15अगस्त, 1947—भारत को स्वाधीनता मिल चुकी थी। एक नई परिस्थिति, नया परिदृश्य सामने था। विभाजन के दंश जनता भुगत रही थी। पाकिस्तान पैदा होते ही कुटिल चालें चलना शुरू कर चुका था। कुछ रियासतें असमंजस में थीं कि किधर जाएं। प्रशासनिक तंत्र, सुरक्षा, शिक्षा, इतिहास, स्वास्थ्य, उद्योग, सबके लिए दृष्टि तय करनी थी। भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप ढांचा खड़ा करना था। तय करना था कि इनकी, देश की, दिशा क्या हो?
मार्ग तय करने को लेकर अलग-अलग आवाजें थीं, अलग-अलग आकांक्षाएं थीं। बड़ा प्रश्न था, संविधान में उल्लिखित-हम भारत के लोग-कौन हैं, हमारी राष्ट्रीय पहचान क्या है? क्या होंगे हमारे रास्ते?
अब तक जो पत्रकारिता हुई, उनका उद्देश्य भारत को स्वतंत्र कराना था। भारत स्वतंत्र हुआ। उद्देश्य प्राप्त हुआ। अब पत्रकारिता क्या करे? प्रश्न सर्वथा नए थे।
पराई सरकार गई। यह सरकार अपनी है। परन्तु सरकारें तो आती-जाती हैं, बड़ी बात है सांस्कृतिक सरोकार! तो इन्हीं प्रश्नों के उत्तरों के उद्घोष के रूप में भारतीय पत्रकारिता में शंखनाद हुआ पाञ्चजन्य का। 14 जनवरी, 1948 को साप्ताहिक पाञ्चजन्य का पहला अंक प्रकाशित हुआ।
भाऊराव देवरस जी की प्रेरणा, दीनदयाल उपाध्याय जी की पहल और युवा संपादक अटल बिहारी वाजपेयी का पहले संपादक के तौर पर कमान संभालना, इतने नक्षत्रों का एक साथ जुड़ना पत्रकारिता में राष्ट्रीय भाव के इस अनूठे अवतरण की मुनादी कर रहा था। पाञ्चजन्य के लिए मातृ-संस्था बना लखनऊ का राष्ट्रधर्म प्रकाशन। जन्म को एक माह भी नहीं हुआ था कि गांधी हत्या से प्रभावित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, 1948 में पाञ्चजन्य का गला दबाने की कोशिश की। संपादक, प्रकाशक और मुद्रक सभी को जेल भेज दिया गया। कार्यालय पर ताला ठोक दिया गया। साढ़े चार माह बाद न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही पाञ्चजन्य का फिर से प्रकाशन संभव हो सका। किन्तु छह महीने निकलने के बाद दिसम्बर, 1948 में पाञ्चजन्य की अभिव्यक्ति पर फिर हमला हुआ। इस बार सात माह के लिए कार्यालय बंद रहा। जुलाई, 1949 में यह ताला हटते ही पाञ्चजन्य का शंखनाद पहले ही की तरह गूंज उठा।
अभावों के बाद भी ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता की यह ऐसी गूंज थी जो एक गहन उसांस के साथ मद्धम स्वर में उठी किन्तु धीरे से पूरे राष्ट्रीय वातावरण में छा गई। जन्म लखनऊ में हुआ था किन्तु पाञ्चजन्य जरा बढ़ा तो राष्ट्रीय मंच की ओर बढ़ चला। बीस बरस की उम्र थी इसकी जब राष्ट्रीय फलक पर और पहचान जमाने के लिए 1968 में इसका प्रकाशन दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। यह भी संयोग ही है कि लखनऊ और दिल्ली के बीच जैसा घर-सा संबंध पाञ्चजन्य के प्रथम संपादक और पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी का रहा, कुछ वैसी ही कहानी इस साप्ताहिक की भी रही। 1972 में राष्ट्रधर्म प्रकाशन ने इसका प्रकाशन एवं मुद्रण पुन: लखनऊ से करने का निश्चय किया। 1972 में भारतीय सेनाओं की विजय को शिमला समझौते की मेज पर गंवा देने के विरुद्ध पाञ्चजन्य के आक्रोश से तिलमिलाई इंदिरा सरकार ने इसके सम्पादकों एवं प्रकाशकों को लम्बे समय कानूनी कार्रवाई में फंसाए रखा।
आपातकाल की गाज जिन समाचारपत्रों और प्रकाशनों पर गिरी, पाञ्चजन्य उनमें अग्रणी था। जून, 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा से लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश की और मार्च, 1977 में आपातकाल की समाप्ति पर ही पाञ्चजन्य फिर यात्रा शुरू कर सका। 1977 में इसका प्रकाशन फिर दिल्ली से शुरू करने के लिए राष्ट्रधर्म ने इसके प्रकाशन का पूरा दायित्व समविचारी प्रकाशन संस्था ‘भारत प्रकाशन (दिल्ली) लिमिटेड’ को हस्तांतरित कर दिया।
