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दलित ईसाइयों को चर्च की कैद से मुक्त कराओ

by WEB DESK
Jan 20, 2022, 03:39 am IST
in भारत, दिल्ली
चर्च के विरुद्ध धरना देते दलित ईसाई (फाइल चित्र)

चर्च के विरुद्ध धरना देते दलित ईसाई (फाइल चित्र)

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पाञ्चजन्य के पूर्व संपादक और प्रसिद्ध इतिहासकार  देवेंद्र स्वरूप के आलेख ‘मंथन’ स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित होते थे। अनेक ऐसे पाठक थे, जो उनके लेखों की छायाप्रति कराकर बांटा करते थे। उनका एक ऐसा ही लेख 10 दिसंबर, 1995 के अंक से लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है   

भारत के सार्वजनिक जीवन की इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि जिस ईसाई चर्च नेतृत्व को आज अपराधियों के कठघरे में खड़ा होना चाहिए था वह आज सीनाजोरी के साथ निर्लज्जतापूर्वक स्वीकार कर रहा है कि भारत की ईसाई जनसंख्या का 65 प्रतिशत भाग आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से दलित है, उसे अनुसूचित जातियों के लिए निर्धारित आरक्षण की सुविधाएं मिलनी चाहिए। वह इस प्रश्न के उत्तर में मौन हो जाता है कि ईसाई मत की गोद में 400-500 वर्ष तक रहने के बाद भी इतना बड़ा वर्ग दलित क्यों है, अस्पृश्यता और दारिद्रय का शिकार क्यों है?

क्या यह ऐतिहासिक सत्य नहीं है कि हिन्दू समाज के प्रबुद्ध और शिक्षित वर्ग को ईसाई मत की आध्यात्मिक एवं तार्किक श्रेष्ठता से प्रभावित करने में असफल होने पर मिशनरियों ने हिन्दू समाज के उस वर्ग पर अपनी पूरी शक्ति केन्द्रित कर दी, जो आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन के गर्त में पड़ा हुआ है। इस वर्ग को मिशनरियों ने भुलावा दिया कि उनकी यह दुर्दशा हिन्दू धर्म और उसकी जाति प्रथा के कारण है।

हिन्दू धर्म को छोड़कर ईसाई मत की गोद में आ जाने के बाद उनके लिए सामाजिक समता और आर्थिक विकास का द्वार खुल जाएगा और चर्च की छत्रछाया में वे अल्पकाल में एक सुखी श्रेष्ठ जीवन जीने की स्थिति में पहुंच जाएंगे, पर सैकड़ों साल बीत जाने पर भी ये अभागे अस्पृश्यता, ऊंच-नीच और दारिद्रय की यातना भोगने के लिए विवश हैं।

दोगली नीति
ऐसा नहीं है कि मतान्तरितों की इस दयनीय स्थिति की ओर चर्च के नेतृत्व का ध्यान समय-समय पर खींचा न गया हो। 18वीं शताब्दी से ही ऐसे अनेक दस्तावेज उपलब्ध होते हैं, जिनसे विदित होता है कि चर्च के भीतर समय-समय पर यह बहस चलती रही है कि मतान्तरितों का आर्थिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक स्तर ऊपर उठाने में चर्च असफल क्यों रहा है, चर्च स्वयं को छुआछूत की बीमारी से मुक्त क्यों नहीं कर पा रहा? मतान्तरितों के आर्थिक और शैक्षणिक विकास के नाम पर चर्च ने समृद्ध ईसाई देशों से अपार धन बटोरा, विशाल भवन खड़े किए, मिशनरियों और पादरियों के लिए सब प्रकार की सुख-सुविधाएं जुटायीं। वह अपने वैभव का प्रदर्शन करने में लगा रहा, किन्तु मतान्तरण और मतान्तरितों के नाम पर बटोरे गए धन को उनके आर्थिक, सामाजिक विकास पर कतई खर्च नहीं किया गया।

