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अलविदा भारतवंशियों के पहले नायक रामाधीन

by WEB DESK
Feb 28, 2022, 08:19 am IST
in भारत, दिल्ली
सोनी रामाधीन

सोनी रामाधीन

ब्रिटेन को 1840 के दशक में गुलामी का अंत होने के बाद श्रमिकों की जरूरत पड़ी जिसके बाद भारत से गिरमिटिया मजदूर बाहर के देशों में जाने लगे। बेशक भारत के बाहर जाने वाला प्रत्येक भारतीय अपने साथ एक छोटा भारत ले कर जाता था। इसी तरह भारतवंशी अपने साथ तुलसी रामायण, भाषा, खान-पान एवं परंपराओं के रूप में भारत की संस्कृति ले कर गए थे।

 

विवेक शुक्ला

सोनी रामाधीन के निधन से संसार के चप्पे-चप्पे में बसे भारतवंशियों ने अपना निश्चित रूप से पहला नायक खो दिया है। वेस्ट इंडीज की क्रिकेट टीम के सदस्य के रूप में वे 1950 में इंग्लैंड के दौरे में गए थे। अपनी पहली ही सीरिज में सोनी रामाधीन ने लेग ब्रेक गेंदबाज के रूप में अपनी छाप छोड़ी थी। पर इससे भी बड़ी बात ये थी कि वे पहले भारतीय मूल के खिलाड़ी बन गए थे जिसे वेस्ट इंडीज की टीम से खेलने का गौरव हासिल किया था। कह सकते हैं कि उनके बाद ही भारतवंशियों को भरोसा होने लगा था कि वे अपने पुऱखों के वतन से दूर पराए देश में भी अपने लिए जीवन के किसी क्षेत्र में जगह बना सकते हैं।

सोनी रामाधीन का संबंध वेस्ट इंडीज के कैरिबियाई टापू देश त्रिनिदाद और टोबैगो से था। इसी की तरह भारत से बाहर बसे लघु भारत कहलाए जाने वाले गयाना में छेदी जगन देश के 1961 में प्रधानमंत्री बन गए। उनके बाद तो कह सकते हैं कि मॉरीशस में शिवसागर रामगुलाम से लेकर अनिरूध जगन्नाथ, त्रिनिदाद और टोबैगो में वासुदेव पांडे, सूरीनाम में चंद्रिका प्रसाद संतोखी वगैरह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनने लगे। गयाना के वी.एस. नायपाल ने अंग्रेजी के लेखक के रूप में शब्दों के संसार में अपने लिए स्थायी जगह बना ली। गौर करें कि ये लगभग सब उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुरी भाषी जिलों से थे और इनकी सफलता में सोनी रामाधीन का रोल था।

गिरिमिटिया-  मजदूरों की जीवटता
दरअसल ब्रिटेन को 1840 के दशक में गुलामी का अंत होने के बाद श्रमिकों की जरूरत पड़ी जिसके बाद भारत से गिरमिटिया मजदूर बाहर के देशों में जाने लगे। बेशक भारत के बाहर जाने वाला प्रत्येक भारतीय अपने साथ एक छोटा भारत ले कर जाता था। इसी तरह भारतवंशी अपने साथ तुलसी रामायण,  भाषा, खान पान एवं परंपराओं के रूप में भारत की संस्कृति ले कर गए थे। उन्हीं ही मजदूरों की संतानों के कारण फीजी, त्रिनिडाड, गयाना, सूरीनाम और मारीशस लघु भारत के रूप में उभरे। 

गिरिमिटिया
मजदूरों से गन्ने के खेतों में काम करवाया जाता था। इन श्रमिकों ने कमाल की जीवटता दिखाई और घोर परेशानियों से दो-चार होते हुए अपने लिए जगह बनाई। इन भारतीय श्रमिकों ने लंबी समुद्री यात्राओं के दौरान अनेक कठिनाइयों को झेला। अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर जाकर बसने के बावजूद इन्होंने अपने संस्कारों को छोड़ा नहीं। इनके लिए अपना धर्म, भाषा और संस्कार बेहद खास थे।