कहते हैं, परिवर्तन अपरिवर्तनीय नियम है। बदलाव के बावजूद अपने बीजभाव को बचाए रखना ही बड़ी बात है। पाञ्चजन्य की पत्रकारीय यात्रा में यह बड़ी बात बहुत अच्छे से रेखांकित दिखती है। पाञ्चजन्य ने आकार और साज-सज्जा में बदलाव को लेकर समय-समय पर तरह-तरह के प्रयोग किए। किन्तु राष्ट्रीय विचारों के प्रसार के लिए ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता की अपनी धुरी से यह जरा भी नहीं डिगा। संक्षेप में कहें तो-राष्ट्रीय विचार को बनाए रखते हुए जनप्रियता, पाञ्चजन्य की कसौटी सदा यही रही।
पाञ्चजन्य का निर्भीक स्वर लोगों को आकर्षित करता रहा तो इससे सरकार की भौहें भी तनती रहीं। 1959 में कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा और दलाईलामा के निष्कासन के समय पाञ्चजन्य ने नेहरू की अदूरदर्शिता और चीन-नीति की तथ्यात्मक आलोचना की। 1962 में भारत पर चीन के हमले के लिए पाञ्चजन्य ने नेहरू की विफल विदेश एवं रक्षा नीति को दोषी ठहराया, जिससे तिलमिलाकर नेहरू सरकार ने पाञ्चजन्य को धमकी भरा नोटिस
भी दिया।
आज पाञ्चजन्य की यात्रा अपने 75वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। इन साढ़े सात दशकों में दूरदृष्टि, सत्य के संधान में जुटे संपादकों की एक सुदीर्घ परंपरा रही। प्रथम संपादक अटल बिहारी वाजपेयी के बाद पूर्व संपादकों में राजीव लोचन अग्निहोत्री, ज्ञानेन्द्र सक्सेना, गिरीश चन्द्र मिश्र, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, तिलक सिंह परमार, यादव राव देशमुख, वचनेश त्रिपाठी, केवल रतन मलकानी, देवेन्द्र स्वरूप, दीनानाथ मिश्र, भानुप्रताप शुक्ल, रामशंकर अग्निहोत्री, प्रबाल मैत्र, तरुण विजय, बल्देव भाई शर्मा जैसे नाम आते हैं। नाम बदले होंगे पर ‘पाञ्चजन्य’ की निष्ठा और स्वर में कभी कोई परिवर्तन नहीं आया। वे अविचल रहे।
पाञ्चजन्य के इस अंक का नियोजन करते हुए हमने इस यात्रा को अलग-अलग कोणों से देखने, परखने आए पाठकों से साझा करने का प्रयास किया है।
राष्ट्रीय मुद्दों की परख करती पत्रकारिता। इन मुद्दों पर जनमत प्रबोधन। विविध विचारों का खुला मंच। विशेषज्ञों, मर्मज्ञों को सामान्य जन से जोड़ने वाला सेतु। जिन विषयों से बाकी कतराते हों, उन्हें तर्कों/प्रमाणों के साथ उठाने वाला साप्ताहिक… यह सब रंग पाञ्चजन्य के हैं।
हाल के मुद्दों पर दृष्टिपात करें तो चीन, पाकिस्तान, कश्मीर, नक्सल, गोहत्या, कन्वर्जन, मिशनरी कारिस्तानियां, भाषाई आधार पर प्रांतों के बीच के संघर्ष जैसे विषय अक्सर छाए रहते हैं। पाञ्चजन्य के संपादकों ने अपने संपादकीयों के जरिए सात दशक पहले से इन मुद्दों पर केंद्र सरकार को, जनता को, देश को सतर्क करना प्रारंभ किया था। आज हमारे लिए उन संपादकीयों पर दृष्टिपात करना समीचीन है कि आज भी वे कैसे प्रासंगिक हैं। इन मुद्दों पर पाञ्चजन्य ने निरंतर विभिन्न लेखकों के आलेख और रपटें प्रकाशित कीं, ताकि पाठकों को विषय के बारे में समग्रता से जानकारी मिल सके। पाञ्चजन्य ने मात्र विषय उठाने का कार्य ही नहीं किया, बल्कि उस मुद्दे की यात्रा पर निरंतरता के साथ नजर रखी और उसके परिणाम तक पहुंचने तक खड़ा रहा। इनमें हम कश्मीर, आपातकाल, श्रीराम जन्मभूमि, नई शिक्षा नीति का मुद्दा शामिल कर सकते हैं।