चर्च की इस दोगली नीति के विरुद्ध गांधीजी ने सशक्त स्वर उठाया था। उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय मिशनरी संगठन के मंत्री फादर मोट से बहस करते हुए कहा था, ‘‘यदि ईसाई मत श्रेष्ठ है, उसमें मनुष्य को आध्यात्मिक विकास करने की क्षमता अधिक है, तो आप लोग मेरे महादेव भाई जैसे अपेक्षाकृत जागरूक और जानकार हिन्दू को मतान्तरित करने का प्रयास क्यों नहीं करते? क्यों इन बेचारे अबोध और भोले हरिजनों पर अपनी शक्ति लगा रहे हैं?’’ लालच और छलावे से मतान्तरित किए गए लोगों को गांधीजी ने ‘चावल ईसाई’ जैसा नाम भी दिया था।

गांधीजी ने बार-बार कहा कि शेष हिन्दुओं का मतान्तरण करने के लिए पहले आप अपना घर तो ठीक करिए, उसमें छुआछूत और ऊंच-नीच को मिटाइए। पर चर्च ने गांधीजी की चेतावनियों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उलटे वे मतान्तरितों की हिन्दू धर्म में वापसी के विरुद्ध गांधीजी से शिकायत करते रहे। एक बार तो उन्होंने ईसाई मतान्तरितों को वापस आने के राजगोपालाचारी के आह्वान की भी गांधीजी से शिकायत की, किन्तु गांधीजी ने दो-टूक जवाब दिया कि मतान्तरितों का अपने पुराने धर्म में वापस आना धर्मान्तरण नहीं, ‘घरवापसी’ है।


गांधीजी ने अन्तरराष्ट्रीय मिशनरी संगठन के मंत्री फादर मोट से बहस करते हुए कहा था, ‘‘यदि ईसाई मत श्रेष्ठ है, उसमें मनुष्य को आध्यात्मिक विकास करने की क्षमता अधिक है, तो आप लोग मेरे महादेव भाई जैसे अपेक्षाकृत जागरूक और जानकार हिन्दू को मतान्तरित करने का प्रयास क्यों नहीं करते?’’  


 

अस्तित्व बचाने के लिए
चर्च नेतृत्व अपने वैभव का प्रदर्शन करता रहा और अनुयायी गरीबी में जीते रहे। स्वतंत्रता के बाद भी समय-समय पर कई समितियों और सर्वेक्षणों ने भारतीय ईसाइयों की बहुसंख्या के आर्थिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन का चित्र प्रस्तुत किया। 1965 में केरल में कुमार पिल्लाई कमेटी ने वहां के ईसाई समाज के बारे में रपट दी, 1970 में सन्तानम रपट ने स्पष्ट शब्दों में लिखा कि हिन्दू समाज में तो अपने सामाजिक-आर्थिक पिछड़ों को ऊपर उठाने का आन्दोलन प्रबल हो रहा है, किन्तु चर्च में ऐसी कोई हलचल नहीं है। 1975 में चिदम्बरम रपट में भी यह बात कही गयी, पर चर्च नेतृत्व इस बारे में मौन रहा। होना तो यह चाहिए था कि वह आत्मालोचन करता, अपनी असफलता को स्वीकार करके इन अभागों को ईसाई मत के बन्धन से मुक्त कर देता, उन्हें हिन्दू धारा में वापस आने की न केवल छूट देता, बल्कि प्रोत्साहित करता।

पर चर्च नेतृत्व ने ऐसा कुछ नहीं किया। वह उनके आर्थिक, सामाजिक विकास का जोरदार प्रयास करने के बजाय उन पर अपना शिकंजा बनाए रखने के उपायों की खोज करता रहा। अब पानी सर से ऊपर पहुंच गया। आज जिन्हें दलित या अनुसूचित जाति के ईसाई बताया जा रहा है, अब उन्होंने यह सोचना प्रारम्भ कर दिया कि अपने पूर्वजों के धर्म को छोड़कर उन्हें ईसाई क्यों बनाया गया था? ईसाई मत में इतने लम्बे समय तक रहने के बाद उन्हें क्या मिला? यदि इसी दशा में रहना है तो क्यों न वे अपने पुरखों के घर में ही वापस लौट चलें? एक मतान्तरित ईसाई द्वारा लिखित ‘ट्वाइस एलियनेटेड’ जैसी भेंट पुस्तकों में भारतीय ईसाई समाज की वेदना प्रगट हुई है। जब चर्च नेतृत्व ने देखा कि अब उसके बाड़े में असन्तोष बढ़ता जा रहा है, उसमें कभी भी भगदड़ मच सकती है और उसका बाड़ा खाली हो सकता है तब उसने मतान्तरितों के असन्तोष को ठंडा करने के लिए भारतीय संविधान द्वारा हिन्दू समाज की अनुसूचित जातियों को दी गयी आरक्षण की बैसाखी को छीनकर उनके हाथ में थमाने की रणनीति पर सोचना प्रारम्भ कर दिया।

