हाल में ट्विटर पर एक ट्रेंड तैर रहा था #SayNoToSanskrit इसके साथ ही कुछ लोगों की मंशाएं भी घुमड़ रही थीं। उपनिवेशवादी पैंतरों को भुगत चुके भारत के लिए ये मंसूबे नए नहीं थे। हरकारे बदले सन्देश वही था- बांटो और राज करो।
#SayNoToSanskrit दुस्साहस था उत्तर और दक्षिण भारत में भेद पैदा करने का। संस्कृत और कन्नड़ को लड़ाने का। भाई को भाई के विरुद्ध खड़ा करने का। ये जो धुआं था, उसके पीछे की आग का पता करेंगे तो देश की वह बुजुर्ग पार्टी दिखेगी जिसकी नींव खुद अंग्रेजों ने अपने मतलब से रखी थी।
संस्कृत विरोध की इस हवा के पीछे उर्दू की चिंगारी को जानकारों ने पकड़ लिया।
कर्नाटक में उर्दू, जिसकी वहां कोई भावभूमि नहीं है, कोई संस्कार नहीं है, के नाम पर वहां एक विश्वविद्यालय को आगे बढ़ाने की कोशिश बीते वर्षों में कांग्रेस ने की थी। साथ ही कन्नड़ से खासा मेलजोल रखने वाली संस्कृत के विश्वविद्यालय के निर्माण का विरोध तेज किया जा रहा था।
संस्कृत, तमिल, कन्नड़, उड़िया, बांग्ला, मराठी या अन्य भारतीय भाषाएं, ये सभी देश का गौरव हैं। इनमें संस्कृत को छोड़ अन्य भाषाओं में एक क्षेत्र और स्थानीयता दिखाई देती है परंतु संस्कृत का पालना तो बहुत व्यापक है।
हमें पढ़ाया जाता है कि आर्य बाहर से आए थे, दुनिया में कोई देश क्या अपने यहां पढ़ाता है कि आर्य उनके यहां से गए थे। जब कहीं से कोई गया नहीं तो भारत में बाहर से आया कैसे? जब ऐसा था ही नहीं तो आर्य आक्रमण का सिद्धांत के आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण कैसे हो सकता है? द्रविड़ों को दक्षिण में धकेलने की बात और आर्यों के आने की बात तथ्यत: गलत है।
संस्कृत ने उत्तर में कश्मीरी डोगरी, से लेकर दक्षिण में कन्नड़, तमिल, तक सभी भाषाओं की झोली भरने का काम किया। शब्दकोश, व्युत्पत्ति शास्त्र देखें तो भारत के आंगन में खेलती भाषाओं का साझापन लिपियों के अंतर से परे लोकोक्तियों, मुहावरों और उपमाओं तक गहरा है।
इससे इतर भी संस्कृत के फैलाव को देखना है तो देखें कि भारोपीय भाषा परिवार में संस्कृत कहां तक है? रूस तक चले जाएं तो रूसी में द्वार को द्वेर कहते हैं, संस्कृत का द्वौ (2) रूसी में ‘द्वा’ अग्नि का ‘अगेन’ हो जाता हैं। अंग्रेजी-फारसी में भी संस्कृत के अनेक शब्द मिलते हैं, फारसी से एक शब्द आया है खरगोश। हम इसे जीव-विशेष के संदर्भ में देखते हैं। परंतु इसे भाषाओं के सहज मेल के संदर्भ में देखें तो ज्ञान की कहानियां खुलने लगती हैं। फारसी की एक अभिव्यक्ति है हमातनगोश, इसका अर्थ है-बहुत ध्यान से सुनना। ऐसे जैसे पूरा शरीर ही मानो कान हो। यहां गोश का अर्थ कान है। अब आइए खरगोश पर। गोश का अर्थ कान और खर? खर यानी संस्कृत वाला खर-गधा। यानी जिसके गधे जैसे कान हों, वह जीव है -खरगोश।
भाषा ने तो परस्पर लेनदेन को औदार्य के साथ स्वीकारा था। भेद मिटाए थे मगर विभाजन के सौदागर इसे किस दृष्टि से देखते हैं?
संस्कृत का वैश्विक फैलाव छोड़ भी दें तो भारतीय भाषाओं के साथ संस्कृत हिंदी का वैर पैदा करने के अभियानों को हवा देने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों से एक मूल प्रश्न किया जाना चाहिए-आर्य और द्रविड़ के आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण क्यों हो..और यह कब तक चलेगा? जब आर्य आक्रमण का सिद्धांत ही रद्द हो गया, जो सिद्धांत विज्ञान की कसौटी पर धराशाई हो गया, इतिहास में खारिज हो गया, वह राजनीतिक प्रपंच के तौर पर भाषा और साहित्य में कब तक पढ़ाया जाएगा? देश को खंडित करने का रोग पैदा करने के लिए भाषा में जो ‘प्रोटो द्रविड़ियन’ सिद्धांत का जहर तैयार किया गया है वह अकादमिक जगत में कब तक परोसा जाता रहेगा?
