शीत युद्ध के दौर से लेकर आज तक दो ध्रुवीय विश्व में अमेरिका और रूस में से भले कभी एक का तो कभी दूसरे का पलड़ा भारी रहा हो, साम्राज्यवाद और साम्यवाद का द्वन्द भले लगातार जारी रहा हो लेकिन, द्वीतीय विश्व युद्ध के बाद कभी भी विश्व में अकेली कम्युनिस्ट ताक़त सर्वोच्च हो गयी हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। दुनिया भी यह जानती रही कि विश्व हमेशा इन दोनों ध्रुवों में बँटी रहे यही मानवता के हित में है। ज़ाहिर है कोई एक सत्ता स्थापित होने के लिए फिर कोई नया विश्व युद्ध होना होता। आज के समय में जिसका अर्थ अंततः परमाणु युद्ध से है, जिसके बाद मानवता कहां होगी, इसकी कल्पना ही रोम-रोम को सिहरा देती है।
भारत ने हमेशा दोनों गुटों से समान दूरी की अपनी गुट निरपेक्ष नीति को क़ायम रखा है। हालांकि आज के सशक्त भारत में यह गुट निरपेक्षता नकारात्मक नहीं है। आज की गुटनिरपेक्षता सकारात्मक है। नेहरू के ज़माने से उलट आज के गुटनिरपेक्षता का आशय दोनों गुटों से समान दूरी नहीं, अपितु सभी गुटों से समान निकटता से है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के ज़माने में भारत की विदेश नीति ‘निर्गुट’ से आगे बढ़ चुकी है। वैश्विक स्तर पर ‘प्रि मोदी एरा’ में भारत की लगभग कभी इतनी हैसियत नहीं थी क़ि वह दुनिया के किसी बड़े संघर्ष में अपनी कोई भूमिका तलाश सके। ऐसे में तब भले निर्गुट रह पाना सही या कम ग़लत नीति रही हो, पर आज स्थिति अलग है। आज भारत की दुनिया भर में सुनी जाती है।
एक बार तब ज़रूर हमारी गुट निरपेक्षता को पलीता लगता दिखा था जब अमेरिका ने इस्लामी आतंक के पक्ष में अपना सातवां बेड़ा हिंद की तरफ़ रवाना कर दिया था। हालांकि समुद्री थपेड़े खाते-खाते जब तक वह बंगाल की खाड़ी तक पहुंच सकता, इससे पहले ही हमारे वीर सेनानियों को जंग जीत लेनी थी। उसे समुद्र से ही वापस जाना पड़ा। शायद यह भी सही हो कि ऐसे में रूसी हमारी सहायता को आते, पर उसकी नौबत ही नहीं आयी। हालांकि उसी इस्लामी आतंक ने बाद में वाशिंगटन के कैसे परखच्चे उड़ाए, विश्व शक्ति से उस आतंक ने कैसा सलूक किया वह दुनिया ने देखा। किस तरह संयुक्त राज्य अमेरिका के मानबिंदु को, विश्व व्यापार केंद्र (WTC) को मटियामेट कर दिया, वह हमने अपने ही जीवन में देख लिया। वह अलग क़िस्सा है खैर।
लेकिन जो अमेरिका हमेशा दो में से एक ध्रुव बना रहा, वह ‘जो’ के कारण अब अपनी श्रेष्ठता खो चुका है, ऐसा हाल के इस घटनाक्रम से दुनिया को अधिक महसूस हुआ है। कम्युनिस्टों के सहयोग से चुने गए बाइडन ने कम्युनिस्टों का क़र्ज़ चुका दिया है, ऐसा लग रहा। कम से कम आज की तारीख़ में आप यह कह सकते हैं कि रूस विजेता है। अपनी जिस हैसियत को खोने के डर से अमेरिका ने दुनिया को दर्जनों बार रेगिस्तान बना लेने लायक़, मानवता का नामोनिशान मिटा देने लायक़ ताक़त हासिल की है, करती रही है.. वह रखा ही रह गया और बाइडन ने अपनी श्रेष्ठता को तश्तरी में सजा कर मास्को के हवाले कर दिया। एक तरह से यह रक्तहीन क्रांति हो गयी। वैचारिक तख्तापलट हो गया। सारे परमाणु असलहे धरे के धरे रह गये और अमेरिका में जिस लाल टोपी को अपने सर पर नाहक सजा लिया था बाइडन के रूप में, उसने अपना काम कर दिया। इसके लिए पेंटागन पर न गन चलाने की ज़रूरत हुई न ही जहाज़ लड़ाने की। बहरहाल!