सुविधा हड़पने के लिए
पर सवाल यह है कि स्वतंत्रता के 40 वर्ष बाद यह आन्दोलन क्यों? भारतीय राजनीति के आज के चरित्र पर यह बहुत बड़ा व्यंग्य है कि मतान्तरण की जिस व्याधि को रोकने के लिए ही संविधान में हिन्दू समाज की पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की सुविधा का प्रावधान किया गया था, आज उसी सुविधा को मतान्तरण के कार्य में लगा चर्च हड़पना चाहता है। संविधान सभा की बहस और संविधान के लागू होते ही 1950 में एक राष्ट्रपति आदेश द्वारा यह स्पष्टीकरण कि ‘अनुसूचित जाति’ शब्द प्रयोग केवल हिन्दू जातियों के लिए ही लागू होता है कि जवाहरलाल नेहरू और डॉ. आंबेडकर जैसे नेताओं की दृष्टि में अनुसूचित जातियों का अर्थ और सीमा क्या थी? किन्तु वोट बैंक राजनीति के प्रभावी होने पर शब्दों के अर्थ बदल रहे हैं, अनुसूचित जातियों और ‘हरिजन’ जैसे शब्दनामों के स्थान पर ‘दलित’ शब्द पर आग्रह किया जा रहा है। ‘दलित’ शब्द की व्याख्या बदल कर उसके अन्तर्गत अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और ईसाई आदि मजहबी सम्प्रदायों को सम्मिलित किया जा रहा है। इसीलिए ईसाई नेताओं ने ‘दलित एकता’ का नारा लगाना शुरू कर दिया है। संविधान द्वारा आरक्षण की सुविधा को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बनाने के बजाय सत्तालोलुप राजनीतिज्ञों और दलों ने उसे जाति और सम्प्रदाय के आधार पर संगठित वोट बैंकों को खरीदने का माध्यम समझ लिया है।

भारतीय राजनीति के इस चरित्र परिवर्तन को देखकर ही चर्च नेतृत्व का यह हौसला हुआ है कि वह अपने पापों को स्वीकार करने एवं उन पर पश्चाताप करने के बजाय 1950 के राष्ट्रपतीय आदेश में संशोधन की मांग कर पा रहा है। चर्च का यह कहना कि 1956 में सिखों और 1990 में नवबौद्धों को आरक्षण की सुविधा दिए जाने से स्पष्ट है कि अब आरक्षण का आधार मजहब नहीं रह गया है। शायद चर्च यह भूल गया है कि संविधान में हिन्दू शब्द की व्याख्या के अन्तर्गत प्रारम्भ से ही सिख, बौद्ध एवं जैन आदि भारतीय मूल के उपासना पंथों को सम्मिलित किया गया है। आज भले ही कुछ भ्रान्त और स्वार्थी नेता इन उपासना पंथों को उनके मूल स्रोत से अलग करने की बात करें पर हिन्दू समाज का आंगन उनके लिए सदैव खुला है, खुला रहेगा। पर ईसाई मत अपने को सिख और बौद्ध पंथों में रहने का अधिकारी तब तक नहीं कह सकता जब तक वह अपने विदेशी मूल से पूरी तरह संबंध विच्छेद न कर ले और अपनी विफलता को स्वीकार करके मतान्तरितों को अपनी कैद से मुक्त न कर दे।    

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