एसके वर्मा
राजनीति शास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार राज्य उत्पीड़न के विरुद्ध सुरक्षा का सबसे बड़ा और प्रभावी उपकरण है, परन्तु यह सिद्धांत पाकिस्तान में लागू नहीं होता, जहां राज्य स्वयं सबसे बड़े उत्पीड़क की भूमिका में है। सरकार और सेना के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज को बर्बरता से दबा दिया जाता है। विपक्षी राजनीतिक दलों, अल्पसंख्यक समुदायों से लेकर छात्रों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं जैसे अनेकों वर्गों और समूहों ने इसे इस उत्पीड़न का सामना किया है। अभी हाल ही में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस फैज़ ईसा सरकार के इस उत्पीड़न का नया शिकार बने हैं। हालांकि यह प्रक्रिया इमरान खान की सरकार के बनने के साथ ही शुरू हो गई थी और अब यह एक नए चरण में जा पहुंची है। एक नवीन घटनाक्रम में जस्टिस फैज ईसा की पत्नी सरीना ईसा ने चार लोगों के खिलाफ मामले दर्ज करने की मांग की है, जिन्होंने उनके अनुसार 29 दिसंबर को 'मेरी गोपनीयता और गरिमा का उल्लंघन करने और मुझे परेशान करने और डराने' के लिए बिना अनुमति के कराची में उनके घर में प्रवेश किया। सरीना ने उनके घर आने वाले दो लोगों द्वारा दिए गए चार पन्नों के दस्तावेज का हवाला देते हुए कहा कि उनसे उनके राजनीतिक जुड़ाव और उनके दिवंगत माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों, उनके करियर प्रोफाइल, विदेश यात्राओं के बारे में जानकारी मांगी गई थी। विदेश में रहने वाले उनके रक्त संबंधी और सशस्त्र बलों तथा गैर-सरकारी संगठनों के लिए काम करने वाले उनके रिश्तेदार, उनके संपर्क नंबर, व्हाट्सएप नंबर, उनके नाम के तहत पंजीकृत सिम, ईमेल पता, सोशल मीडिया गतिविधियां, बैंक खातों की जानकारी समेत सभी विवरण तथा जानकारी मांगी गई ।
सेना और कट्टरपंथियों का विरोध
जस्टिस फ़ैज़ ईसा पाकिस्तान की जुदिसिअरी के होनहार और काबिल न्यायाधीश रहे हैं, जो 2012 के मेमोगेट स्कैंडल और 2016 के क्वेटा नरसंहार की जांच से जुड़े रहे। 2018 के बाद से ही वे सेना और सरकार के निशाने पर आ गये थे जब उन्होंने पाकिस्तान की सेना और देश की खुफिया सेवाओं को अपने जनादेश के भीतर रहने के लिए कहा। इसके साथ ही साथ जस्टिस फैज़ ईसा धार्मिक कट्टरपंथ के विरुद्ध कठोर निर्णय देने के कारण इस वर्ग के निशाने पर रहे हैं। 2017 में कट्टरपंथी खादिम हुसैन रिज़वी और उसकी तहरीक-ए-लब्बैक पार्टी द्वारा आयोजित किये गए। भीषण विरोध प्रदर्शन, जिसने इस्लामाबाद और रावलपिंडी के जुड़वां शहरों के जनजीवन को अस्तव्यस्त और पंगु बना दिया था, पर पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेते हुए मामले पर कार्यवाही शुरू की थी और फरवरी 2019 में पारित एक फैसले में जस्टिस ईसा की अगुवाई वाली दो-न्यायाधीशों की पीठ ने इस पूरे प्रकरण में सेना और आईएसआई की भूमिका के बारे में सवाल उठाए थे। इस निर्णय द्वारा पाकिस्तान की सरकार, रक्षा मंत्रालय और सेना, नौसेना और वायु सेना के संबंधित प्रमुखों के माध्यम से उनकी कमान के तहत ऐसे कर्मियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने का निर्देश दिया गया था, जो उनकी शपथ का उल्लंघन करते पाए गए हों।
