जयप्रकाश नारायण का जो पहला आलेख
पाञ्चजन्य अपने जन्म से ही लोकतंत्र समर्थक रहा है। इसीलिए पत्रिका के नियंताओं ने हमेशा इसे लोकतंत्र के मंच के रूप में प्रस्तुत किया। पाञ्चजन्य की इस भावना और स्वभाव पर देश के अन्यान्य विचारकों ने हमेशा विश्वास किया और अपनी बात जनता तक पहुंचाने के लिए पाञ्चजन्य को माध्यम बनाया।
पाञ्चजन्य के प्रमुख लेखकों में विभिन्न विचारधाराओं के विचारक और लेखक शामिल रहे। पाञ्चजन्य के हीरक जयंती वर्ष में प्रवेश करने के अवसर पर हमारे अभिलेखागार में ऐसे तमाम आलेख प्राप्त हुए जिनके लेखक आज विभिन्न विचारधाराओं के पुरोधा और महापुरुष माने जाते हैं। इनमें कांग्रेस से संबद्ध कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य कृपलानी, डॉ. भगवानदास, सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, आचार्य राममूर्ति, जे.सी. कुमारप्पा, समाजवादी पुरोधा डॉ. राममनोहर लोहिया, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन तक शामिल रहे।
अभिलेखागार में पाञ्चजन्य के पुराने अंक टटोलने पर जयप्रकाश नारायण के कई आलेख प्राप्त हुए। जयप्रकाश जी का जो पहला आलेख पाञ्चजन्य में मिला, वह कोई एकल आलेख नहीं था बल्कि आलेख श्रृंखला थी। शीर्ष का था मैं कम्युनिज्म से विरक्त क्यों हुआ? यह 4 नवंबर, 1957 के अंक में प्रकाशित हुआ। इसमें जयप्रकाश जी बताते हैं-
- लेनिन की अद्वितीय सफलता के समाचारों ने निस्संदेह क्रांति के मार्क्सवादी तरीकों की महत्ता की श्रेष्ठता की घोषणा कर दी। …साथ ही मार्क्सवाद ने एक दूसरे प्रकार के प्रकाश की ज्योति के दर्शन भी मुझे कराए झ्र समानता और भातृत्व। स्वतंत्रता पर्याप्त नहीं थी। प्राणि मात्र स्वतंत्र होना चाहिए, छोटे से छोटा। और इस स्वतंत्रता का अर्थ होना चाहिए भूख-गरीबी और शोषण से मुक्ति।
- 1929 के अंत में जब मैं स्वदेश वापस आया, मैंने देखा कि यहां मार्क्सवाद के लिए अनुकूल वातावरण नहीं है। राष्ट्रवाद अत्यंत उग्र हो चुका था और जब दिसंबर में गांधी जी लॉर्ड इर्विन को इस बात पर तैयार न कर पाए कि वह सरदार भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी की सजा से मुक्त कर दें, राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए संघर्ष प्रारंभ हो गया। मैं भी पूर्ण हृदय से संघर्ष में कूद पड़ा। किंतु, मैंने संघर्ष काल में भारतीय कम्युनिस्टों को कहीं भी प्रथम पंक्ति में अग्रसर होते नहीं देखा।
- मैंने भूमिगत रहकर कार्य प्रारंभ किया। किंतु मैंने वहां भी कम्युनिस्ट कार्यकतार्ओं को नहीं पाया। …दुखपूर्ण बात यह थी कि वे राष्ट्रीय आंदोलन को बुर्जुआ आंदोलन और महात्मा गांधी को बुर्जुआ दास कहकर बदनाम कर रहे थे। …यहां मैं केवल इतना बताना चाहता हूं कि भारतीय कम्युनिस्टों से मेरा मतभेद कैसे और क्यों हुआ। वास्तव में भारतीय कम्युनिस्ट तृतीय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल द्वारा प्रतिपादित नीतियों के अनुसार चल रहे थे, जो कि उस समय तक पूर्णतया स्टालिन के कब्जे में आ चुकी थी। 1928 से ही जिन नीतियों का प्रतिपादन कमिन्टर्न कर रही थी, उसने संसार भर के देशों में समाजवादी आंदोलनों और श्रमिकों में मतभेद खड़े कर दिए तथा उपनिवेशिक राज्यों में कम्युनिस्टों को राष्ट्रीय आंदोलनों से अलग कर दिया। मुझे प्रतीत हुआ, जो बाद में सत्य सिद्ध हुआ, कि उक्त नीति सिद्धांतत: मार्क्सवाद के सर्वथा विपरीत है और विशेष रूप से लेनिन द्वारा घोषित उपनिवेश संबंधी नीतियों के। … भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से मेरे मतभेद कता परिणाम यह हुआ कि रूस से भी मेरे सैद्धांतिक संबंध टूटने लगे।
जयप्रकाश जी की यह आलेख श्रृंखला तीन अंकों में प्रकाशित हुई। इसके बाद जयप्रकाश जी पाञ्चजन्य में नियमित लिखने लगे और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर सवाल उठाने लगे। 25 नवंबर, 1957 के अंक में उन्होंने आलेख लिखा- क्या राजनीति ही सर्वस्व है? जयप्रकाश जी वामपंथ से विमुख हो चुके थे, और वे जिन गरीबी-शोषण के विरुद्ध काम करना चाहते थे, उसके लिए उन्हें राजनीति उपयुक्त औजार नहीं लग रही थी। कुछ असमंजस था। वे आलेख के अंत में लिखते हैं –
- नैतिक जीवन और मानवोचित गुणों तथा मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह आवश्यक है कि शारीरिक भूख को संयमित किया जाए। सामाजिक मूल्यों के विकास की दृष्टि से तो यह और भी आवश्यक है। सामाजिक जदीवन का अर्थ है सामूहिक श्रम से प्राप्त वस्तुओं का समान रूप से उपभोग। जैसे-जैसे लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में स्वेच्छा से सहभागी बनते जाएंगे, समाज में आपसी खिंचाव तथा शोषण कम होता जाएगा।
अगले अंक में जयप्रकाश जी यह विचार करते हैं कि क्या राजनीति का कोई विकल्प नहीं। यहां वे मार्क्सवाद से सर्वोदय की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं। वे स्पष्ट लिखते हैं –
- उक्त विचार मुझे सर्वोदय और समाजवाद की ओर ले जाते हैं- पार्टी और सत्ता की राजनीति तथा पार्टी और सत्ता की राजनीति से अलग अर्थात राजनीति और विनोबा के शब्दों में लोकनीति। …मुझे यह स्पष्ट हो चुका है कि राजनीति से समाज का कल्याण नहीं हो सकता, समाज में समानता, स्वाधीनता, भातृत्व और शांति नहीं लाई जा सकती। किंतु क्या राजनीति का कोई विकल्प है?
