तिब्बत पृथ्वी के उन सबसे ऊंचे, दुर्गम और कठिनाई के साथ निवास योग्य और इसके साथ ही साथ सभ्यता के उच्चतम प्रतिमान स्थापित करने वाले क्षेत्रों में अग्रण्य है। 1949 तक, तिब्बत हिमालय में एक स्वतंत्र बौद्ध राष्ट्र था, जिसका शेष विश्व के साथ बहुत कम संपर्क था और यह बौद्ध धर्म की महायान और वज्रयान शाखाओं की शिक्षाओं के एक समृद्ध भंडार के रूप में अस्तित्व में था। भले ही इस समय तिब्बत एक राजनैतिक शक्ति नहीं था परन्तु तिब्बतियों के बीच धर्म, भाषा, साहित्य, कला और उनकी विश्वदृष्टि उन्हें एकसूत्र में बांधे रखने का कार्य करते थे। परन्तु 1949 में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी और माओ जे दोंग के सत्ता में आने के बाद, चीन द्वारा तिब्बत पर अधिकार करने के तीव्र प्रयास किए गए और 1951 में चामडो की लड़ाई के बाद, तिब्बत पर कब्जा कर लिया गया और पीपुल्स रिपब्लिक आफ चाइना के अत्याचारी शासन ने यहां के लोगों की स्वतंत्रता को समाप्त कर उनका जीवन दूभर कर दिया और इसके विरोध में तिब्बतियों के प्रतिरोध को 1959 में बर्बरतापूर्ण तरीके से समाप्त कर दिया गया। तब से आक्रामक चीन पश्चिमी और मध्य तिब्बत को तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र के रूप में बलपूर्वक नियंत्रित करता आ रहा है।
परन्तु ऐसा नहीं है कि तिब्बत राजनीति अथवा सैन्य मामलों में कभी प्रभावी नहीं था। प्राचीन समय से ही तिब्बत में राजनीतिक एकता और व्यवस्थित शासन प्रणाली के प्रमाण प्राप्त होते रहे हैं। 127 ईसा पूर्व में तिब्बत में यारलुंग राजवंश की स्थापना हुई और कालान्तर में 7वीं शताब्दी में राजा सोंगत्सेन गम्पो और उनके उत्तराधिकारियों के अधीन तिब्बत का राज्य एकीकृत हुआ। इसके बाद की तीन शताब्दियों के दौरान तिब्बत, एशिया की सबसे प्रभावशाली शक्तियों में से एक रहा। सोंगत्सेन को तिब्बत का तैंतीसवां सम्राट माना जाता है, और इसकी पत्नियों में से एक राजकुमारी वैनचेंग, चीन के तत्कालीन शासक राजवंश तांग से संबद्ध थी, वज्रयान में इसे ही श्वेत तारा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि सोंग झाऊ क्षेत्र में जो चीनी राज्य क्षेत्र था, पर सोंगत्सेन के आक्रमणों से डरकर तत्कालीन चीनी सम्राट ताईजोंग ने अपनी यह पुत्री उसे अर्पित की थी।
तिब्बत की प्रभावी स्थिति को चीन के तत्कालीन शासक स्वीकार करते रहे। ल्हासा में पोताला पैलेस के एक स्तंभलेख से इस अवधि में तिब्बत के चीन पर प्रभुत्व की पुष्टि होती है। 821 ईस्वी में चीन और तिब्बत के बीच संपन्न एक औपचारिक शांति संधि ने दोनों देशों के बीच सीमाओं का सीमांकन किया, और यह सुनिश्चित किया कि चीन, तिब्बत के आक्रमणों से सुरक्षित रहेगा।
ग्यारहवीं सदी से चंगेज और उसके वंशजों ने मध्य एशिया से लेकर यूरोप तक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की जो पेकिंग से बुडापेस्ट तक विस्तृत था, और इसी चंगेज का वंशज कुबलाई खान आगे चलकर चीन का शासक बना और युआन राजवंश की नीव रखी। 13वीं शताब्दी में युआन राजवंश के साथ तिब्बत के सबन्ध इतने महत्वपूर्ण हो गए कि युआन राजवंश (1279-1368) के काल में तिब्बत के शाक्य लामा को साम्राज्य के शाही उपदेशक और सर्वोच्च धर्मगुरु बनने के लिए आमंत्रित किया गया।
