सीताराम व्यास
भारत में दो सौ वर्ष तक अंग्रेजों का शासन रहा। इस काल खंड में अंग्रेजों ने कुटिल तथा सुनियोजित योजना द्वारा हमारे देश की संस्कृति, सभ्यता, इतिहास के गौरव को आघात पहुंचाकर, उसे निकृष्ट और कलंकित बतलाकर, हमारे उदात्त मानदण्डों को धूल-धूसरित करने की कुत्सित-निन्दित चेष्टा की। इससे भारतीय जन-मानस आहत और चोटिल हुआ। सामान्य जनता अपनी गौरवशाली परम्परा से नाता तोड़कर अंग्रेजों की विध्वंसक रीति-नीति में आस्था प्रकट करने लगी। दुनिया में विकास की दृष्टि से जो कुछ है, वह यूरोप की देन है-इस प्रकार समाज में अनुकरण और दास्यभाव की मनोवृत्ति दिखाई देती रही है। हमारी विज्ञान की परम्परा को अमान्य कर पश्चिम का स्वर्णिम चित्र देश के प्रबुद्ध वर्ग के हृदय में बैठा दिया गया। भारत के 19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण के काल खण्ड में हमारे महान वैज्ञानिकों ने विश्व के सम्मुख अपनी प्रतिभा द्वारा सत्य को पूर्ण आभा के साथ प्रगट किया और सिद्ध किया कि वैज्ञानिक दृष्टि से भारत में ज्ञान-विज्ञान की समृद्ध समुन्नत परम्परा रही है। हम अब भी विज्ञान के क्षेत्र में पश्चिम यूरोप से कम नहीं है।
जब डॉ. बसु की प्रेसीडेन्सी कालेज, कलकत्ता में भौतिकी के प्रोफेसर पद पर नियुक्ति हुई, तब उनका वेतनमान अंग्रेज प्राध्यापकों के समान नहीं था। अंग्रेज लोग रंग-भेद करते थे। डॉ. बसु इतने स्वाभिमानी थे कि लगभग दो वर्ष तक वेतन नहीं लिया। आखिर अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा। इस घटना से बंगाल के जन-मानस में स्वाभिमान और स्वतंत्रता प्राप्ति की प्रबल इच्छा जाग्रत हो उठी।
इन भारतीय वैज्ञानिकों ने समाज में पुन: स्वाभिमान की लौ जगाई और हीनताग्रन्थि से समाज को मुक्त किया। सोया भारत अपनी प्रबल ऊर्जा को लेकर करवट बदल कर उठ खड़ा हुआ। जन-जन में प्रबल राष्ट्र भाव का जागरण हुआ। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव पर महान वैज्ञानिकों की स्वातंत्र्य-चेतना पर विचार करते हुए उनके बहुमूल्य योगदानों पर विचार करना नितान्त आवश्यक है। अब इक्कीसवीं सदी का भारत है। स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव समग्र हुतात्माओं को स्मरण कर विश्व में भारत अद्वितीय स्थान प्राप्त करने की ओर अग्रसर हो रहा है। यह भी जानने की आवश्यकता है कि स्वतंत्रता आन्दोलन के संघर्ष में भारतीय वैज्ञानिकों की भूमिका को भी भुलाया नहीं जा सकता।
हमारे देश के वैज्ञानिकों ने स्वतंत्रता आन्दोलन के समय स्वाभिमान और स्वावलम्बन के भाव का जागरण किया। इनके प्रयासों से पराभूत मानसिकता से ग्रस्त भारतीय समाज में विश्वास और आत्मगौरव का भाव उत्पन्न हुआ। ‘हमारे देश में स्वाभिमान जगाने हेतु प्रख्यात वैज्ञानिक आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय का मद्रास में हिन्दू रसायन शास्त्र पर सन् 1918 में एक भाषण विचारणीय है जिसमें उन्होंने अपने देश के अवदान के बारे में गौरव बोध का आह्वान किया था। उनके शब्द थे “we are not ashamed of our ancient contributions to the science of chemistry. I am equally Proud of and not ashamed for all the branches of science that grew in ancient India”