भूले अपनी जातियां
हालांकि ये उन देशों के मूल्यों को भी आत्मसात करते रहे जिधर ये बसे, पर ये सात समंदर पार जाकर बसे तो अपनी जातियों को भूल गए। यानी ये जिधर भी बसे वहां पर ये जाति के कोढ़ से मुक्त हो गए। अब शायद ही किसी गिरिमिटिया परिवार को अपने पुरखों की जाति के बारे में पता हो। एक बार वासुदेव पांडे दिल्ली में कुछ पत्रकारों को बता रहे थे कि उनकी मां यादव परिवार से थीं पर उनके लिए जाति का कोई मतलब नहीं है। अगर क्रिकेट की ही बात करें तो सोनी रामाधीन की जादुई स्पिन गेंदबाजी के बाद कैरिबियाई देशों में रहने वाले नौजवानों को कहीं न कहीं लगा कि वे खेलों में अपनी प्रतिभा के बल पर आगे बढ़ सकते हैं। इसी के चलते रोहन कन्हाई, एल्विन कालीचरण, इंसान अली, शिव नारायण चंद्रपाल, राम नरेश सरवान आदि कितने ही खिलाड़ी वेस्ट इंडीज से खेले और कइयों ने इसकी कप्तानी भी की। रामाधीन से पहले यह कल्पना से परे कि स्थिति थी। वे उस महान वेस्ट इंडीज टीम का अहम हिस्सा थे जिसमें वारेल, विक्स और वाल्कट यानी थ्री डब्ल्यू थे। उस टीम को महानतम क्रिकेट टीमों में से एक माना जाता है।

बात सिर्फ क्रिकेट तक की ही नहीं है। रामाधीन की उपलब्धि के असर के चलते गयाना के अमेरिका में बस गए भारतवंशी ग़ॉल्फर विजय सिंह दुनिया के चोटी के ग़ॉल्फ खिलाड़ी बने और फीजी में बसे एक गिरिमिटिया परिवार का नौजवान विकास धुरासू फ्रांस की फुटब़ॉल टीम से फीफा विश्व कप में खेला। वेस्ट इंडीज़ क्रिकेट का गुजरे दशकों से अध्ययन कर रहे क्रिकेट लेखक और कमेंटेटर रवि चतुर्वेदी की सोनी रामाधीन से वेस्ट इंडीज और इंग्लैंड में कई बार मुलाकातें हुईं। उनसे रामाधीन भारत को लेकर हमेशा सवाल पूछते थे। वे यह भी जानना चाहते थे कि उनके पूर्वज भारत के किस भाग से वेस्ट इंडीज में जाकर बसे थे। दुभार्ग्यवश उन्हें अपने गांव की पुख्ता जानकारी कभी नहीं मिली। ये स्थिति हजारों-लाखों भारतवंशियों के साथ रही। वे सरकारी काहिली के कारण कभी अपने गांव का पता ही नहीं लगवा पाए। भारत के बाहर बसे संभवत: सबसे प्रख्यात सिख खिलाड़ी केन्या के अवतार सिंह सोहल तारी कहते हैं “सोनी रामाधीन अफ्रीका तक में बसे भारतवंशी खिलाड़ियों के लिए किसी रोल म़ॉडल से कम नहीं थे। उनके बाद हम रोहन कन्हाई से प्रभावित होते थे। रामाधीन का नाम अखबारों में पढ़कर बहुत अच्छा लगता था।” तारी ने 1960, 1964,1968 और 1972 के ओलंपिक खेलों के हॉकी मुकाबलों में केन्या की नुमाइंदगी की है। फुल बैक की पोजीशन पर खेलने वाले तारी तीन ओलपिंक खेलों में केन्या टीम के कप्तान थे। वे क्रिकेट के भी खिलाड़ी रहे हैं। केन्या और बाकी ईस्ट अफ्रीकी देशों में भारतीयों को 1896 से लेकर 1920 तक गोरी सरकार रेल लाइनों को बिछाने के लिए लेकर गए थे।

जरा सोचिए कि सोनी रामाधीन जैसी महान भारतवंशी शख्सियत को कभी प्रवासी भारतीय दिवस (पीबीडी) सम्मेलन में आमंत्रित करने लायक नहीं समझा गया।  पीबीडी में अनाम बारतवंशियों को सम्मानित किया जाता रहा पर सोनी रामाधीन को कभी याद नहीं किया। उनके निधन पर भारत सरकार की तरफ से शोक भी व्यक्त नहीं किया गया। 

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