युआन राजवंश के बाद चीन की सत्ता में आए मिंग राजवंश के साथ तिब्बत की दूरी बनी रही और इनके साथ किसी भी प्रकार के राजनीतिक सबन्धों का विकास देखने में नहीं आता। परन्तु इसके परवर्ती मंचुओं के साथ तिब्बत के घनिष्ठ धार्मिक संबंध विकसित हुए, जिन्होंने चीन पर विजय प्राप्त की और किंग राजवंश (1644-1911) की स्थापना की। तिब्बत के दलाई लामा मांचू सम्राट के आध्यात्मिक मार्गदर्शक बनने के लिए सहमत हुए, और बदले में उनका संरक्षण स्वीकार किया। यह "पुजारी-संरक्षक" संबंध (जिसे तिब्बती में चो-योएन के रूप में जाना जाता है), जिसे दलाई लामा ने कुछ मंगोल राजकुमारों के साथ भी बनाए रखा था, एकमात्र औपचारिक संबंध था जो कि किंग राजवंश के दौरान तिब्बतियों और चीन के बीच मौजूद था, और इसने किसी भी प्रकार से तिब्बत की स्वतंत्र स्थिति को प्रभावित नहीं किया था।
लार्ड कर्जन के भारत में वाइसरॉय काल में अंग्रेजों ने ल्हासा पर आक्रमण किया और 1904 में तिब्बत के साथ, ल्हासा कन्वेंशन के तहत एक द्विपक्षीय संधि की। इसके बाद पेकिंग में शाही सरकार ने तिब्बत पर कुछ अधिकार का दावा करना जारी रखा, और तिब्बत पर अपने "अधिपतित्व" पर विशेष बल दिया। चीनी साम्राज्यवादी सेनाओं ने 1910 में तिब्बत पर आक्रमण करके और ल्हासा पर कब्जा करके वास्तविक प्रभाव को फिर से स्थापित करने की कोशिश की। परन्तु चीन में यह महान अशांति का काल था और 1911 की क्रांति ने मांचू साम्राज्य का उन्मूलन कर दिया। ऐसी स्थिति में चीनी सेनाओं को, जिन्हें तिब्बत पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया था, तिब्बती सेना के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा और चीन-तिब्बत शांति समझौते के तहत उन्हें वापस भेज दिया गया। दलाई लामा ने एक उद् घोषणा जारी करके तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की, इसके साथ ही विदेशी शासकों के साथ पत्र व्यवहार और मंगोलिया के साथ एक संधि के द्वारा अंतरराष्ट्रीय रूप से इसकी पुष्टि की गई।
चीन के स्वायत्त क्षेत्रगुआंग्शी में व्यापक नरसंहार से सांस्कृतिक ‘क्रांति’गुआंग्शी दक्षिण चीन में स्थित है और वियतनाम की सीमा से लगा हुआ और टोंकिन की खाड़ी में स्थित है। चीन के सुदूर दक्षिण में पहाड़ी इलाकों में स्थित गुआंग्शी चीनी इतिहास में चीनी सभ्यता से सुदूर छोर पर हैं जहां चीनी प्रभाव कभी प्रभावशाली नहीं रहा। गुआंग्शी प्रांत में चीन के जातीय अल्पसंख्यकों की सबसे बड़ी आबादी निवास करती है, जिसमें सबसे बड़ी संख्या जुआंग समुदाय की है जो इस प्रांत की आबादी का लगभग 32 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं। जब कम्युनिस्ट पार्टी चीन में गृहयुद्ध छेड़े थी, उस समय सुदूर दक्षिण में होने के कारण, गुआंग्शी इस सबसे दूर रहा और इसे चीन में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना के दो महीने बाद दिसंबर 1949 में चीन में शामिल कर लिया गया। इस क्षेत्र की विशिष्ट सांस्कृतिक विरासत माओ और उसके अनुगामियों को चीन की एक पहचान बनाने के अभियान में रुकावट की तरह प्रतीत होती थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि ‘कल्चरल रिवोल्यूशन’ के दौरान गुआंग्शी में व्यापक नरसंहार किए गए, जिनमें 1967 -1968 के मध्य 1,00,000 से 150,000 लोग मारे गए। तर्किस्तान से छीना शिनजियांगशिनजियांग आज चीनी शासन के शिकंजे में बुरी तरह से जकड़ा हुआ है। परन्तु इतिहास में देखें तो इसने अलग-अलग कालखंडों में चीनी अधिकार, स्वायत्तता और कभी-कभी स्वतंत्रता के विभिन्न कालों को देखा है और चीन के साम्राज्यवादी शासन की अधीनता में इसने लगभग 400 वर्ष ही बिताए हैं। अठारहवीं शताब्दी में किंग शासकों द्वारा इसे जीत लिया गया और प्रांत के रूप में इसे 1878 में चीनी साम्राज्य में शामिल किया गया। 