पाकिस्तान की सेना के लिए यह निर्णय उनकी सर्वोच्चता को चुनौती देता प्रतीत हुआ था अत: पाकिस्तान के रक्षा मंत्रालय ने एक समीक्षा याचिका दायर की, इसमें इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ भी शामिल हुई, जिसकी 2018 में चुनावी जीत, सेना और आईएसआई द्वारा किसी ही प्रशस्त की गई थी, जिसने सुप्रीम कोर्ट से जस्टिस ईसा के फैसले को पलटने के लिए कहा और इसके साथ ही साथ जस्टिस ईसा पर चौतरफा हमलों का दौर भी शुरू हो गया। पद की गरिमा को ताक पर रखते हुए पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ अल्वी भी इमरान खान और सेना की वफ़ादारी निभाते हुए इस विवाद में मुख्य भूमिका निभाने लगे। पाकिस्तान की सुप्रीम ज्यूडिशियल काउंसिल में एक प्रेसिडेंशियल रेफरेंस दायर किया गया था, जो सुप्रीम कोर्ट की एक निगरानी संस्था थी, जिसमें जस्टिस ईसा सहित पांच जजों के खिलाफ अघोषित विदेशी संपत्ति का आरोप लगाया गया था। यह आरोप इतना गंभीर था कि अगर सिद्ध होता तो यह संभावित रूप से उनके निष्कासन का कारण बन सकता था। परन्तु जून 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने ईसा और पाकिस्तान में कई बार एसोसिएशनों द्वारा दायर एक याचिका पर कार्रवाई करते हुए। इस पूरे प्रकरण को 'अमान्य' करते हुए हुए खारिज कर दिया और सर्वोच्च न्यायिक परिषद में न्यायाधीश के खिलाफ सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया।
जस्टिस फैज़ ईसा पर यह हमले एक वृहत षड्यंत्र का हिस्सा हैं। सर्वप्रथम जस्टिस फैज़ ईसा पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जज है और वरिष्ठता के क्रम अनुसार वह सितम्बर 2023 में में पाकिस्तान के चीफ़ जस्टिस बन सकते हैं और उन्हें मुख्य न्यायाधीश के रूप में 13 महीने का कार्यकाल भी मिलेगा। इस स्थिति में पाकिस्तान के सैन्य प्रतिष्ठान, इस्लामी कट्टरपंथी और इमरान खान के नेतृत्व वाली सरकार जस्टिस फैज़ ईसा के विरुद्ध लामबंद हो रही है, ताकि किसी भी प्रकार उनके इस पद पर पहुंचने का मार्ग रोका जा सके।
दूसरा कारण पाकिस्तान की नस्लीय भेदभाव की राजनीति से जुड़ा हुआ है। जस्टिस ईसा के पिता काजी मुहम्मद ईसा जो मुहम्मद अली जिन्ना के सहयोगी के रूप में पाकिस्तान के गठन में एक प्रमुख भूमिका निभाई तथा ब्राजील में पाकिस्तान के दूत और संविधान सभा के सदस्य सहित कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे। ईसा परिवार बलूचिस्तान के हज़ारा समुदाय से संबंध रखते हैं। हजारा समुदाय आजादी के बाद पाकिस्तान के निर्माण के समय से घृणित भेदभाव का शिकार रहा है और इन्हें उत्पीड़न के साथ-साथ भयंकर नरसंहारों का सामना करना पड़ा है। इसके साथ ही साथ जस्टिस ईसा के परिवार की उदारवादी छवि भी पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के लिए चिंता का कारण है। पाकिस्तान की पूर्व नेशनल असेम्बली सदस्य जेनिफ़र मूसा जो उनके पिता के भाई क़ाज़ी मुहम्मद मूसा की पत्नी थीं और अपने सुधारवादी रवैय्ये और उससे ज्यादा उनके आयरिश मूल और कैथोलिक मतानुयायी होने के कारण सदैव संदेह की दृष्टि से देखी गईं। जेनिफ़र मूसा के बेटे अशरफ जहांगीर काजी 1990 के दशक के अंत में भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त के रूप में कार्य कर चुके हैं और पाकिस्तान की सेना के निशाने पर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि क़ाज़ी ने 2016 में पठानकोट हमले के समय यह बयान भी दिया था कि पाकिस्तान की सेना नवाज़ शरीफ के भारत के साथ संबंध सुधारने के प्रयासों को सफल नहीं होने देगी। इस स्थिति में पाकिस्तान की सेना, कट्टरपंथी और उनके इशारों पर चलने वाली इमरान खान की सरकार, उदार पृष्ठभूमि के जस्टिस फैज़ ईसा की राह में रोड़े अड़ा कर अपना स्वाभाविक कार्य ही कर रही है।
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