इन दशकों में कई महापुरुषों ने पाञ्चजन्य के माध्यम से देश को विभिन्न विषयों पर दृष्टि दी। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी, एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय, प्रख्यात चिंतक एवं श्रमिक संगठक दत्तोपंतजी ठेंगड़ी, तृतीय सरसंघचालक श्री बाला साहेब देवरस, पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी, चिंतक एवं समाज संगठक श्री भाऊराव देवरस जी, विचारक श्री रंगाहरि जी, श्री मा.गो. वैद्य जी आदि विभूतियों के मार्गदर्शन पर दृष्टिपात करना महत्वपूर्ण होगा। इन मार्गदर्शकों ने सामयिक विषयों से लेकर समाज के संगठन, शिक्षा, उद्योग, संस्कृति पर देश की जनता को अपनी दृष्टि बनाने के लिए आधार प्रदान किया।
पाञ्चजन्य का विश्वास भारतीय संस्कृति के अनुरूप लोकतंत्र में रहा है। मार्ग भिन्न हो सकते हैं परंतु सभी लोग अपने हैं। सत्य का संधान करना है तो विचार सबके प्रस्तुत होने चाहिए। इस दृष्टि से अन्यान्य विचारक पाञ्चजन्य की लेखक सूची में सदैव बने रहे। इनमें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, आचार्य कृपलानी, डॉ. भगवान दास, डॉ. संपूर्णानंद, जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया, मीनू मसानी, प्रख्यात वामपंथी विचारक मानवेंद्रनाथ राय, विनोबा भावे, आचार्य राममूर्ति, अभिषेक मनु सिंघवी या मृणाल पांडे …विविध विमर्श को स्थान देता पाञ्चजन्य लोकतंत्र का मंच बन गया।
पाञ्चजन्य ने विभिन्न विषयों पर दृष्टि बनाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को अपनी लेखक सूची में शामिल किया। डॉ. ईश्वरी प्रसाद, जदुनाथ सरकार, राधाकुमुद मुखर्जी, रमेशचंद्र मजूमदार, आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव, सतीश चंद्र मित्तल जैसे ख्यातिलब्ध इतिहासकारों ने अपने आलेखों से पाञ्चजन्य को समृद्ध किया और पाठकों की दृष्टि को दिशा दी। न्यायविदों में पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति मेहरचंद महाजन, ननी पालकीवाला, वी.एम. तारकुण्डे, सुभाष कश्यप ने विधि की दृष्टि से विभिन्न विषयों पर दृष्टि दी।
साहित्यकारों में हिंदी के पाणिनि कहे जाने वाले व्याकरणाचार्य आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, भाषाविद् डॉ. नगेंद्र, नाटककार डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, उपन्यासकार अमृतलाल नागर, जैनेंद्र कुमार अज्ञेय, डॉ. महीप सिंह, डॉ. रामकुमार भ्रमर, मनहर चौहान, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह ‘दिनकर’, महादेवी वर्मा, भवानीप्रसाद मिश्र, सोहनलाल द्विवेदी, नरेंद्र कोहली इत्यादि साहित्यकारों ने न केवल साहित्य पर, बल्कि समाज के अन्य विषयों पर भी अपनी राय पाञ्चजन्य के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखी। इसी तरह शीर्ष वैज्ञानिकों कंप्यूटर विज्ञानी विजय पाण्डुरंग भटकर, अंतरिक्ष विज्ञानी कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन और रसायन विज्ञानी रघुनाथ अनंत माशेलकर का लेखकीय अवदान भी पाञ्चजन्य अभिलेखागार की थाती है।
पाञ्चजन्य समय-समय पर तात्कालिक विषयों पर साक्षात्कार भी प्रकाशित करता रहा है। एक लंबी यात्रा के बाद जब हम अतीत की ओर मुड़कर देखते हैं तो पाञ्चजन्य की झोली में विभिन्न महापुरुषों और दिग्गजों के अनेक साक्षात्कार नजर आते हैं।
गांधी हत्या से प्रभावित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, 1948 में पाञ्चजन्य का गला दबाने की कोशिश की। संपादक, प्रकाशक और मुद्रक सभी को जेल भेज दिया गया। कार्यालय पर ताला ठोक दिया गया। साढ़े चार माह बाद न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही पाञ्चजन्य का फिर से प्रकाशन संभव हो सका। किन्तु छह महीने निकलने के बाद दिसम्बर, 1948 में पाञ्चजन्य की अभिव्यक्ति पर फिर हमला हुआ। इस बार सात माह के लिए कार्यालय बंद रहा