1949 की क्रांति के समय, झिंजियांग स्वतंत्र रूप से पूर्वी तुर्किस्तान गणराज्य के अधीन था। तत्पश्चात इसे चीन में शामिल किया गया और शिनजियांग पर दृढ़ नियंत्रण स्थापित करने के बाद पूरे चीन में सांस्कृतिक एकरूपता लाने के प्रयासों के चलते एक नई नीति की घोषणा की। तिब्बत और झिंजियांग में बड़े पैमाने पर हान आबादी को बसाया गया। कल्चरल रेवोल्यूशन (1966-1976) के दौरान झिंजियांग के मूल निवासियों के धर्म, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, विचारों और पर गहरा आक्रमण किया गया। 1966 तक मस्जिदों को बंद करने, धार्मिक संघों को तितर-बितर करने, कुरान के अध्ययन को समाप्त करने और अंतरपंथीय विवाह और खतना पर प्रतिबंध लगाने पर जोर दिया गया और माओत्से तुंग की पत्नी जियांग किंग ने खुद इस अभियान में बढ़-चढ़ कर भाग लिया। आज यह उत्पीड़न कई गुना बढ़ चुका है और यहां की उइघुर आबादी नारकीय जीवन जीने को विवश है। निंगसिया में बरसों चीन के विरुद्ध विद्रोहनिंगसिया प्रांत, जिसे चीन में आधिकारिक तौर पर ‘निंगसिया हुई स्वायत्त क्षेत्र’ (हुई जातीय समुदाय की बहुलता के कारण) के नाम से जाना जाता हैं, चीन के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। प्राचीन काल से ही यह चीनी साम्राज्य के बाहरी क्षेत्र में खानाबदोश चरवाहों और किसानों के बीच एक बफर के रूप में रहा जिसके कारण यहां बड़े पैमाने पर युद्ध और घुसपैठ जारी रही। चीनी सम्राटों ने इस क्षेत्र को ‘शांत’ करने के लिए यहां कब्जा करने और इसे सैन्य उपनिवेश के रूप में परिवर्तित करने की नीति अपनाई। यहां 11वीं शताब्दी तक तांगट लोगों ने तत्कालीन सांग राजवंश से विद्रोह कर पश्चिमी जिया राजवंश की स्थापना की थी। चंगेज के अभियान के बाद यह उसके और उसके उत्तराधिकारी मंगोल शासकों के अधीन रहा और इसकी इनर मंगोलिया से निकटता और मंगोल तत्व की बहुलता स्पष्ट रूप से दृष्टव्य है। 1949 में कम्युनिस्ट शासन की स्थापना के बाद से चीन के विरोध में 1950 से 1958 तक, कुओमिन्तांग इस्लामी विद्रोह उठा खड़ा हुआ जिसने निंग्जिÞया सहित पूरे उत्तर-पश्चिमी चीन को अशांत कर दिया । 1954 में चीनी सरकार ने गांसु के साथ निंग्जिÞया का विलय कर दिया, लेकिन 1958 में निंग्जिया औपचारिक रूप से चीन का एक स्वायत्त क्षेत्र बना दिया गया। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 के जनसांख्यिकीय विश्लेषण के अनुसार, यह प्रान्त मुस्लिम बहुल है जो इसकी आबादी का 34 प्रतिशत हिस्सा बनाते हैं। इसके साथ ही इनर मंगोलिया के साथ लगे होने के कारण चीन की संदेहपूर्ण दृष्टि इस पर बनी रहती है और इसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। मंगोलिया से छीना इनर मंगोलियायह चीन द्वारा मंगोलिया से छीना गया क्षेत्र है जो चीन की मंगोलिया से लगी पूरी सीमा पर विस्तृत है। वर्ष 1368 में युआन राजवंश के पतन के बाद मंगोलियाई साम्राज्य आंतरिक संघर्ष और बा‘ आक्रमणों के कारण अस्थिर हो गया। सत्रहवीं सदी के प्रारंभ में, मंचू शासकों ने मंगोल सरदारों को अपने पक्ष में करने के लिए अनेक हथकंडों का इस्तेमाल किया। यह अत्याचारों की पूरी श्रृंखला थी जिसे मंगोलिया आज भी नहीं भूला है। और इसके द्वारा मंगोलिया का एक बड़ा हिस्सा चीनी कब्जे में लाया जाने लगा। 