शिक्षक, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, साहित्यकार और राजनेता के रूप में केंद्रीय भूमिका को प्रतिबद्धता से निबाहते हुए भी उस दायरे से बाहर निकलकर नए, क्रांतिकारी तरीके से सोचना और नवीन विचार को निर्भीकता से सामने रखने का गुण डॉ. सम्पूर्णानन्द को तत्कालीन विभूतियों में अलग महत्व का स्थान देता है।
मर्यादा नामक हिन्दी पत्रिका और अंग्रेजी दैनिक ‘टुडे’ के संपादक रहे संपूर्णानन्द जी कांग्रेस पार्टी में सक्रिय रहते हुए भी पाञ्चजन्य में समय-समय पर लेख भेजते थे। देश के सबसे पुराने साप्ताहिक, पाञ्चजन्य के अभिलेखागार ने समय की उथल-पुथल से अप्रभावित स्थिरमना विभूतियों के ऐसे राष्ट्रीय चिंतन को सहेजा है।
समाजवाद का विद्वान साम्यवाद की त्रुटियों और छलावे को उजागर करे, गांधीवाद का अध्येता 'शांति के लिए युद्ध' की बात करे और आजन्म कांग्रेस कार्यकर्ता-नेता रहा व्यक्ति यह सब प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने करे और करता रहे, यह सरल तो छोड़िए, संभव हो सकता था? किन्तु संपूर्णानन्द जी का जीवन असंभव को सरलता से संभव बनाने की यात्रा है। ऐसी यात्रा जहां वे अपना वैचारिक-सामाजिक-राजनैतिक सम्मान और स्थान बनाए रखते हुए सबको झकझोरते, जगाते, चेताते चलते हैं। खास बात यह कि यह सब करते हुए विचारधारा, दल और व्यक्तियों की परवाह वे नहीं करते क्योंकि उनकी चिंताएं बड़ी हैं, विविध प्रकार की हैं और व्यक्ति या परिवार के बजाय समाज, देश और संस्कृति से जुड़ी हैं।
चीनी उकसावे और हमले के संदर्भ में उन्होंने पाञ्चजन्य में लिखा –
- ‘हम शंकर के अनुयायी हैं, धर्म पथ से डिगना नहीं चाहते। कृतज्ञता का अर्थ जानते हैं, सौहार्द के नाम पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकते हैं परन्तु यदि कोई हमारे आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है, हमारे साथ विश्वासघात करता है, तो उस रौद्री शक्ति का भी आह्वान करते हैं जिसका आसन हिमालय के शिखरों पर स्थित है।’
यह शब्द ऐसे थे जिन पर उस समय सत्ता सूत्र संभालने वालों की बोलती बंद थी, लेकिन समाज सही बात सुनना चाहता था। संपूर्णानन्द जी ने उस समय सही बात कहने के लिए जनसंघ के तत्कालीन महामंत्री द्वारा स्थापित पाञ्चजन्य (हिमालय रक्षा अंक) को चुना यह अपने आप में कितनी बड़ी बात है!