19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तथा बीसवीं शताब्दी के काल खंड में महान प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों का आविर्भाव हुआ। आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय, प्रो. जगदीशचन्द्र बसु, सी.वी. रमन, सत्येन्द्रनाथ बोस, श्रीनिवास रामानुजम, डॉ.मेघनाथ साहा, डॉ. बीरबल साहनी, डॉ. शान्तिस्वरूप भटनागर जैसे मूर्धन्य प्रतिभा सम्पन्न वैज्ञानिक हुए। इन महान वैज्ञानिकों ने स्वातन्त्र्य-चेतना का प्रचार-प्रसार करते हुए स्वदेशी वस्तुओं को और स्वभाषा को अपनाने पर बल दिया तथा जनमानस को चैतन्य किया कि स्वराज्य प्राप्ति के बिना तुम्हारा अस्तित्व कभी भी दासता के बोध से मुक्त नहीं हो सकता।
प्रो. जे.सी. बसु ने जगाया स्वाभिमान
प्रो. जगदीशचन्द्र बसु भौतिकी में ‘विद्युत तरंगों’ तथा वनस्पति शास्त्र में ‘पौधों के जीवन’ की खोज करने वाले प्रथम वैज्ञानिक थे। डॉ. बसु ने अध्यात्म और विज्ञान का सुन्दर समन्वय किया। डॉ. बसु ने विश्व को दिखलाया कि जड़-चेतन में एक ही ब्रम्ह का वास है। हमारे वैज्ञानिक आधुनिक ऋषि थे। डॉ. बसु ने अपने अन्वेषण के लिए ‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ का लक्ष्य लेकर ही कार्य किया। प्रो. जगदीशचन्द्र बसु ने अपनी खोजों को पेन्टेट नहीं कराया। उनकी मान्यता थी कि मेरी खोज समाज की सम्पत्ति है, उस पर किसी का एकाधिकार उचित नहीं है। पश्चिम के चिंतन में वैज्ञानिक खोज व्यक्तिगत निजी सम्पत्ति मानी जाती रही है। यह हमारे वैज्ञानिकों के ऋषित्व का श्रेष्ठ उदाहरण है। स्वामी विवेकानन्द की मानस पुत्री निवेदिता तथा श्रीमती ओली कल ने डॉ. बसु की ओर से खोजों पर जबरदस्ती पेन्टेट कराया पर बसु ने उसका प्रयोग नहीं किया। जब डॉ. बसु की प्रेसीडेन्सी कालेज, कलकत्ता में भौतिकी के प्रोफेसर पद पर नियुक्ति हुई, तब उनका वेतनमान अंग्रेज प्राध्यापकों के समान नहीं था। अंग्रेज लोग रंग-भेद करते थे। डॉ. बसु इतने स्वाभिमानी थे कि लगभग दो वर्ष तक वेतन नहीं लिया। आखिर अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा। इस घटना से बंगाल के जन-मानस में स्वाभिमान और स्वतन्त्रता प्राप्ति की प्रबल इच्छा जाग्रत हो उठी।
ऐसे ही आधुनिक गणितज्ञों में श्री निवास रामानुजम का नाम अत्यंत आदर से लिया जाता है। यूरोप ने भारत की प्रतिभा का लोहा माना। श्रीनिवास रामनुजम ने विद्यार्थी काल मे पाश्चात्य गणितज्ञ लोनी द्वारा लिखित ‘ट्रिग्नोमेट्री’ के ग्रन्थों को आत्मसात किया और उनमें आवश्यक संशोधन भी किया। इस प्रकार गणित में उनकी प्रतिभा बेजोड़ थी। उस समय उनकी प्रसिद्धि से प्रत्येक भारतवासी अपने आपको गौरवान्वित समझने लगा। विश्वप्रसिद्ध गणितज्ञ प्रो.हार्डी भी श्री रामानुजम की प्रतिभा के कायल थे। श्रीनिवास रामानुजम ने दुनिया को दिखाया कि गणित क्षेत्र में प्राचीन भारत की परम्परा अविच्छिन्न और निरतंर है। उनकी स्मरण शक्ति एवं संख्या का गणन असाधारण था।
स्वदेशी के ध्वजवाहक प्रो. प्रफुल्लचंद्र राय
स्वर्ण बंगभूमि ने 2 अगस्त 1861 को महान वैज्ञानिक संत आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय को जन्म दिया। डॉ. राय प्रखर वैज्ञानिक, समाज सेवी, स्वतन्त्रता सेनानी, स्वदेशी के प्रणेता, देशभक्त, आदर्श शिक्षक, सच्चे वैरागी थे। वे तत्कालीन भारत के प्रेरणा पुंज थे और आज भी हैं। वे एक संस्था थे। डॉ.पी.सी. राय जब विदेश में थे, तब वहां प्रचलित था कि रसायन विज्ञान को भारतीय उतना ही जानते हैं कि जितना अंग्रेजों ने सिखाया है। डॉ. राय ने इस तथ्य का खण्डन किया । उन्होंने अपने अन्वेषण एवं शोध परक लेखों द्वारा प्रमाणित किया कि भारत रसायन विज्ञान में यूरोप से आगे था। डॉ.