1911 की क्रांति के पूर्व मंगोलिया पर चीनी शासन अत्यंत कमजोर ही था; हालांकि, इस क्षेत्र में बसने वाले चीनियों ने मंगोल जनजातियों को इस क्षेत्र के बंजर और शुष्क भागों की ओर खदेड़ना प्रारंभ कर दिया था। 1911 की क्रांति के बाद, इनर मंगोलिया पर चीनी गणराज्य ने अपना शिकंजा कसा और 1928 में इसे चीनी प्रांतों निंग्जिया, सुइयुआन और चाहर में विभाजित कर दिया गया। माओ के नेतृत्व वाले चीनी कम्युनिस्टों ने 1945 में इनर मंगोलिया पर अपनी विजय के बाद, स्वायत्तता के लिए मंगोलों की पारंपरिक आकांक्षाओं का समर्थन किया, और मई 1947 में, इनर मंगोलियाई स्वायत्त क्षेत्र स्थापित हुआ जो कम्युनिस्ट राज्य के भीतर औपचारिक रूप से घोषित किया गया पहला स्वायत्त क्षेत्र था। परन्तु यह स्वायत्तता बाहरी दुनिया के लिए एक दिखावे के रूप में थी। इस क्षेत्र में मंगोल भाषा और संस्कृति को मिटाने के लिए लगातार व्यापक प्रयास किए जाते रहे हैं। बड़ी संख्या में हान आबादी यहां बसाई जा रही है जो मंगोल आबादी को उनके ही क्षेत्र में अल्पसंख्यक बना देने के व्यापक षड्यंत्र का हिस्सा है। और इस उत्पीड़न का विरोध करने पर चीनी बलों द्वारा स्थानीय मंगोल आबादी को शारीरिक यातनाएं दी जाती हैं, उनका अपहरण और निरपराध लोगों को कारावास में डालने जैसी घटनाएं इस क्षेत्र में आम हैं। |
इस प्रकार यह स्पष्ट ही है कि इतिहास में तिब्बत चीन के अन्तर्गत आने वाला क्षेत्र कभी नहीं रहा जिसका वह झूठा दावा करता रहा और इसी दावे की आड़ में उसने तिब्बत पर हमला किया। 1949 में तथाकथित जनता का शासन स्थापित होने के बाद चीन की साम्राज्यवादी लिप्साएं इतनी अधिक बढ़ गईं जो इतिहास में चीन के सबसे ज्यादा साम्राज्यवादी और रक्तपिपासु शासकों की भी नहीं थीं, और जिन्हें कोसते हुए चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता हथियाई थी। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तिब्बत में प्रवेश कर बर्बरतापूर्ण तरके से इसके क्षेत्रों पर कब्जा करना शुरू कर दिया और आधे देश पर कब्जा करने के बाद, चीनी सरकार ने मई 1951 में तिब्बती सरकार पर तथाकथित ‘तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के लिए 17-सूत्रीय समझौता’ लागू किया। चीनी के दमनकारी कब्जे का तिब्बत में व्यापक प्रतिरोध हुआ जिसके प्रत्युत्तर में, विशेष रूप से पूर्वी तिब्बत में, भयंकर चीनी दमन चक्र चला जिसमें धार्मिक भवनों का विनाश और भिक्षुओं और अन्य समुदाय के नेताओं की कैद शामिल थी । 1959 तक में लोगों के विरोध ने एक व्यापक विद्रोह का रूप धारण कर लिया जिसे चीन ने शक्ति का व्यापक प्रयोग कर कुचल दिया। इस दौरान केवल ल्हासा क्षेत्र में 87,000 तिब्बती मारे गए और दलाई लामा ने भागकर भारत में शरण ली और निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की।
चीन ने तिब्बत पर अपने आक्रामक रुख की वैधता को इस आधार पर सही सिद्ध करने की कोशिश की है, कि वह हमेशा से चीन के विभिन्न राजवंशों और उनके शासकों के अधीन रहा है, जो कि कभी वास्तविकता में था ही नहीं। उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्ट शासन की स्थापना में माओ का ध्येय इन्हीं साम्राज्यवादी शासकों से मुक्ति प्राप्त करना था परन्तु 1949 में सत्ता प्राप्ति के बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और माओ इस साम्राज्यवाद के वास्तविक उत्तराधिकारी हो गए, और कालान्तर में शर्मनाक ढंग से खुद के लिए ‘डिवाइन मैंडेट’ का दावा भी करने लगे।
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