गूढ़ प्रश्नों के सरल उत्तर देती थी गुरुजी की लेखनी
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गूढ़ प्रश्नों के सरल उत्तर देती थी गुरुजी की लेखनी

by WEB DESK
Jan 17, 2022, 01:36 am IST
in भारत, संघ, दिल्ली
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम श्रद्धेय श्री माधवराव जी सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरुजी स्वाधीनता के पश्चात राष्ट्रीय भाव जागरण में जुटे थे। समाज के विभिन्न अंगों के साथ ही देश के विभिन्न विषयों पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए उन्होंने पाञ्चजन्य को माध्यम बनाया। पाञ्चजन्य को गुरुजी का मार्गदर्शन एवं स्नेह सदैव मिलता रहा। पाञ्चजन्य के लेखों के माध्यम से उन्होंने कई मूलभूत प्रश्नों को सरल शब्दों में स्पष्ट किया

पाञ्चजन्य में प्रकाशित एक आलेख में गुरुजी राष्ट्रीय कौन, देशद्रोही कौन, साम्प्रदायिक कौन, विषय पर लिखते हुए स्पष्ट करते हैं –
साधारणत: –

 

  1. अपने देश और उसकी परम्पराओं के प्रति, उसके ऐतिहासिक महापुरुषों के प्रति, उसकी सुरक्षा तथा समृद्धि के प्रति, जिनकी अव्यभिचारी एवं एकान्तिक निष्ठा हो, वे जन राष्ट्रीय कहे जाएंगे।
  2. वे लोग साम्प्रदायिक कहे जाएंगे, जो उपर्युक्त प्रकार की निष्ठा रखते हुए भी, शेष समाज से अलग, अपने पंथ, अपनी बिरादरी, भाषा और तथाकथित जाति के आधार पर सोचते हों, और अपने लाभ के लिए एवं राजनीतिक सत्ता के उपभोग के निमित्त, ऐसे विशेष अधिकारों व सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हों जो कि सर्वसामान्य समाज को उपलब्ध न हों और इस उद्देश्य से वे दूसरे के साथ घृणा व द्वेष भी करें, उनका विरोध करें तथा कभी-कभी हिंसात्मक उपायों का भी अवलंबन करें।
  3. (क) वे लोग शत्रु कहे जाएंगे, जिनकी निष्ठा विभक्त हो और जो (1) ऊपर बताई गई निष्ठा से व्यापक किसी अन्य निष्ठा को लेकर चलते हों और इन निष्ठाओं के संघर्ष में, देश के हितों की अवहेलना करें अथवा उनके प्रति उदासीन रहें तथा अपनी अन्य आस्थाओं को वरीयता दें
    (ख) जो लोग अपने को बाहर से आने वाले, हमलावर, विजेता और अभी हाल तक स्वयं को देश के शासक व मालिक मानतें हैं, वे सब विदेशी तो स्पष्टत: हैं ही, किंतु यदि वे फिर से यहां के शासक बनने की आकांक्षा लेकर चलें तो फिर वे शत्रु भी कहे जाएंगे।
  4.  राष्ट्रीय होते हुए भी यदि कुछ लोग विकारवश, राष्ट्र से अलग होने तथा एक भिन्न एवं प्राय: विरोधी राजसत्ता के निर्माण के लिए प्रयत्नशील हों, तो वे राष्ट्रविरोधी कहे जाएंगे।
  5. (5 -क) उपर्युक्त (4) में वर्णित वे लोग जो कि अपने उद्देश्यों की सिद्धि के लिए 3(क) व (ख) के साथ हाथ मिलाने में न हिचकिचाएं और जो इस उद्देश्य से किसी विदेशी शक्ति के साथ गठबंधन करने की इच्छा या प्रयत्न करें, तो वे राष्ट्रद्रोही कहे जाएंगे।
    (ख) वे राजनीतिक दल जो सत्ता प्राप्ति के लिए या सत्ताधीश बने रहने के लिए, उपर्युक्त 3 (क) व (ख) तथा (4) के साथ सहयोग करें तो वे 5 (क) के समान ही माने जा सकते हैं।
    (ग) वे राजनीतिक दल जो किन्हीं विदेशी सत्ताओं की आधारभूत विचारधाराओं को मानते हों, अपने देश की तुलना में ऐसी सत्ताओं को प्राथमिकता देते हों और अपने देश पर उनका आक्रमण होने पर भी उसे सहन करें, उसके विषय में सफाई दें, उसे न्यायोचित ठहराएं या प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से अपने देश के विरुद्ध उसमें सहायक हों, तो वे देशद्रोही और शत्रु दोनों ही माने जाएंगे।

 

  •  दुर्भाग्यवश आज अपनी पवित्र मातृभूमि में, उपर्युक्त सभी प्रकार के लोग विद्यमान हैं। इनका ठीक और निर्भीक ज्ञान, एक संगठित और सशक्त राष्ट्र जीवन बनाने के लिए आवश्यक है।