पाञ्चजन्य के ही राष्ट्रीय सुरक्षा अंक में 'शांति के लिए युद्ध' आलेख में वे अहिंसा और मानवाधिकार की बहस पड़े बिना युद्ध जैसे ज्वलंत प्रश्न का उत्तर सांस्कृतिक सूक्तों से उद्धृत करते हैं। उन्होंने लिखा
- ‘‘…दुर्गा सप्तशती में वर्णन आया है महिषासुर वध का। जब देवों ने देवी की स्तुति की तो उन्होंने कहा, ‘चित्ते कृपा समर निष्ठुरता।’ हमारे चित्त में कृपा है लेकिन यदि जरूरत पड़े तो समर की निष्ठुरता भी है। हम ‘वार साइकोसिस’ पैदा करना नहीं चाहते। लेकिन देश में ‘डिफेन्स साइकोसिस’ न पैदा करें, लोगों को ‘डिफेन्स माइंडेड’ भी न बनाएं, यह तो बहुत बड़ी नालायकी होगी।’’
राष्ट्रीय सुरक्षा और समाज को आत्मविश्वास से भरने वाली कैसी स्पष्ट सोच है! सबल-सौहार्दपूर्ण समाज व्यवस्था के लिए भारतीय राजनेताओं ने यदि संपूर्णानन्द जी की दृष्टि को अपनाया होता तो समाज की कई भयग्रंथियों, वैचारिक कारणों से रोपे गए 'भारतीय हीनता' के भाव का तब ही उपचार हो जाता। गांधी जी की पहली जीवनी 'कर्मवीर गांधी' का लेखक हिंसा को घृणास्पद और त्याज्य बताते हुए मोर्चा नहीं छोड़ता बल्कि सामाजिक भीरुता और राजनैतिक भ्रम की धुंध छांटता है, बहुतों के लिए यह बात चौंकाने वाली हो सकती है। वैचारिक ध्रुवों के मध्य सत्य का संधान और संतुलन, यह संपूणार्नंद जी की विशेषता है।
तात्कालिक प्रश्नों पर दूरदृष्टि और विचारधाराओं की सही परख के कई उदाहरण सिद्ध करते हैं कि डॉ. संपूर्णानन्द अपने समकालीन लोगों से कहीं आगे और ज्यादा सही थे।
उनके दो आलेख कथन लेते हैं, पहला चीन और दूसरा कश्मीर से जुड़ा है। दोनों मुद्दे ऐसे हैं जिनके बारे में संपूर्णानन्द जी द्वारा तब कही बात आज भी कसौटी पर खरी उतरती है।
जिस समय नेहरू जी 'हिन्दी-चीनी भाई-भाई ' के गुलाबी सपने में खोए थे संपूर्णानन्द जी उस समय भारतीय कम्युनिस्टों की विदेशी आस्था पर पैनी नजर रखे हुए थे और यह बात उजागर भी कर रहे थे। भारत -चीन सीमा विवाद के प्रश्न पर उत्तर प्रदेश विधान सभा में कामरेड झारखंडे राय के भाषण का संज्ञान लेते हुए उन्होंने तीखा और तथ्यपरक लेख लिखा। फरवरी 1960 में 'एक प्रसंग और कम्युनिस्टों की रीति-नीति' के शीर्षक से वे लिखते हैं –
- ‘‘इस प्रकार की घातक शक्ति (कम्युनिस्टों) से हमें सतर्क रहना होगा। यह वह जनसमूह है जिसका तत्वज्ञान और कार्य नागरिक स्वतंत्रता और लोकतंत्र के प्रतिकूल है, पर जो उनका पुरस्कार करने का ढोंग करता हो, अहिंसा की घोषणाएं करके परंपरागत नैतिक मूल्यों को नष्ट करना जिसका धर्म बन गया हो और जो स्वयं को स्वतंत्रता का सबसे बड़ा रक्षक घोषित करते हुए स्वाधीनता संग्राम सेनानियों का निषेध करता हो। कदाचित हम पार्टी की घोषणाओं को सुनकर इस संकट को भूल जाएं और देशभक्ति की आड़ में गृहयुद्ध की धमकी को नजरअंदाज कर दें पर यह आत्मसंतोष हमारे लिए आत्मघाती होगा।’’
कश्मीर का सांस्कृतिक चरित्र बदलने वाले ऐतिहासिक घटनाक्रम पर व्यथित होकर और नेहरू जी की दोषपूर्ण कश्मीर नीति पर प्रश्न उठाते हुए 'अपना कश्मीर, अपनी भूल' आलेख में उन्होंने लिखा –
- ‘‘…आज कश्मीर का एक अंश पाकिस्तान के हाथ में है और इस बात की कोई संभावना प्रतीत नहीं होती है कि यह प्रश्न शीघ्र सुलझेगा। आशंका इस बात की होती है कि बहुत दिनों तक यही परिस्थिति बनी रहेगी और अंत में स्यात् यही निर्णय होगा कि जो जिसके पास है वह रह जाय।’’(पाञ्चजन्य, कश्मीर अंक)