पाञ्चजन्य में विशेषांकों के प्रकाशन की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। प्रत्येक संपादक के काल में कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण विशेषांकों का प्रकाशन हुआ है। विशेषांकों में सामयिक विषयों के अतिरिक्त समाज को प्रभावित करने वाले मुद्दापरक, रुझानपरक और महापुरुष केंद्रित अंकों का प्रकाशन हुआ। पाञ्चजन्य के अभिलेखागार से हम उन विशेषांकों का एक पुनरावलोकन करेंगे। इसमें संघ निर्माता डॉ. हेडगेवार अंक, क्रांति संस्मरण अंक, वीर वनवासी अंक, अयोध्या आंदोलन अंक, आदर्श वीरव्रती अंक, देवालय बने सेवालय अंक, जिहाद से जूझता गणतंत्र, युवा भारत अंक समेत विभिन्न विशेषांकों की झांकी है।
महापुरुषों को स्वार्थ के खांचे में बांटने, उन्हें एक की बपौती और दूसरे के शत्रु के रूप में प्रस्तुत करने वाली राजनीतिक चाल, अकादमिक छल के विरुद्ध भी पाञ्चजन्य ने महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी है। महापुरुषों को खंड-खंड देखने के दृष्टिकोण को सुधारते हुए पाञ्चजन्य ने देश के समक्ष महापुरुषों को समग्रता से उनके सही परिप्रेक्ष्य में रखने का गुरुत्तर दायित्व भी संभाला। इस संदर्भ में महाराणा प्रताप अंक, सावरकर अंक, सुभाष चंद्र बोस अंक, आंबेडकर अंक, गुरु नानकदेव अंक, गुरु गोबिंद सिंह अंक, प्रेमचंद अंक, विष्णु श्रीधर वाकणकर अंक का नाम लेना प्रासंगिक होगा।
इस तथ्यपरक समग्रता से विमर्श की धारा तो बदली ही, साप्ताहिक पत्रिकाओं के लिए तकनीकी चुनौती के दौर में पाञ्चजन्य लगातार नए पाठक जोड़ने और प्रसार के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाला साप्ताहिक बना।
पाञ्चजन्य की कुछ आवरण कथाएं ऐसी रहीं जिनके विषय, सामग्री और कलेवर ने पाठकों के मन पर विशेषांक सरीखी छाप छोड़ी। ये अंक उन आवरण कथाओं के कारण पहचाने गए। इनमें ‘फेक न्यूज’ की जांच की आड़ में एजेंडे के तहत झूठी खबरें फैलाने वालों की खबर लेता अंक ‘सांच को आंच’, नई शिक्षा नीति के लिए विचार करता अंक ‘बंधुआ सोच से आजादी’, चर्च के पादरियों की कारिस्तानियों को उद्घाटित करता अंक ‘सलीब पर बचपन’, भारत में अमेजन के अनैतिक पैंतरों पर ‘ईस्ट इंडिया कंपनी 2.0,’ अफगानिस्तान की धरती को बंदूक के बल पर शरिया की धरती बनाने वाले तालिबान द्वारा महिलाओं की अस्मिता को आघात पहुंचाने और सेकुलर तबके की चुप्पी पर अंक ‘बुर्का और बंदूक’, दुनियाभर में इस्लाम छोड़ रहे मुस्लिमों पर अंक, ‘एक देश-एक चुनाव’, ‘एक देश-एक संविधान’ अंक प्रमुख हैं।
पाञ्चजन्य आज अपनी पत्रकारीय यात्रा के 75वें वर्ष में प्रवेश करते हुए मुद्रण के अतिरिक्त सभी नए माध्यमों, ऐप और सोशल मीडिया पर भी है। विश्वभर में करोड़ों लोगों तक इसकी पहुंच है। प्रसार की दृष्टि से पाञ्चजन्य देश की शीर्ष पत्रिकाओं में है।
समय बदला है, साधन बदले हैं, संचालन-सम्पादन टोलियों में चेहरे भले ही बदले हैं। परंतु पत्रकारिता के इस प्रखर प्रवाह में 75वें वर्ष में भी जो बात नहीं बदली, वह है, भारत की गौरव पताका विश्व में लहराने का लक्ष्य।
‘बात भारत की’ जैसे गर्वीले उद्घोष के साथ पाञ्चजन्य की पत्रकारिता उस दिशा में बढ़ रही है जो समय का आह्वान है, जिसका रास्ता दीनदयाल जी और अटल जी सरीखे पुरखों ने दिखाया था।
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