गुरुजी द्वारा जून, 1970 में लिखे गए इस आलेख की सामग्री आज भी प्रासंगिक है। आज कई दलों के नेता सरकार को हटाने के लिए शत्रु शक्तियों से मदद मांगते दिखे हैं, देश को अस्थिर करने के लिए विदेशी फंडिंग से वेश बदलकर आंदोलन और धरना करते नजर आते हैं। यह हालत कई शिक्षा परिसरों में भी व्याप्त है। हमें राष्ट्रीय, साम्प्रदायिक, शत्रु, राष्ट्रद्रोही में अंतर करना समझना होगा।
22 नवंबर, 1970 के अंक में प्रकाशित एक आलेख में गुरु जी लिखते हैं कि एक भी दरिद्रनारायण भूखा हो तो भरपेट खाने का अधिकार नहीं। वे भारतीयों से आह्वान करते हैं कि

  •  ‘हम लोग सोचें कि अपना देश दरिद्र है। ऐसा सब लोग बोलते भी हैं। कितने लोग होंगे कि जिनके पास घर नहीं? कितने लोग होंगे जिनके पास पर्याप्त वस्त्र नहीं है? कितने लोग होंगे कि जिनको खाने के लिए मिलता नहीं? अगणित लोग, अगणित लोग, ऐसे अगणित लोगों के ऐसे भीषण दुख में रहते हुए यदि हम लोग या कोई भी यह कहेगा कि मैं अपने सुख स्वार्थ के पीछे लगकर अधिकाधिक ऐशोआराम का जीवन प्राप्त करुंगा तो यह शोभा देगा क्या? यह मेरा समाज है, यह मेरा राष्ट्र है, मेरी मातृभूमि के ये सब पुत्र हैं, इस प्रकार की आत्मीयता के लिए अनुकूल होगा क्या? तो हमें विचार करना चाहिए कि अपना स्वास्थ्य तो हमे मर्यादित रखना ही पड़ेगा।

आलेख में गुरु जी बताते हैं कि कम्युनिज्म भारत के लिए किस प्रकार विनाशकारी है? मानव जीवन के संबंध में भारत की श्रेष्ठ चिंतनधारा कम्युनिज्म से किस प्रकार मेल नहीं खाती? गुरु जी लिखते हैं –

  • सामान्य मनुष्य के विकास की दिशा क्या है? मनुष्य का विकास किस प्रकार होता है? सामान्य मनुष्य सर्वप्रथम खाने-पीने अर्थात इंद्रिय सुख में ही रमना चाहता है। फिर जैसे-जैसे उसका विकास होता है, वह विभिन्न कलाओं में रुचि लेने लगता है। इसके बाद वह ज्ञान की उपासना करने लगता हैष सृष्टि के सूक्षम रहस्यों की जानकारी प्राप्त करने के लिए वह बेचैन होता है और ज्ञान संपादन कर संतुष्ट होता है। और अंत में चराचर सृष्टि में व्याप्त एक ही परमसत्य का साक्षात्कार कर भगवान की उपासना करने लगता है। इस प्रकार मनुष्य जड़ से चैतन्य की ओर, भोगवाद से भगवत्प्राप्ति के श्रेष्ठ अध्यात्मवाद तक प्रवास करता है। संपूर्ण विश्व में मानव विकास की यही दिशा दिखाई पड़ती है।
     
  •  इस संदर्भ में हम कम्युनिज्म अथवा सोशलिज्म का विचार करें तो हमें विदित होगा कि यह विचारधारा मनुष्य को आध्यात्मिक धरातल से नीचे खींचती है। इस विचारधारा में मनुष्य जीवन की इतिकर्तव्यता खाने-पीने और मौज करने में मानी गई है। यही इसकी शिक्षा है।
     
  • क्या इसे मनुष्य की प्रगति का मार्ग कहा जाएगा? प्रगतिशील कहलाने वालों का यह कैसा थोथा दंभ है। सच तो यह है कि यह प्रतिगामी विज्ञान है। ठीक-ठीक जिसे जड़-निरीश्वर अथवा अंग्रेजी में जिसे रेट्रोग्रेड कहते हैं, ऐसा यह पतनशील तत्वज्ञान है। यह मार्ग मनुष्य को पशु बनाने की ओर प्रवृत्त ककरता है। वह भी आदा पशु नहीं, पूरा हिंसक पशु। इसीलिए कम्युनिज्म हमारे लिए प्रथम कोटि का शत्रु है गुरु जी मनुष्येतर विचारधाराओं के फैलाव के तीन कारण, उनके परिणाम और निवारण बताते हैं। वे लिखते हैं
  • देश में फैली दरिद्रता का लाभ अनेक अहिंदू लोगों को मिलता है। वे इसका लाभ उठाकर अपना प्रभाव फैलाने का यत्न करते हैं। दूसरा कारण यह है कि विगत सौ-डेढ़ सौ वर्षों में हमारे देश में धर्म श्रद्धा का ह्रास हुआ है। तीसरी बात यह कि विगत वर्षों में अपनी राष्ट्रीयता की शुद्ध भावना का विचार ही छूट गया है।
     