राय ने ‘रसेन्द्र संग्रह’ पर शोध परक लेख लिखकर फ्रान्सीसी वैज्ञानिक बथेर्लोट को भेजा। बर्थेलीट ने लेख की प्रशंसा करते हुए उसे प्रकाशित कराया। डॉ. राय को पत्र लिखकर आग्रह किया कि हिन्दू रसायन विज्ञान के नाम से पुस्तक लिखें। 15 वर्षों के कठिन परिश्रम से अनुसंधान आधारित पुस्तक ‘ए हिस्ट्री आॅफ हिन्दू केमिस्ट्री फ्रॉम दी अर्लियर टाइम्स टू दी सिक्सटीन्थ सेन्चुरी’ सन् 1902 में प्रकाशित हुई। डॉ.राय ने पश्चिम के लोगों को बताया कि जब यूरोप के लोगों ने कपड़ा पहनना नहीं सीखा था, पशुओं की खाल लपेटे जंगलों में घूमा करते थे, तब भारत के लोग विभिन्न प्रकार के रसायनों का उत्पादन किया करते थे। हम लोगों को गर्व करना चाहिए और अनुसंधान क्षेत्र में आगे बढ़ते रहना चाहिए।
डॉ. प्रफुल्लचन्द्र्र राय बचपन से दयालु हृदय के थे। समाज के सुख दु:ख में आगे बढ़कर सहायता करना, उनके स्वभाव में था। आपदा आने पर प्रयोगशाला छोड़कर जन सेवा को निकल पड़ते थे। 1922 का अकाल तथा 1923 में उत्तरी बंगाल में आई भयंकर बाढ़ के समय लोग बेघर हो गए और भूख से मरने लगे। ऐसे समय आचार्य पी.सी. राय ने बंगाल सहायता समिति का गठन करके 25 लाख रुपये एकत्र कर आवश्यक सहायता पहुंचाई। बाबू सुभाषचन्द्र बोस ने उनके नेतृत्व में समाज सेवा में प्रवेश किया। डॉ. पी.सी. राय निस्पृह, निस्वार्थ समाज सेवक थे।
डॉ. राय स्वभाषा के पक्षधर थे। उनका मत था कि विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। बालक मातृभाषा से विज्ञान को शीघ्र आत्मसात कर सकता है। उन दिनों भारतीय भाषाओं में विज्ञान की पुस्तकें उपलब्ध नहीं थीं। इस कमी को दूर करने के लिए वे स्वयं विज्ञान की पुस्तकें बंगाली में लिखने लगे। वे अपने शिष्यों को मातृभाषा में पढ़ाने के लिए प्रेरित करते थे। उनके शिष्यों में विश्व के विख्यात वैज्ञानिक सत्येन्द्र्रनाथ बोस, मेघनाथ साहा आदि ने उनका अनुसरण कर मातृभाषा के अध्ययन पर जोर दिया। डॉ. राय का मानना था कि स्वभाषा बाल मन में देशभक्ति के पुष्प को पल्लवित करती है। अंग्रेजी दासता के समय स्वभाषा के आन्दोलन ने राष्ट्र भाव को पुष्ट किया। इस आन्दोलन में आचार्य प्रफुल्लचन्द्र राय का महत्त्वपूर्ण योगदान था। भारत के सांस्कृतिक आन्दोलन के अग्रदूत स्वामी दयानन्द के स्वराज, स्वदेशी स्वभाषा उद्घोष को चरितार्थ कराने वाले डॉ. पी.सी. राय थे।
डॉ. राय स्वदेशी उद्योग के समर्थक थे। उनका मानना था कि भारत को रासायनिक पदार्थों तथा औषधि को विदेशों से न मंगाकर देश में उत्पादन करना चाहिए। देश में उत्पादित औषधि बहुत कम कीमत पर सभी को उपलब्ध हो सकती है। देश में उद्योगों का स्वदेशीकरण करने से स्वावलम्बी भारत का निर्माण होगा। उनको कष्ट होता था कि मामूली दवाई विदेशों से महंगी आयात होती थी और विदेशी व्यापारी जेबें भरकर भारत के धन को बाहर ले जाते हैं। डॉ. पी.सी. राय ने कुछ रसायन अपने घर पर बनाया, उनका रसायन चल निकला। डॉ.राय ‘दी बंगाल केमिकल एण्ड फार्मास्यूटिकल वर्क्स’ नाम से दवाई का उद्योग लगाने में सफल रहे। उन्होंने युवकों को प्रेरणा दी कि अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर लघु उद्योग लगाओ। डॉ. पी.सी. राय ने सौदपुर में तेजाब का कारखाना, कलकत्ता पॉट्री वर्क्स नाम से चीनी मिट्टी के बर्तन बनाने का कारखाना, बंगाल एनेमल वर्क्स नाम से ताम्र चीनी का बर्तन बनाने का कारखाना आदि खुलवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