इस लेख का आशय आपको यह बताना है कि कम्युनिस्टों को समझिए। ये किसी भी राष्ट्र के रक्त में घुसे इम्यूनो वायरस की तरह होते हैं। इनका सीधा आक्रमण आपकी प्रतिरोधी क्षमता पर होता है। आपके सारे के सारे तंत्र धरे ही रह जाते हैं और यह कोरोनाई अन्दाज़ में आपको तबाह कर देता है। आपकी प्रतिरक्षा तंत्र को खोखला कर देता है। इम्यूनिटी को तबाह कर देता है।
यूक्रेन के राष्ट्रपति द्वारा बार-बार आग्रह के बावजूद नाटो देशों द्वारा कोई सैन्य सहायता उपलब्ध नहीं करा पाना वास्तव में ‘बड़े भाई’ अमेरिका की बड़ी पराजय है। निस्संदेह इसके बाद विश्व की एक बड़ी ताकत के रूप में भारत को आत्मनिर्भरता का मंत्र और अधिक शिद्दत से जपना होगा, जैसा प्रधानमंत्री मोदी कर भी रहे हैं। आर्थिक और सामरिक आत्मनिर्भरता में ही राष्ट्रीय सुरक्षा के हित निहित हैं। नए ज़माने का भारत आज तेजी से आत्मनिर्भरता की तरफ़ अग्रसर है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी चुनौती, राष्ट्र के आस्तीन में छिपे ‘कॉमरेड’ हैं। कम्यूनिज़्म का नया भारतीय वेरिएंय वस्तुतः कांग्रेस पर कब्ज़ा कर, इसके साथ मिल कर, उसे अपने में मिला कर एक और अधिक खतरनाक वेरिएंट बना चुका है। यह ठीक है कि हमारे पास बक़ौल अखिलेश यादव ‘भाजपा टीका’ है, लेकिन इस वेरिएँट की तीसरी लहर तीन राज्यों के रूप में जो 2018 में आयी थी, इस पर हमेशा ध्यान रखना होगा।
यूक्रेन का सबक़ हमारे लिए यही है कि कभी बाइडन जैसों को भारत में पनपने न दें। जो पनप गए हैं उन्हें ख़त्म करें लोकतांत्रिक तरीक़े से। आत्मनिर्भर बनें। यूक्रेन की तरह किसी के भरोसे मत रहें। भले हमारे पास भी ‘क्वाड’ हो लेकिन वामी मवाद को ख़त्म हमें खुद ख़त्म करना होगा। अपना सलीब हमें खुद ढोना पड़ेगा। सबको खुद ही ढोना पड़ता है।
पता तो होगा आपको कि वामी यूटोपिया क्या है आख़िर? कॉमरेड इन्हीं सपनों को जीते रहे हैं कि एक दिन दिल्ली में रूसी सेना घुस जाएगी। क़ब्ज़ा कर लेगी यहां ताकि उस कथित सुंदर दिन भारत में भी समाजवाद आ जाये। कीव में रूसी सेना घुसने जैसा नजारा भारत के कांगरेड-नक्सली को रोमांचित कर रहा होगा। जीभ लपलपा रही होंगी उनकी। आपके पास फ़िलहाल इसके विरुद्ध वोट की ताक़त है। ईवीएम का बटन दबाते समय भारतीय विपक्ष, जो वास्तव में अब विपक्ष की हैसियत में भी नहीं है, उसके कम्युनिस्ट चीन की सत्तावाली पार्टी से हुए ‘सांस्कृतिक एमओयू’ को हमेशा स्मरण रखें, यह सबक भी यूक्रेन से आया है। भारत में भी ‘सांस्कृतिक क्रांति’ का सपना लिए माओ की नस्लें सक्रिय हैं हमेशा की तरह। यूक्रेन आपसे भले हज़ारों कोस दूर है, पर यह ‘सबक़’ आपके बिलकुल पास है। प्रिय भारतीयों, ले लीजिए इस सबक को कृपया। दूसरों के अनुभवों से सीखना हमेशा बुद्धिमत्ता माना जाता है। वैदेशिक मामलों में खासकर स्वयं के अनुभवों से सीखना उचित नहीं होता। वैश्विक अनुभव बड़ी कीमत मांगता है। वंदे मातरम्…..
नोट – ये लेखक के निजी विचार हैं.
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