास का बीज बोया था, इस सत्य का दर्शन स्वामी सत्यमित्रानंद जी ने किया था, ऐसा हमारा विश्वास है।
हम सब जानते हैं कि, स्वामी विवेकानंद अमेरिका में अपने प्राचीन हिन्दू धर्म की विजय पताका फहराने के बाद जब भारत आए तो उनकी कोलंबो से अल्मोड़ा तक की यात्रा चली। इस दरम्यान उन्होंने तत्कालीन मद्रास में भाषण में कहा था कि, भारत के उत्थान के लिए तीन बातों की आवश्यकता है। संगठन – शक्तिसंचय – समन्वय।
देह आया ध्येय लेकर
डॉ. हेडगेवार जी के हृदय में बाल्यकाल से ही देशभक्ति की ज्वाला प्रज्वलित थी। वह विविध प्रकार से राष्ट्रजीवन में प्रकट होती थी। युवावस्था में उन्होंने निश्चय किया था कि मैं अविवाहित रहकर जीवनभर राष्ट्रकार्य करूंगा। अपनी मातृभूमि की दास्यता को दूर करने के लिए देश में आर्थिक- सामाजिक-राजकीय-धार्मिक क्षेत्रों में जो विभिन्न प्रयास चल रहे थे, उसमें उनकी सक्रिय सहभागिता थी। उनके द्वारा सुभाषचन्द्र बोस द्वारा सन् 2012 में कोलकाता में स्वदेशी प्रदर्शनी के व्यवस्थापन में सहभागिता, सार्वजनिक गणेशोत्सव, नशाबंदी, हनुमान जी के मंदिर में सामूहिक आरती, छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी पर प्रवचन, ‘स्वातंत्र्य’ समाचार पत्र का प्रचार-प्रसार आदि, स्वतंत्रता संग्राम में प्रत्यक्ष संघर्ष के कारण 1921 तथा 1930 में कारावास, स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी के ‘हिंदुत्व’ ग्रन्थ का गहन अध्ययन, ऐसा संक्षिप्त विवरण सामने आता है।
वे देशभक्ति को मजबूत करने और साम्राज्यवाद को कमजोर करने के लिए हर अवसर एवं हर मार्ग के उपयोग के बारे में सोचते थे। प्रथम महायुद्ध के समय सन् 1917 के आसपास अंग्रेजों को अपनी हिंदुस्थान की सेना को विदेश में भेजना अनिवार्य हो गया था। परिणामस्वरूप भारत में उनका सैन्यबल कम हो गया था। डॉ. हेडगेवार जी के इस लीक से हटकर विचार, कि इसका लाभ उठाकर गणमान्य नेताओं द्वारा घोषणा की जाए कि ‘हिंदुस्थान स्वतंत्र हो गया’ तथा स्वतंत्रता का यह पत्रक विश्व के विभिन्न देशों में एकसाथ प्रकाशित किया जाए, को उस समय के वरिष्ठ नेताओं द्वारा स्वीकृति नहीं मिली। तत्पश्चात वे पुणे में लोकमान्य तिलक जी के गायकवाड़ वाडा पर दो दिन ठहरे थे। वहां से नागपुर लौटने के पहले उन्होंने छत्रपति शिवाजी महाराज के जन्मस्थान शिवनेरी के दर्शन का निर्णय लिया। वे वहां पहुंचे और अपने हृदय की राष्ट्रसेवा की दिव्य ज्योति को अधिक प्रखरता से प्रकट करने का संकल्प लेकर नागपुर पधारे। एक ओर स्वतंत्रता के प्रयास और दूसरी ओर इस राष्ट्र के वैभवशाली भविष्य का सत्यपथ खोजने के लिए उनके मन-मस्तिष्क में तीव्र मंथन चला।
‘मैं इस हिन्दू राष्ट्र का घटक हूं और इसके उत्थान के लिए मुझे अपना जीवन समर्पित करना चाहिए, यह कर्तव्य का भाव भूलने के कारण आत्मविस्मृत हिन्दू समाज का पतन हुआ है।’ इसके उत्थान के लिए आत्मबोधयुक्त हिन्दू समाज की अनुशासित संगठित शक्ति खड़ा करने का दृढ़ निश्चय उन्होंने किया।
विजयादशमी के पावन पर्व पर सन् 1925 को डॉ. हेडगेवारजी ने अपने घर पर 17 युवकों की उपस्थिति में नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। मात्र पंद्रह वर्षों में लाहौर सहित भारत के सभी प्रमुख प्रदेशों में ‘व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण’ के मंत्र को साकार करने हेतु संघ की दैनिक शाखाओं के विस्तार के लिए अथक परिश्रम का उदाहरण प्रस्तुत किया।