डॉ. राय का कहना था कि ‘विज्ञान प्रतीक्षा कर सकता है पर स्वराज नहीं।’ वे महात्मा गांधी की देश भक्ति, सरलता से प्रभावित थे। महात्माजी की प्रेरणा से चरखा कातना और खादी का वस्त्र पहनना प्रारम्भ कर दिया। 1921 से 1931 तक डॉ. पी.सी. राय ने भारत का दौरा किया। उन्होंने खादी का प्रचार, राष्ट्रीय भावना, स्वदेशी, स्वभाषा, छुआछूत उन्मूलन आदि के प्रचार से नवयुवकों में उत्साह का संचार किया। कई राजनीतिक सम्मेलनों की अध्यक्षता डॉ. पी.सी. राय ने की। किसी ने उनके राजनीकि कार्यों की व्यस्तता देखकर कहा कि आपका शोध कार्य उपेक्षित हो रहा है। उन्होंने तुरन्त कहा ह्य२ू्रील्लूी ूंल्ल'३ ६ं्र३ ३ँं३ २६ं१ं्न ूंल्लल्लङ्म३ह्ण। ऐसे कर्मयोगी डा.राय के चिन्तन में देश भक्ति, अध्यात्म और विज्ञान की त्रिवेणी का संगम दिखता है। डॉ. राय भारत की ऋषि परम्परा के प्रतिनिधि थे। वे समर्पित देशभक्त थे।
हीनग्रंथि से मुक्ति दिलाते वैज्ञानिक
हमारे वैज्ञानिकों ने परतंत्र भारत की जनता को हीनता बोध-ग्रन्थि से मुक्ति दिलायी। इनके प्रयासों से अपना देश पराभूत मानसिकता छोड़कर तकनीकी विकास में आगे बढ़ रहा है। अब मोहजाल छोड़ना होगा कि पश्चिम की तकनीकी से देश का विकास होगा। हमारे प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिक समझ गए कि दूसरे के सहारे कोई महान नहीं बनता। प्रख्यात वैज्ञानिक सी.वी. रमन ने 1949 में प्रयाग के विज्ञान महाविद्यालय में दीक्षांत भाषण में विद्यार्थियों को संबोधित किया था। उन्होंने कहा था कि ‘Boys, when we import we not only pay for your ignorance but we also pay for our incompetence’ आज वर्तमान भारत के युवा वैज्ञानिक डॉ. सी.वी. रमन के भाषण से प्रेरणा लेकर विज्ञान का स्वदेशीकरण कर रहे हैं। पराधीनता के काल में हमारे वैज्ञानिकों के किए गए कार्यों को इक्कीसवीं सदी का भारत मूर्तरूप दे रहा है। जहांगीर होमी. जे. भाभा ने परमाणु विज्ञान की नींव डाली। भारत ने पोकरण में अणु विस्फोट का सफल प्रयोग करके विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया। अब हम अन्तरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी देशों में आते हैं। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने प्रक्षेपास्त्रों की श्रृंखला (नाग, आकाश, त्रिशूल, अग्नि, -1-2) से देश को अभेद्य कवच प्रदान किया।
स्वातंत्र्य-चेतना से आप्लावित हमारे सभी वैज्ञानिक निश्चय ही अब भी हमारी प्रेरणा का स्त्रोत हैं। उनकी दृष्टि की व्यापकता ने भारतीय जन-मानस को गहराई से प्रभावित किया। हमारे महान वैज्ञानिकों ने केवल विज्ञान के क्षेत्र में ही अपना अद्वितीय योगदान नहीं दिया, अपितु दासत्व-बोध से मुक्ति के लिए जन-जन को प्रेरित किया। भाव, भाषा, विचार, भक्ति और साहित्य जब तक परतन्त्र रहेंगे तब तक कोई भी राष्ट्र उन्नति करके सर्वांगीण प्रगति और समृद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता। इसीलिए हमारे सभी वैज्ञानिकों की दृष्टि का केन्द्र-बिन्दु था राष्ट्र का प्रत्येक कण, प्रत्येक जन, और प्रत्येक मन दासता के बोध और बोझ से मुक्त हो।
भारत को त्रस्त मानवता को सुखी बनाने के लिए सिद्ध होना ही है, यह ईश्वरीय योजना है। अर्नाल्ड टायनबी ने एडिनबरा के दीक्षांत समारोह में कहा था ‘भारत इक्कीसवीं सदी का नेतृत्व करेगा। भारत सभी क्षेत्रों में उन्नति करेगा तथा विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय करने वाला होगा।’
(लेखक सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
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