झारखंड सरकार ने राज्य में तृतीय और चतुर्थ वर्ग की नौकरियों के लिए होने वाली परीक्षा से हिंदी को बाहर कर दिया है, जबकि उर्दू को वरीयता दी गई है। तर्क दिया जा रहा है कि हिंदी क्षेत्रीय भाषा नहीं है। इसलिए उसे हटाया गया है। जब लोग पूछते हैं कि उर्दू कब से झारखंड की क्षेत्रीय भाषा हो गई, तो इस पर कोई कुछ नहीं बोलता है। यानी राज्य सरकार मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए उर्दू को क्षेत्रीय भाषा मान रही है।
झारखंड की प्रसिद्ध योग शिक्षिका राफिया नाज के अनुसार झारखंड में भाषावाद को जन्म देने का काम किया जा रहा है। अंग्रेजों की तर्ज पर झारखंड में भी फूट करो और राज करो की नीति लागू करने की कोशिश हो रही है। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सभी भाषाओं को समान मान्यता दी गई है तो झारखंड सरकार इस पर विवाद क्यों पैदा करना चाह रही है! उनका कहना है कि सरकार युवाओं को रोजगार और शिक्षा मुहैया नहीं करा पा रही है इसीलिए लोगों को विवाद में उलझाए रखना चाहती है।
उल्लेखनीय है कि झारखंड कर्मचारी चयन आयोग की मैट्रिक और इंटरमीडिएट स्तर की प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए झारखंड सरकार ने 18 फरवरी को एक पत्र के माध्यम से जनजातीय और क्षेत्रीय भाषा की सूची जारी की है। इस पत्र में विशेष बात यह है कि झारखंड में किसी भी जिले के अंदर हिंदी को नहीं रखा गया है, लेकिन उर्दू को हर जिले में रख दिया गया है। इसके बाद पूरे प्रदेश के नागरिकों में आक्रोश फैल गया है। सामाजिक कार्यकर्ता बासुकी झा कहते हैं,''झारखंड की वर्तमान सरकार मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा पार कर रही है।'' इसके साथ ही उन्होंने मगही, भोजपुरी आदि भाषाओं के विरोध में आंदोलन करने वाले लोगों से पूछा कि क्या वे लोग उर्दू को क्षेत्रीय भाषा मानते हैं! यदि नहीं तो वे उर्दू का विरोध क्यों नहीं कर रहे हैं!
भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता अविनेश कुमार कहते हैं, ''झारखंड सरकार वोट बैंक के लालच में पूरे झारखंड को बदनाम और बर्बाद कर देना चाहती है।'' अविनेश यह भी कहते हैं, ''आज भी झारखंड के हजारों विद्यालयों में उर्दू की पढ़ाई नहीं होती है, लेकिन हिंदी की पढ़ाई सभी विद्यालयों में होती है। इसके बाद भी झारखंड सरकार उर्दू को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में शामिल कर मुसलमानों के लिए नौकरी के सभी द्वार खोल देना चाहती है।'' इसके साथ ही उन्होंने बताया कि झारखंड के अंदर अन्य जनजातीय भाषाओं की भी पढ़ाई इक्के—दुक्के विद्यालयों में ही कराई जाती है। ऐसे में जब भी कोई नियुक्ति निकलेगी तो अधिक से अधिक सिर्फ मुस्लिम समुदाय के लोग ही केवल लाभान्वित होते रहेंगे।
भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा, रांची महानगर के जिला अध्यक्ष जॉनी वाकर खान के अनुसार "पूरे झारखंड में मुस्लिम समुदाय के लोग जिस जिले में रहते हैं वहां की स्थानीय भाषा का ही उपयोग करते हैं। नियुक्ति हेतु क्षेत्रीय भाषा की परिभाषा यही है कि उस जिले में रहने वाले सभी वर्गों के लोग उस भाषा का उपयोग करते हों और उनके द्वारा लिखी और पढ़ी जा सके, लेकिन ऐसा उर्दू के साथ नहीं है।"
समाजसेवी दामोदर महतो का मानना है,''पूरे झारखंड में जनजातीय भाषा के शिक्षकों की कमी तो है ही साथ ही उर्दू के लिए भी पूरे राज्य में न तो शिक्षक हैं, न ही छात्र हैं। झारखंड में मदरसों के अलावा और कहीं उर्दू की पढ़ाई भी नहीं होती है। वहीं दूसरी ओर पूरे राज्य के सभी विद्यालयों में हिंदी की पढ़ाई अवश्य होती है। ऐसे में उर्दू को क्षेत्रीय भाषा की सूची में रखना और हिंदी को दरकिनार करना राष्ट्रभाषा का ही अपमान है। राज्य सरकार झारखंड को शरीयत के अनुसार चलाना चाहती है। उसी को देखते हुए सरकार इस तरह का काम कर रही है।''
भाषा आंदोलनकारी तीरथ नाथ आकाश कहते हैं, ''पहला आंदोलन पूरी तरह से सफल रहा, लेकिन बड़ी ही चालाकी से झारखंड सरकार ने झारखंड के लोगों को मूर्ख बनाने का काम किया। एक तरफ बोकारो और धनबाद जिले से मगही और भोजपुरी को हटा तो दिया, लेकिन उर्दू को डाल दिया गया। अब उर्दू के विरोध में आंदोलन किया जाएगा।''
बता दें कि कार्मिक विभाग ने 23 दिसंबर, 2021 को भाषाओं की सूची जारी की थी। इसके बाद कई जिलों में भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषा के रूप में शामिल किए जाने के खिलाफ आंदोलन हुए थे। आंदोलनकारियों ने गिरिडीह के पूर्व सांसद रविंद्र राय की गाड़ी पर हमला भी किया था। इसी विरोध को देखते हुए भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषा की सूची से बाहर कर दिया गया।
भले ही मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भाषा विवाद की आड़ में अपने समर्थकों को साधने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन उनकी सरकार को समर्थन देने वाली कांग्रेस की राय उनसे नहीं मिल रही है।
झरिया की कांग्रेस विधायक पूर्णिमा नीरज सिंह कहती हैं, ''भाषा को लेकर जो तमाशा किया जा रहा है उससे लोगों की भावनाएं आहत हो रही हैं। हिंदी झारखंड की आधिकारिक भाषा है और हिंदी को अन्य भाषाओं के साथ भी शामिल करना बहुत जरूरी है।''
राज्य सरकार जिस उर्दू को इतनी वरीयता दे रही है, उसके बारे में एक रोचक जानकारी है। झारखंड में पहली बार 2015-16 में उर्दू शिक्षकों की नियुक्ति के लिए विज्ञापन निकाला गया था। उस समय कुल 4401 पदों में नियुक्ति होनी थी, लेकिन मात्र 689 शिक्षक ही मिल पाए थे। साढ़े तीन हजार से अधिक पद रिक्त रह गए थे। खूंटी, गुमला और सिमडेगा में उर्दू का एक भी शिक्षक नहीं है। इन सबको देखते हुए लोग सरकार के निर्णय से बेहद नाराज हैं।
दस वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय। राजनीति, सामाजिक और सम-सामायिक मुद्दों पर पैनी नजर। कर्मभूमि झारखंड।
टिप्पणियाँ