एक बार महात्मा गांधी जी ने डॉ. हेडगेवार जी के सम्मुख जिज्ञासा व्यक्त की-‘आपकी स्वयंसेवकों की क्या अवधारणा है?’ डॉ. हेडगेवार जी ने बताया-‘संगठन में नेता और कार्यकर्ता, ये दो वर्ग नहीं होने चाहिए। संघ में सभी स्वयंसेवक हैं। आत्मप्रेरणा से जब व्यक्ति समाज और राष्ट्र के कार्य को महत्व देता है, तब उसकी भूमिका दरी एवं मेज उठाने वाले की नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण में नींव की पत्थर की तरह हो जाती है। साधारण जीवन जीते हुए वह असाधारण कार्य करता है। अंत: करण की एकता एवं आत्मविश्वास के कारण ही अल्प धन एवं संकटों के बीच संघ नए-नए स्वयंसेवकों का निर्माण कर पाता है।’
संघ की दैनिक शाखा की प्रार्थना में भारत के नवोदय के लिए अजेय शक्ति, सुशील, ज्ञान, वीरव्रत एवं अक्षय ध्येयनिष्ठा-इन पांच गुणों का स्मरण किया जाता है। इस साधना से संपूर्ण हिन्दू समाज में ‘ना भय देत काहू को, ना भय जानत आप’ का उच्च मनोबल निर्माण करने का प्रयास चलता है।
डॉ. हेडगेवार जी के समग्र जीवन का अवलोकन किया जाए तो हमारे ध्यान में आएगा कि यह सारे गुण उनके व्यक्तित्व में विद्यमान थे। रेशिमबाग-नागपुर में ‘लघु भारत’ के रूप में उपस्थित स्वयंसेवकों के सामने अपने जीवन के अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था, ‘केवल संघ का कार्यक्रम ठीक रूप से करने या प्रतिदिन नियमित रूप से संघस्थान पर उपस्थित रहने से संघ कार्य पूरा नहीं हो सकता। हमें तो आसेतु-हिमाचल तक फैले हुए विशाल हिन्दू समाज को संगठित करना है। सच्चा महत्वपूर्ण कार्य केवल स्वयंसेवकों में नहीं, संघ के बाहर जो लोग हैं, उनमें भी काम करना है। हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि, उन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बताएं और यह मार्ग केवल संगठन का है। हिंदुओं का अंतिम कल्याण इस संगठन के द्वारा ही हो सकता है।
21 जून, 1940 को डॉ. हेडगेवार जी का शरीर शांत हुआ। संघ के ज्येष्ठ प्रचारक स्व. यादवराव जोशी जी कहा करते थे कि, प्रत्येक स्वयंसेवक के रूप में डॉ. हेडगेवार जीवित हैं। आज इतने प्रदीर्घकाल के बाद डॉ. हेडगेवार जी द्वारा बोए गए इस संघवृक्ष के बीज का एक विशाल चैतन्यमयी वटवृक्ष हम अपनी आंखों से देख रहे हैं। हम स्व. यादवराव की श्रद्धा एवं तप:पूत वाणी की सत्यता का अनुभव कर रहे हैं। साथ ही स्वयंसेवक के नाते से हमारी जिम्मेदारी का महत्व समझने का प्रयास भी करते हैं।
समन्वय की कसौटी
एक बार सावरकरवादियों एवं गांधीवादियों के बीच चर्चा चल रही थी कि सावरकर एवं गांधीजी में श्रेष्ठ कौन है? उस समय डॉ. हेडगेवार जी वहां पहुंचे। उन्होंने कहा, ‘यह विवाद ऐसा ही है जैसे गुलाब श्रेष्ठ है या मोगरा! जैसे गुलाब मोगरा के समान नहीं, वैसे मोगरा भी गुलाब के समान नहीं। यह सत्य होते हुए भी सौंदर्य, सुगंध, कोमलता तीनों आधारों पर दोनों में श्रेष्ठ कौन है, यह विवाद हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में एक-दूसरे के फूल को कुचल डालने की जगह अपनी अपनी मानसिक रचना के अनुसार अलग-अलग फूलों का आनंद लेना चाहिए।
यह जो मन की उदारता है, समग्रता की सोच है, निरहंकारी प्रवृत्ति है, मैं-मेरा के स्थान पर दूसरों के सम्मान की भावना एवं सोच है, उसी के आधार पर इस विश्व में हम सब मिलकर रह सकते हैं। यह पाथेय डॉ. हेडगेवार जी ने अपने उदाहरण से प्रस्तुत किया है।
अपने राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के लिए कटिबद्ध विविध सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक-राजकीय-वैचारिक कार्य तथा संघ के बीच आपसी सम्बन्धों को देखने की दृष्टि कैसी होनी चाहिए, इस बात को समझाते हुए पूजनीय बालासाहेब देवरस जी उदाहरण देते थे कि, जैसे चंद्रमा के कारण रात्रि की एवं रात्रि की उपस्थिति से चंद्र्रमा की और दोनों के कारण संपूर्ण आकाश की शोभा बढ़ती है अथवा सरोवर के कारण कमल की और कमल के रहते सरोवर की तथा दोनों के कारण सारा परिसर शोभायमान होता है, वैसे ही हमारे आपसी संबंध रहने चाहिए। प्रत्येक संगठन स्वतंत्र-स्वायत्त-स्वावलंबी है। सभी का गंतव्य भारत की सर्वांगीण उन्नति और इस वैभवशाली राष्ट्र के द्वारा विश्व का कल्याण है! ऐसा भव्य उदात्त ध्येय सामने रखकर सभी सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