- फिर पाञ्चजन्य में जयप्रकाश के आलेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित होती है, सर्वोदय की ओर। यह समय जयप्रकाश जी के मस्तिष्क में उमड़ रहे प्रश्नों और उनके उत्तर तलाशने के उनके तरीके को प्रदर्शित करता है। सर्वोदय की ओर की 10 से अधिक कड़ियां प्रकाशित हुईं। दरअसल यह आलेख श्रृंखला मैं कम्युनिज्म से विरक्त क्यों हुआ का विस्तार ही था। पाञ्चजन्य ने जयप्रकाश की उस पूरी यात्रा को जयप्रकाश के ही शब्दों में पाठकों तक पहुंचाया।
- जयप्रकाश जी इसके बाद भी पाञ्चजन्य में लिखते रहे। दिसंबर, 1971 में उन्होंने लिखा झ्र भारतीय इतिहासकार अभी भी ब्रिटिश दृष्टि त्यागें। जयप्रकाश जी कथित दक्षिणपंथी नहीं थे। उन्होंने 70 के दशक की शुरूआत में ही इतिहास के क्षेत्र में हो रही बेइमानी को पकड़ लिया था जो आज भी प्रासंगिक है। दुखद यह है कि जयप्रकाश जी के नाम पर राजनीति करने वाले अब केवल उनका नाम लेते हैं और उनके विचार के विरोधियों के साथ गलबहियां करते हैं। जयप्रकाश जी जानते थे कि भारत को आगे ले जाने के लिए हर क्षेत्र में भारतीय दृष्टि ही श्रेयस्कर है, आयातित दृष्टि नहीं। जबकि पहले वे मार्क्सवादी रह चुके थे।
फिर जयप्रकाश जी सत्तर के दशक में पाञ्चजन्य में लेखन के प्रति उन्मुख हुए। वह समय था इंदिरा गांधी सरकार की जोर-जबरदस्ती का। संपूर्ण क्रांति का आगाज हो रहा था और जयप्रकाश जी उसके नेतृत्व की ओर बढ़ रहे थे। जयप्रकाश जी ने उक्त आंदोलन का नेतृत्व संभाल लिया। वह पाञ्चजन्य के जरिए अपनी बात देशवासियों तक पहुंचाते रहे। यहीं से नानाजी देशमुख उनके निकट सहयोगी बने। जयप्रकाश जी तानाशाही के विरुद्ध देश की उम्मीद बन गए। तब दुष्यंत कुमार ने उनके लिए लिखा –
- इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है
- नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो हैं।
जयप्रकाश जी लोकनायक बन चुके थे। उनकी वय 75 के करीब पहुंच गई थी। पाञ्चजन्य ने उनके अमृत महोत्सव पर प्रकाशित किया। क्रांति! क्रांति! क्रांति! कैसी क्रांति चाहिए।
जयप्रकाश जी के अलावा कई अन्य समाजवादी कांग्रेसी नेता भी पाञ्चजन्य में नियमित लिखते रहे। इनमें कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य कृपलानी, डॉ. भगवान दास, प्रकाशवीर शास्त्री, विनोबा भावे, आचार्य राममूर्ति, डॉ. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन जैसे दिग्गज राजनीतिक-सामाजिक चिंतक शामिल रहे।
कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी ने अगस्त, 1957 के अंक में भारतीय लोकतंत्र के विशिष्ट पहलुओं पर आलेख लिखा। आचार्य कृपलानी ने मई 1970 में आज का भारतीय राजनीतिक नेतृत्व शीर्ष से आलेख लिखा। राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन सितंबर, 1956 में शिक्षा का माध्यम हिंदी को बनाने की मांग को लेकर पाञ्चजन्य में प्रकाशित हो चुके थे। डॉ. भगवान दास ने भी अगस्त, 1948 में अपने आलेख में भारत की राष्ट्रभाषा पर विचार किया था। अप्रैल, 1954 मं पाञ्चजन्य में संत विनोबा भावे द्वारा लिखित आलेख पैसे का प्रश्न प्रकाशित हुआ था। डॉ. राममनोहर लोहिया ने सितंबर, 1957 में पाञ्चजन्य में आलेख लिख कर सभी तरह के भ्रष्टाचार के लिए अंग्रेजी को एकमात्र कारण माना।
इस तरह पाञ्चजन्य विचारकों के लिए, भले ही वे किसी विचारधारा से संबंध रखते हों, अपनी बातें जनता तक पहुंचाने के लिए पाञ्चजन्य लोकतंत्र के मंच के रूप में सामने आया और एक विश्वसनीय माध्यम बना।
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