गुरुजी इसका परिणाम बताते हैं –

  • इससे राष्ट्र के सच्चे स्वरुप का विस्मरण हो चुका है। इन तीन कारणों से समाज की तरुण पीढ़ी वैचारिक क्षेत्र में आधारहीन हो गई है। देश, धर्म, राष्ट्र किसी तरह की शुद्ध भावना उन्हें नहीं मिलती। परिणाम यह है कि चारों ओर अराष्ट्रीय विचारों के जो बवंडर उन्हें दिखाई पड़ते हैं, उनकी ओर वे थोड़े खिंच जाते हैं। इन सब परिस्थितियों में हमारे राष्ट्रीय जीवन पर जो आघात होते हैं, उनका लाभ अहिंदू लोगों को ही होता है। विभिन्न दल और जातियों के बीच आपसी संघर्ष की जो दुर्भाग्यपूर्ण क्रिया चल पड़ी है, वह हमारे मार्ग में बड़ा रोड़ा बनी है। समाज विरोधियों को आत्मीय मानना और अपनों को तिरस्कृत करने की यह प्रवृत्ति हिंदू समाज पर बहुत बड़ा आघात करने वाली है।

गुरुजी इसके निवारण के लिए लिखते हैं –

  • इन सब परिस्थितियों में से हमें मार्ग निकालना है। अपने हिंदू समाज की एकता का निर्माण करना है। समाज को स्वत्व संपन्न, उत्कर्षमय स्वाभिमानी बनाना है। समाज की सुरक्षा के लिए प्रयत्न करना है। इसलिए आवश्यक है कि अपने सब बंधुओं को इन विकृतियों से दूर रखकर हम सबकी सच्ची हार्दिक आत्मीयतापूर्ण एकता उत्पन्न करें। अंत:करण की आत्मीय भावना थोथी नहीं, सच्ची होनी चाहिए।

यहां आकर गुरु जी का वह आह्वान जुड़ जाता है जिसमें वे शुरु में ही कहते हैं कि एक भी दरिद्रनारायण भूखा हो तो भरपेट खाने का अधिकार नहीं। गरीबों, समाज के आखिरी पायदान पर दबे-सिकुड़े व्यक्ति को बराबरी में लाना है, यह दृष्टि है।
एक अन्य आलेख ‘तेरा गौरव अमर रहे मां’ में गुरुजी लिखते हैं-

  • आज नींव का पत्थर बनने वाले व्यक्ति चाहिए क्योंकि यह बनना अच्छा है अन्यथा उसके बिना शिखर नहीं ठहरेगा। उसे स्थिर रखने के लिए नींव का पत्थर अत्यंत महत्वपूर्ण है। शिखर पर कौवे भी बैठ जाते हैं। नींव का पत्थर बनकर मैं सुदृढ़ भारत को खड़ा कर दूंगा और गौरव के साथ खड़ा हुआ भारत अटल शोभा को प्राप्त होगा, ऐसा हमारा विचार है।

एक अन्य रिपोर्ट में गुरु जी कहते हैं कि हरिजनों की दशा में सुधार से ही भावात्मक एकता संभव है।
पाञ्चजन्य के विभिन्न अन्य अंकों में गुरु जी ने गोरक्षा के विषय पर विशद तर्क दिए हैं। इसमें नवंबर, 1953 में भारत में ‘कानूनन गोहत्या बन्दी आवश्यक’ शीर्षक से आलेख, अगस्त, 1956 में स्वातंत्र्य और गोरक्षा शीर्षक से आलेख में उन्होंने समुचित कारण और आवश्यकताएं बताईं। अपने कुछ आलेखों में उन्होंने शिवाजी को देश का आदर्श बताया और मयार्दा पुरुषोत्तम श्रीराम की अहमियत बताई। गुरुजी का मानना था कि भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान से ही राष्ट्र का कल्याण सम्भव है, यह आलेख उन्होंने अप्रैल, 1957 में लिखा। मार्च, 1958 में वे फिर लिखते हैं कि राष्ट्र की आत्मा के पुनर्जागरण की आवश्यकता है। सितंबर, 1969 में वे स्पष्ट लिखते हैं ककि जनतंत्र साध्य नहीं साधन मात्र है। बांग्लादेश युद्ध के समय जनवरी, 1972 में वे स्पष्ट लिखते हैं कि युद्ध पिपासु नहीं, युद्ध सिद्ध समाज चाहिए। गुरु जी के विचारों और स्नेह से पाञ्चजन्य हमेशा पल्लवित होता रहा।     

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