इस वैचारिक अधिष्ठान के आधार पर अखिल भारतीय स्तर पर संघ द्वारा वर्ष में एक बार ‘समन्वय बैठक’ का आयोजन किया जाता है। विविध क्षेत्रों में सक्रिय मातृशक्ति का समन्वय सुचारु रूप से चलने के लिए सन् 1993 में ‘महिला समन्वय’ की रचना विकसित हुई। संघ की भौगोलिक रचना में भारत के 45 प्रांत, 93 महानगर तथा 910 जिले हैं। इस स्तर तक लगभग 40 संगठनों के कार्यकर्ता आपस में आत्मीयता से मिलते-जुलते हैं।
संघ अपने संपर्क विभाग के माध्यम से समन्वय को अधिक व्यापक रूप में विकसित करते हुए समाज की सज्जन शक्ति को जोड़ने का कार्य निरन्तर करते रहता है।
श्रद्धेय दलाई लामा रेशिमबाग, नागपुर पधारे थे। पत्रकारों से वातार्लाप में उन्होंने कहा, ‘डॉ. हेडगेवार जी ने भारत के युवकों में अनुशासन एवं देशभक्ति का भाव जगाया, इसीलिए उनके प्रति हमारे मन में आदर और सम्मान है, वह व्यक्त करने के लिए हम यहां आए हैं।’ डॉ. अब्दुल कलाम ‘विज्ञान भारती’ के कार्यक्रम में रेशिमबाग आए थे। डॉ. हेडगेवार जी के स्मृति-मंदिर में अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए थे। आचार्य महाश्रमण जी की अमृतवाणी इस परिसर में गत वर्ष ही गूंज उठी थी। वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत जी भी इस पावन अवसर पर उपस्थित थे।
आचार्य महाश्रमण जी ने कहा था, ‘हम भारत को विश्व के रंगमंच पर गौरवशाली बनाएंगे। मिलजुलकर आगे बढ़ेंगे। संयम- सेवा-साहस-समता को अपने जीवन व्यवहार में प्रकट करेंगे। भारत की ग्रन्थ-पंथ-संत संपदा का सम्मान करते हुए अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करेंगे। नैतिक मूल्यों, आध्यात्मिक शिक्षा-विद्या से देश का सर्वांगीण-बहुआयामी विकास करेंगे। अपने प्रवचन का समापन करते समय कहा, ‘सुलभ मनुष्य जीवन को सुफल मानव जीवन बनाएंगे।’
अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्
डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी के पूर्वजों को लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व विदेशी आक्रांताओं के आघात से तेलंगाना के कंदकुर्ति गांव से नागपुर आने के लिए बाध्य किया गया था। आज कंदकुर्ति गांव में डॉ. हेडगेवार जी के पूर्वजों के घर -परिसर में कुलदेवता ‘केशवराज’ का सुंदर मंदिर और बिना भेदभाव के बच्चों के लिए पाठशाला चलती हैं। भविष्य के भारत का लघुरूप, कंदकुर्ति सहित भारत के सैकड़ों शहर -गांव-वनवासी क्षत्रों में हम देख सकते हैं।
आज एक ओर मतभिन्नता का रूपांतरण तीव्र प्रतिक्रिया-द्वेष-दुश्मनी में होते हुए हम देख रहे हैं। ऐसी गंभीर चुनौती के अवसर पर ‘समन्वय की गंगा का प्रवाह कलुषित समाजमन को पवित्र एवं मंगलमय करेगा’ ऐसा विश्वास है।
हम सबको विदित है कि, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार जी का जन्म नागपुर में वर्ष प्रतिपदा, 1 अप्रैल 1889 को हुआ था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, नागपुर का ‘वर्ष प्रतिपदा उत्सव’ रेशिमबाग में संपन्न होता है।
इस वर्ष सभी स्वयंसेवक –
‘हमने वह क्षमता पाई है, वैभव स्वयं करे वंदन।
मंगलमय सुंदर रचना हो, रात-दिवस बस यही लगन।’
इस सांघिक गीत के गायन से अपने भावसुमन अर्पित करेंगे।
(लेखक कुटुम्ब प्रबोधन के अखिल भारतीय संयोजक हैं)
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