आपने अपने नए शोध के विषय के रूप में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को क्यों चुना?
असल में मैं यह अध्ययन करना चाहता था कि विश्व में किसी समाज के सम्मुख चुनौतियों का सामना करने के लिए कौन सी शक्तियां काम कर रही हैं और उन्हें कितनी सफलता मिल रही है। इस दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का अनूठा संगठन है। इसलिए मैंने इस विषय पर शोध करने का विचार किया। मेरा तात्पर्य उन चुनौतियों से है जिनसे समाज की आधारभूत मान्यताओं के ध्वस्त होने का खतरा होता है। फलस्वरूप समाज अपने चरित्र और स्वरूप के समक्ष उत्पन्न खतरे का मुकाबला करने के लिए कोई न कोई प्रतिरोध उत्पन्न करता है।
तो आप जानते हैं कि हिंदू समाज को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनके प्रतिरोध स्वरूप समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उदय हुआ?
जी हां, सबसे प्रमुख चुनौती मैं पश्चिमीकरण को मानता हूं, जिसके बहाव में लोग अपनी धार्मिक आस्थाओं, विश्वासों और सामाजिक एकजुटता को छोड़ते जा रहे हैं।
संघ पर अतीतजीवी, कट्टरपंथी, आधुनिक जीवन व्यवहार के प्रतिकूल आचरण के जो आरोप लगते हैं, क्या आपने अपने शोध के दौरान इनकी भी पड़ताल की है?
मैंने स्पष्ट रूप से यह पाया है कि संघ सुधारवादी संगठन है जो उन जीवन मूल्यों को समय सापेक्ष पुनर्जाग्रत कर रहा है, जिन्हें वह हिन्दू समाज के लिए उचित समझता है। इसका संगठन बहुत ही असाधारण है, इसीलिए पुस्तक में हमने ‘ब्रदरहुड इन सेफ्रन’ (गैरिक रंग में भाईचारा) का उल्लेख किया है। इसके पीछे का भाव यही है कि संघ ने एक सामाजिक बंधुत्व का भाव लेकर संगठन खड़ा किया है, न कि आदेशात्मक तानाशाही ढंग से। मैं समझता हूं कि संघ ने अद्वैत की इस भावना से काम किया है कि दूसरे के साथ अपने जैसा ही व्यवहार करो। बल्कि एक कदम आगे बढ़कर यह प्रमाणित कर दिया कि ‘‘मैं नहीं तू ही’’ अर्थात खुद को समाज के साथ एक कर लेना। यह कोई कम बात नहीं। इस प्रकार का विचार करना एक बात है और उसे अमल में लाना दूसरी। संघ इन दोनों कार्यों में सफल रहा है।
विचारधारा की दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मुख्य प्रतिरोधी शक्ति आप किसे मानते हैं?
हालांकि आपके प्रश्न के उत्तर में सीधे-सीधे कम्युनिस्टों का नाम लिया जा सकता है, क्योंकि एक वे ही संगठन और विचारधारा की दृष्टि से संघ के विपरीत ध्रुव पर हैं। लेकिन मैं सझमता हूं कि भारत में कम्युनिस्टों की विचारधारा भी अब शुद्ध नहीं रह गयी है। अब वे मूल परिभाषा के अनुसार कम्युनिस्ट नहीं रह गए हैं। अपितु वे भारतीय परिवेश में यहां के लोकतंत्र में ढल गए हैं, जो स्वयं में एक विसंगति है। यही नहीं, उनमें परस्पर इतने गुट हो गए हैं कि वे आपस में एक-दूसरे पर हमले करते हैं और उनके नेता परस्पर नासमझी और ‘गैर कम्युनिस्ट लाइन’ अपनाने का आरोप लगाते हैं। पश्चिमी देशों में कम्युनिस्टों के बारे में विशेष सर्वेक्षण किया गया तो पता चला कि अधिकांश कम्युनिस्ट चर्च जाते हैं और जीवन-मरण, विवाह जैसे अवसरों पर पूरे धार्मिक-विधि-विधान करते हैं। मुझे लगता है कि ऐसा ही भारत में भी होगा। इसलिए अच्छा यही होगा कि संघ की विचारधारा और कम्युनिस्टों की असलियत जनता के सम्मुख प्रस्तुत की जाए और उस पर व्यापक चर्चा हो। इसलिए मेरे विचार में कम्युनिस्टों और संघ के बीच ‘निर्णायक संघर्ष’ जैसी चर्चा व्यर्थ है। ये मात्र गरजना है, असलियत नहीं। भारतीय कम्युनिस्टों से किसी मजबूत संघर्ष की आशा नहीं की जा सकती। प्रस्तुति : तरुण विजय
टिप्पणियाँ