करीब चार दर्जन ग्रंथों, अनेक मंचों और अनवरत लेखन के माध्यम से दर्ज कराई गई दूरंदेशी और खरेपन की यह 'संपूर्ण' दस्तक साहित्य, पत्रकारिता और राजनीति और समाज की थाती है। भाषा, संस्कृति, धर्म, देश, विचारधाराएं और विप्लव, संपूर्णानन्द जी ने हर विषय पर स्थापित सोच के दायरे बड़े किए। सामयिक वैचारिक प्रश्नों की धुंधलाहट को दर्शन, अध्यात्म और संस्कृति के दर्पण में उतारकर साफ किया।
अगस्त 1968 में अपने लेख भारतीय बुद्धिजीवी (भाग-3) में लोकतंत्र एवं सामाजिक व्यवस्था की स्थापित परिभाषाओं का घेरा तोड़ते हुए डॉ. संपूर्णानन्द एकात्म मानवदर्शन के अखंड मंडलाकार स्वरूप तक पहुंचते दिखते हैं। वे लिखते हैं
- ‘‘हम भारतीयों ने लोकतंत्र को अपनी राजनीति का आधार बनाया है।…इस धारणा का आधार यह मान्यता है कि व्यक्ति साधन मात्र नहीं है वरन् स्वयं साध्य है तथा उसके जीवन का एक अपना उद्देश्य एवं महत्व होता है। अवश्य ही वह उद्देश्य समाज में रहकर ही पूरा हो सकता है। समाज के प्रति कर्तव्य की बात यहीं से उठती है और उसका औचित्य भी इसी से सिद्ध होता है। जीवन का यह चरम प्रयोजन और उद्देश्य क्या हो, इसका उत्तर धर्म और दर्शन ही दे सकते हैं। इस प्रश्न के उत्तर की खोज से अधिक महान और आवश्यक शोधकार्य दूसरा नहीं है, क्योंकि इसी पर मनुष्य और उसके समाज का सम्पूर्ण आचरण आधारित होगा।’’
मानव और समाज के संबध को संस्कृति और दर्शन के सूत्र से समझने की जिज्ञासा विगत कालखंड की दो महान विभूतियों को किस प्रकार अलग-अलग प्रश्नों पर एक ही समाधान की ओर खींच रही थी, इतिहास के पन्नों से साम्य की उन झलकियों का साक्षात्कार अनूठा अनुभव है।
संघर्ष की प्रेरणादायी गाथापाञ्चजन्य साप्ताहिक का अवतरण 14 जनवरी, 1948 को भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रेरक आदर्शों एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प के साथ हुआ था। मैं छात्र जीवन से ही इस साप्ताहिक का पाठक रहा हूं, क्योंकि पाञ्चजन्य ने जहां अपने सामान्य अंक के सीमित कलेवर में अनेक स्तम्भों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक दृष्टि के आलोक में पाठकों को देश-विदेश और प्रासंगिक घटनाओं से अवगत करवाने की कोशिश की, तो दूसरी ओर विचार प्रधान लेखों द्वारा मूलगामी राष्ट्रीय प्रश्नों पर भी चिंतन करने की सामग्री प्रदान की है। श्रद्धेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर श्री हितेश शंकर जैसे प्रबुद्ध सम्पादकों द्वारा सुशोभित ‘पाञ्चजन्य’ की गौरवमयी यात्रा साधनों के अभाव एवं सरकारी प्रकोप के विरुद्ध राष्ट्रीय चेतना की जिजीविषा और संघर्ष की प्रेरणादायी गाथा रही है। अन्तरराष्ट्रीय घटनाचक्र हो अथवा आर्थिक, शिक्षा, नारी एवं युवा जगत, राष्ट्रीय चिंतन हो अथवा साहित्य समीक्षा, ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक ने सभी विषय को समुचित स्थान दिया है। राष्ट्र को सर्वांगीण पुनर्रचना के पथ पर आगे ले जाने के जिस संकल्प को लेकर ‘पाञ्चजन्य’ ने अपनी जीवन यात्रा आरम्भ की थी, वह आज भी पूरी शक्ति के साथ अपने उसी कर्त्तव्य पथ पर डटा हुआ है। मैं पाञ्चजन्य की इस अविरल यात्रा के लिए अपनी शुभकामनाएं देता हूं। |
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