हमें पढ़ाया जाता है कि आर्य बाहर से आए थे, दुनिया में कोई देश क्या अपने यहां पढ़ाता है कि आर्य उनके यहां से गए थे। जब कहीं से कोई गया नहीं तो भारत में बाहर से आया कैसे? जब ऐसा था ही नहीं तो आर्य आक्रमण का सिद्धांत के आधार पर भाषाओं का वर्गीकरण कैसे हो सकता है? द्रविड़ों को दक्षिण में धकेलने की बात और आर्यों के आने की बात तथ्यत: गलत है।
इसके बाद भाषा के द्र्रविड़ वर्गीकरण में बोलियों को भी एक अलग तरीके का महत्व देने के नाम पर अलग-अलग जातीय वर्ग बांटे गए हैं। जैसे कन्नड़ में होलिया, बड़गा, उरालीक और शोलागा हैं। ये स्थानीय बोलियां है मगर जब कन्नड़ का क्षेत्र देखेंगे तो वह कर्नाटक में बोली जाती है जबकि होलिया नागपुर, भंडारा, बालाघाट के क्षेत्र के लोगों द्वारा भी बोली जाती है।
मतलब सीधा-सीधा है कि आप एक भाषा में भी स्थानीय लोगों की विशिष्ट पहचान को खड़ा करना और उन्हें लड़ाना चाहते हैं। यह अंग्रेजों का षड्यंत्र था-बांटो और राज करो।
भाषाओं की एकात्मता के बजाय उनको आपस में लड़ाने का यह काम कोरा राजनीतिक प्रपंच है।
कन्नड़ ध्वन्यात्मक लिपि है, जिसमें पहले व्यंजन लिखे जाते हैं, फिर मात्रा। इसमें खंडीय लेखन होता है यानी अक्षर अलग-अलग लिखे जाते हैं। ऐसी सुरीली, कर्णरंजक कन्नड़ के साथ ऐसा कर्कश कोलाहल!
यदि हम यह मान कर देखें कि हर भाषा स्वतंत्र है, तो किसी भाषा में साम्यता नहीं मिलेगी। परंतु कन्नड़, तेलुगु और सिंहली लिपि-शब्दों में मेल देखिए। तीनों ही जगह संस्कृत से शब्द गए हैं। यदि भाषओं में आपस में सहयोग है तो इस सहयोग को तोड़ने वाले क्या हासिल करना चाहते हैं?
यहां एक और बात महत्वपूर्ण है कि प्रोटो द्रविड़ियन के संबंध में एक सिद्धांत डोरियन फुलर ने और एक सिद्धांत फ्रैंकलिन साउथवर्थ ने दिया था। ये बहुत हाल की यानी दो दशक के भीतर के सिद्धांत हैं। बाहर के लोग हमारी भाषाओं पर शोध करने के लिए आए, उनकी दृष्टि और मंतव्य क्या थे, यह समीक्षा का विषय और महत्वपूर्ण प्रश्न है।
मनुष्य के विकास पर संस्कृत के प्रभाव के वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं। साइंटिफिक अमेरिकन में 2018 में एक शोध प्रकाशित हुआ। यह शोध किया था जेम्स हर्ट्जेल ने। शोध में पता चला कि संस्कृत पढ़ने से हमारा संज्ञानात्मक कौशल (Cognitive skills) बढ़ता है। इसके अलावा संस्कृत के अध्येताओं के मस्तिष्क का न्यूमेरस क्षेत्र अधिक विकसित होता है और दस प्रतिशत तक ज्यादा ग्रे मैटर होता है।
यहां समझना होगा कि यदि एक भाषा व्यक्ति के कौशल में और क्षमता विकास में सहयोगी है और वह भाषा बाकियों की झोली भी भरती है, सहयोग भी करती है, बेहतर समझ भी पैदा करती है, और इसी के साथ पूरे देश को भी एक करने का माद्दा रखती है तो इन चीजों से किसको डर लगता है? इसके पीछे औपनिवेशिक मानसिक स्थिति है राजनीतिक सोच है।
कन्नड़, तेलुगू, मलयालम या संस्कृत… किसी भाषा से डरने की जरूरत नहीं आवश्यकता है इस विध्वंसात्मक राजनीतिक सोच से डरने और इसका निदान करने की।
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