पिछले दिनों आपने राज्यसभा में मुस्लिम नागरिक संहिता में सुधार की मांग की है। आपकी दृष्टि में मुस्लिम नागरिक संहिता के प्रमुख दोष क्या हैं?
मुस्लिम नागरिक संहिता मुस्लिम महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण है। मसलन, पति पत्नी को कभी भी तलाक दे सकता है। इस मामले में मुस्लिम नागरिक संहिता पुरुषों के इतने पक्ष में है कि छोटे से झगड़े के दौरान अगर पति गुस्से में आकर तीन बार तलाक शब्द कह दे तो तलाक वैध मान लिया जाता है। जबकि पत्नी को तलाक देने का अधिकार नहीं होता। दूसरा, संहिता के तहत मुस्लिम पुरुष चार शादियां कर सकता है। इसके कारण मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति दयनीय हो जाती है।
क्या मुस्लिम नागरिक संहिता में परिवर्तन मुस्लिम समुदाय के धर्म में हस्तक्षेप नहीं होगा?
जब तुर्की, सूडान, अल्जीरिया, मिस्र, पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे मुस्लिम देश सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बना सकते हैं तो हम क्यों नहीं बना सकते?
जब भी मुस्लिम नागरिक संहिता में परिवर्तन की बात चलती है तब मुस्लिम समाज विरोध क्यों करता है?
जहां तक समान नागरिक संहिता के विरोध का सवाल है, मैं नहीं मानती कि सारा मुस्लिम समाज इसका विरोध करता है। सामान्य मुस्लिम और विशेषकर महिलाएं इसकी विरोधी नहीं हैं वरन् समर्थक हैं। सिर्फ मुल्ला-मौलवी अपने निहित स्वार्थों के कारण उसका विरोध करते हैं।
क्या आपको नहीं लगता कि इस संबंध में कानून बनाने से पहले मुस्लिम समाज में इसके पक्ष में वातावरण बनाया जाना चाहिए?
मैं चाहती हूं कि पहले कानून बनाया जाना चाहिए। लोग उसके डर से ही बहुविवाह नहीं करेंगे, न ही तलाक देना आसान होगा। इसके बावजूद भी कुछ लोग अन्य विवाह कर सकते हैं, जैसे गैर मुस्लिम करते हैं, परंतु उनकी दूसरी पत्नियां रखैल ही मानी जाती हैं, उन्हें कानूनी मान्यता प्राप्त नहीं होती। संपत्ति के मामले में भी उन्हें दावेदार नहीं माना जाता। इससे मनमाने तलाकों पर भी रोक लगेगी।
दरअसल, सरकार इसलिए मुस्लिम नागरिक संहिता में परिवर्तन करना नहीं चाहती, क्योंकि उसे डर है कि इससे मुस्लिम जनमत उसके विरुद्ध हो जायेगा?
यह हो सकता है। इसलिए मैं चाहती हूं कि मुस्लिम महिलाएं बड़े पैमाने पर प्रधानमंत्री से मिलकर मुस्लिम नागरिक संहिता से होने वाली उनकी व उनके परिवारों की दुर्दशा के बारे में बतायें तो शायद सरकार इस दिशा में पहल करने की सोचे।
विश्व में जो इस्लामी पुनरुत्थानवाद की लहर आयी है, उसमें शरीयत कानून को लागू करने पर बल दिया जा रहा है।
यह धारणा सही नहीं है। मुस्लिम समाज मुस्लिम नागरिक कानून का समर्थक नहीं है। सिर्फ मुल्ला—मौलवी ही परिवर्तन का विरोध करते हैं। वे भी अपनी संतानों पर उसे लागू करना नहीं चाहेंगे। क्या आपको लगता है कि आज का शिक्षित मुस्लिम युवक इसका समर्थन कर सकता है?
प्रस्तुति: सतीश पेडणेकर (पाञ्चजन्य: 5 सितम्बर, 1982)
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