‘पाञ्चजन्य’ मकर संक्रांति के महापर्व पर प्रारम्भ हुआ विचारों की उज्ज्वल राहों का मुखपत्र है। मुझे याद है, जिस दिन यह प्रकाशित हुआ – इसके पहले अंक में आवरण पर भगवान श्रीकृष्ण के मुख से शंखनाद की चित्रकृति तब प्रकाशित हुई थी। जन-मन में बसे श्रीकृष्ण की उस शंखध्वनि का निहितार्थ ही था, ‘जब भी धर्म का विनाश हुआ, अधर्म का उत्थान हुआ, तब तब मैंने खुद का सृजन किया। साधुओं के उद्धार और बुरे कर्म करने वालों के संहार के लिए, धर्म की स्थापना के प्रयोजन से, मैं हर युग में, युग-युग में जनम लेता रहूंगा।’
मुझे लगता है, भगवान श्रीकृष्ण के इस संदेश को ही अपना ध्येय वाक्य बनाते हुए इस पत्रिका ने निरंतर पत्रकारिता में आदर्श जीवन मूल्यों का निर्वहन किया है। पत्रकारिता के अपने उज्ज्वल मूल्यों में नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करके पाठकों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाला प्रमुख पत्र है।
नियमित पाठक के तौर पर मैंने यह अनुभव किया है कि ‘पाञ्चजन्य’ ने स्वातन्त्रोत्तर हिन्दी पत्रकारिता में अपने निर्भीक स्वर में राष्ट्र और राष्ट्रीयता से जुड़े मुद्दों पर सदा ही पाठकों को संपन्न किया है। खंड-खंड में अखंड भारतीय संस्कृति का उद्घोष करते इस साप्ताहिक ने पत्रकारिता के स्वस्थ मूल्यों में सदा विश्वास ही नहीं रखा बल्कि राष्ट्र से जुड़े मुद्दों पर सदा ही निर्भीकता से बगैर किसी की परवाह किए अविचल अपनी बात रखी।
पं. दीनदयाल उपाध्याय जी के मौलिक चिंतन और उनके एकात्म मानववाद के आदर्श मूल्यों को शब्द-शब्द मैंने इसी पत्र के जरिए ग्रहण किया। राजनीति में रहते हुए इस बात को भी अंदर से सदा ही अनुभूत किया है कि साधनविहीन होने पर भी सत्ता की ओर से आने वाले अनेक विपरीत प्रवाहों को झेलते हुए भी ‘पाञ्चजन्य’ अपने आदर्श पत्रकारिता मूल्यों से कभी विचलित नहीं हुआ। मुझे याद है, देश से जुड़े मुद्दों पर इससे जुड़े लेखकों ने अपने प्रखर स्वरों में सदा ही गर्जना की है। चीन की साम्राज्यवादी नीति पर लिखने की बात हो या फिर लोकतंत्र का गला घोटने की भी जब-जब कोशिश की गई, ‘पाञ्चजन्य’ ने उस पर सदा तल्ख स्वर में अपनी लेखनी से विरोध दर्ज किया।
मैं यह मानता हूं, इसमें प्रकाशित सामग्री का ध्येय भी यही रहा है कि पाठक वैचारिक रूप से समृद्ध और संपन्न हो। संविधान के आलोक में यह भी पाता हूं कि आम नागरिक के अधिकारों की बात सदा इस साप्ताहिक ने की है तो उनके कर्तव्यों के लिए जागरूक करने का कार्य भी किया है। ‘राष्ट्रीय एकता अंक’, ‘तिब्बत अंक’, ‘कश्मीर अंक’, ‘भारत-नेपाल मैत्री अंक’ आदि इसके विशेषांक वैचारिक आलोक में महत्वपूर्ण विमर्श लिए इतने महत्वपूर्ण हैं कि आज भी बहुत से अंक मैंने अपने संग्रह में सहेजे हुए हैं। जब भी पढ़ता हूं, चिंतन की नई दृष्टि मिलती है।
मेरा यह सौभाग्य रहा है कि संविधान, संस्कृति और राष्ट्र के आलोक में मैंने भी समय-समय पर इसमें लेखन किया है। मैं यह मानता हूं कि ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक पत्रिका नहीं बल्कि विचार की संस्कृति है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के सरोकारों में इस समाचार पत्र ने लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के रूप में जनतंत्र की हमारी जड़ों को हरा रखने का कार्य ही निरंतर नहीं किया बल्कि पाठकों को वैचारिक रूप में समृद्ध और संपन्न करते हुए उन्हें भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों से भी निरंतर जोड़े रखा है।
हीरक जयंती किसी भी साप्ताहिक पत्रिका के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण अवसर होता है। यह वह अवसर होता है जब हम अतीत से प्रेरणा लेकर भविष्य की नई राहों की ओर उन्मुख होते हैं। मैं चाहता हूं, ‘पाञ्चजन्य’ का आलोक चहुंओर फैले। यह पत्रिका और अधिक संपन्न, समृद्ध हो।
मेरी स्वस्तिकामना है।
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