वैदिक चिंतन कहता है कि हम सबको सूर्य देवता की आराधना इसलिए करनी चाहिए क्योंकि वे समूची प्रकृति का केन्द्र हैं। हमारे सभी शुभ व अशुभ कर्मों के साक्षी हैं। वे सतत क्रियाशील रहकर हम धरतीवासियों का भरण-पोषण करते हैं। इसीलिए सनातन धर्म में सूर्य नारायण को "विराट पुरुष" की संज्ञा दी गयी है। सवित देवता को नमन का यह वैदिक युगीन आलोक पर्व हमारे अंतस में शुभत्व का संचार कर हमें हमारे लौकिक जीवन को देवजीवन की ओर मोड़ता है। तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना व सरस्वती के त्रिवेणी संगम पर लगने वाले एक माह के माघ मेले की शुरुआत मकर संक्रान्ति की शुभ तिथि से ही होती है। हिन्दू धर्म में इस दिन तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर के गंगा स्नान को मोक्षदायी स्नान की संज्ञा दी गयी है।
मकर संक्रांति एक विशिष्ट खगोलीय घटना है जिसका सीधा असर हमारी जिंदगी पर पड़ता है। यूं तो सूर्य सौरमंडल की सभी 12 राशियों पर संक्रमण करता है, लेकिन धनु से मकर राशि में सूर्य का संक्रमण इतना महत्वपूर्ण क्यों है; इस बाबत प्रख्यात ज्योतिषविद आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक बेहद रोचक जानकारी देते हुए बताते हैं कि मकर संक्रांति का ऋतु पर्व भारत को संपूर्ण ब्रह्मांड के भूगोल से जोड़ता है।
मकर संक्रांति से वातावरण में सूर्य का प्रकाश और ऊष्मा बढ़ती है और कर्क संक्रांति में घटती है। मकर संक्रांति से पहले सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध (दक्षिणायण) में यानी हमसे दूर होता है, इस दिन यह धनु राशि से मकर राशि में संक्रमण कर उत्तरी गोलार्द्ध (उत्तरायण) में प्रवेश कर हमारे निकट आ जाता है। फलत: अधिक मात्रा में सूर्य की ऊर्जा मिलने से समूचे जीव जगत में सक्रियता बढ़ जाती है।
वैदिक साहित्य में उत्तरायण का "देवयान" यानी देवताओं का दिन और दक्षिणायन का "पितृयान" यानी देवताओं की रात्रि के रूप में उल्लेख मिलता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस शुभ मुहूर्त में देहत्याग करने वाले जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाते हैं। इसी कारण महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिये इस पुण्य दिवस का चयन किया था।
खरमास (पौष माह) में रुके हुए मंगल कार्य मकर संक्रांति से पुन: शुरू हो जाते हैं। इस अवसर पर नया साठी धान, नयी उरद की दाल, गन्ना व उससे निर्मित नया गुड़, तिल व सरसों के साथ ज्वार, बजारा व मक्के की नयी फसलों की पैदावार पर किसानों के चेहरों की खुशी देखते ही बनती है। इस खुशी में देश के अन्नदाता मकर संक्रान्ति का पर्व मनाकर भगवान सूर्य को धन्यवाद देने के साथ उनसे आशीर्वाद मांगते हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों में जितने रूप इस त्योहार को मनाने के प्रचलित हैं; किसी अन्य पर्व के नहीं। कहीं लोहड़ी, कहीं खिचड़ी, कहीं पोंगल, कहीं संक्रांति और कहीं उत्तरायणी। उत्तर प्रदेश, बिहार व मध्य प्रदेश में मकर संक्रान्ति का पर्व मुख्य रूप से ‘खिचड़ी पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।
मकर संक्रान्ति के दिन खिचड़ी बनाने की परम्परा बाबा गोरखनाथ ने उत्तर प्रदेश के गोरखनाथ मंदिर से शुरू की थी। मोहम्मद खिलजी के आक्रमण के समय नाथपंथियों को युद्ध के दौरान भोजन बनाने का समय न मिलने से अक्सर भूखे रहना पड़ता था। एक दिन बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल को एक साथ मिलाकर पकाया। तभी से झटपट बन जाने वाला यह व्यंजन खिचड़ी के नाम से पूरे देश खासकर उत्तर भारत में लोकप्रिय हो गया। पर्वतीय अंचल के लोगों की आस्था भी इस पर्व के गहरी जुड़ी है।
14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के दिन कुमाऊंवासियों ने क्रूर गोरखा शासन और अंग्रेजी राज की दमनकारी कुली बेगार प्रथा के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजाकर दासत्व से मुक्ति पायी थी। पंजाब, हरियाणा व हिमाचल में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या पर लोहड़ी का त्योहार नयी फसल के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। बिहार और झारखंड में इस दिन विशेष रूप से दही चूड़ा और तिलकुट खाने की परंपरा है।
इस लोकपर्व में पूजा पर पुरोहित के बिना, क्रियाएं हैं लेकिन कर्मकांड के बिना एवं स्नान है लेकिन छुआछूत के बिना। दिवाकर के मकरस्थ होने का यह लोकपर्व हमें प्रबोधित करता है कि हम सब भी जड़ता व आलस्य त्याग कर नये सकारात्मक विचारों को ग्रहण करें और प्रीतिपूर्वक भगवान का सुमिरन कर प्रार्थना करें कि हे भगवान ! हम जैसे भी हैं, आपके हैं। हमें सद्बुद्धि दें ताकि हम गलत कार्यों से बचे रहें।
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