पाकिस्तान द्वारा आहूत इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के विदेश मंत्री परिषद की 17वीं विशेष बैठक इस्लामाबाद में 19 दिसंबर को हुई।
यह बैठक इस्लामी दुनिया में क्या चल रहा है, पाकिस्तान के मन में क्या चल रहा है और दुनिया इसे कैसे देखती है, इसका एक झरोखा थी। इस्लामी दुनिया किन वैश्विक मुद्दों पर चर्चा के लिए किस हद तक साथ आ सकती है, उन पर उनका क्या रुख रहता है, यह सब लोग देखना चाह रहे थे और वहां से जो मिले-जुले संकेत निकले, उसने बताया कि मुस्लिम देश मजहब से परे भी सोचने की क्षमता रखते हैं।
इस बात से पाकिस्तान को थोड़ी बेचैनी हो सकती है, क्योंकि इसमें उसकी काफी फजीहत हुई है। बैठक आहूत करने और उसमें उठाए गए मुद्दों पर उसके अपने समीकरण हैं। पाकिस्तान की हालत स्वयं हर मोर्चे पर खराब है, बेलगाम मुद्रास्फीति से महंगाई चरम पर है, जनता हाय-हाय कर रही है, सरकार के साथ वार्ता विफल होने के बाद चरमपंथी गुट सिर उठा रहे हैं, इमरान उन पर काबू नहीं कर पा रहे परंतु उनकी लालसा इस्लामिक जगत का नेतृत्व कर दुनिया में अपनी धाक जमाने की है।
दुनिया इस बात पर हंस रही थी कि जिनसे अपना घर नहीं संभल रहा, वे दुनिया के चौधरी हो जाना चाहते हैं, और यह भी साफ हुआ कि इस्लामी देश भी उसे तवज्जो नहीं देते।
इस्लामी देशों का रुख
बैठक में 57 मुस्लिम देशों के विदेश मंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। किसी आयोजन की सफलता इस बात से मापी जा सकती है कि जितने को आमंत्रण गया, उनमें से कितने आए। इस बैठक में 57 देशों को आमंत्रण के मुकाबले 20 देशों के विदेश मंत्री पहुंचे। इमरान खान की उनके घर में भद पिट रही है, विदेश नीति पर सवाल उठ रहे हैं। बौखलाया हुआ पाकिस्तानी मीडिया इस्लामिक सहयोग संगठन बैठक की विफलता का दोष भारत पर मढ़ रहा है।
पाकिस्तान की अपेक्षाओं के विपरीत बैठक से यह संकेत मिला कि इस्लामी देश मजहब के सिवा दुनिया के जो अन्य मुद्दे हैं, उस पर भी सोच रहे हैं। परंतु इससे भी बड़ा एक संकेत भारत से मिला। जिस समय इमरान इस्लामी लामबंदी कर रहे थे, उस समय भारत वास्तविक वैश्विक मसलों पर एक आह्वान कर रहा था और उस बैठक में उज्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान- इन पांचों देशों के विदेश मंत्री आए। ये पांचों मध्य एशिया के इस्लामिक देश हैं और इनके विदेश मंत्रियों ने इस्लामिक सहयोग संगठन की बैठक में इस्लामाबाद न जाकर नई दिल्ली में भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर की अध्यक्षता में तीसरे भारत-मध्य एशिया डायलॉग में भाग लिया। इस दौरान भारत और मध्य एशिया के बीच व्यापारिक और क्षेत्रीय कनेक्टिविटी पर बात हुई और इसके साथ-साथ अफगानिस्तान के हालात पर भी विस्तार से चर्चा हुई। साफ है कि मुस्लिम देशों का रुख मजहब से परे जाकर विकास, क्षेत्रीय सुरक्षा-स्थिरता और मानवीयता पर आकर टिक रहा है।
इसका दूसरा अर्थ यह समझ में आता है कि इमरान वहां इस्लामिक आधार पर अफगानिस्तान की पैरोकारी करने गए थे। उस बात को बैठक में आमंत्रित देशों के साथ ही शामिल देशों ने भी महत्व नहीं दिया। परंतु भारत ने जिन पांच इस्लामी देशों को बुलाया, अफगानिस्तान से उनकी सीमाएं लगती हैं। वास्तविक चिंताएं क्या हैं, और किसकी बात सुनी जानी चाहिए, भारत ने इसे बहुत अच्छे से रेखांकित किया। यह दुनिया ने देखा।
पाकिस्तानी प्रयासों को पलीता
इस्लामिक जगत के भीतर नेतृत्व की खींचतान में दुनिया सऊदी अरब और तुर्की के बीच एक रस्साकशी देखती रही है। इनके बीच पाकिस्तान पिछले कई वर्षों से मलेशिया और तुर्की के साथ मिलकर एक नया समीकरण गढ़ने की कोशिश में है। परंतु इस्लामी दुनिया में पाकिस्तान जहां खड़ा होगा, उस पक्ष का वजन कमजोर होगा, यह संकेत भी ओआईसी की बैठक से निकला है।
सऊदी अरब से भी हाल-फिलहाल में प्रगतिशीलता को पुष्ट करने वाले बड़े संकेत निकले हैं। सुधारों के लिए प्रतिबद्धता और कट्टरता से दूरी सिर्फ इस्लामिक दुनिया के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए भी अच्छी बात है। सभी को समझना पड़ेगा कि दुनिया मजहब से नहीं चलती। विदेश नीति देशीय और वैश्विक आवश्यकताओं और संभावनाओं का रणनीतिक समीकरण और संगम होती है।
यदि हम बात करें अफगानिस्तान के विषय पर, तो अफगानिस्तान में तालिबान राज को वैधता दिलाने का जो प्रयास था, उसे पलीता लगा है। वैधता तो दूर, बैठक के बाद सामूहिक फोटो में तालिबान के विदेश मंत्री को बाहर कर दिया गया। और, उसके साथ ही मानवीय सहायता पहुंचाने के लिए एक मानवीय ट्रस्ट फंड बनाने पर सहमति बनी है। पर वह तालिबान के जरिए अफगानिस्तान को सहायता नहीं पहुंचाना चाहते। बैठक में यह प्रस्ताव रखा गया कि इस्लामी विकास बैंक 2022 की पहली तिमाही तक मदद देने की कोशिशों का नेतृत्व करेगा।
दकियानूसी सोच का समर्थन
इमरान खान इस बैठक में तालिबान की दकियानूसी सोच का समर्थन करते हुए दिखाई दिए। उन्हें समझना चाहिए कि दुनिया प्रगतिशीलता के साथ चल रही है और इसमें दकियानूसी सोच की कोई जगह नहीं है। वे जहां मानवीय आधार पर अफगानिस्तान की मदद की बात कर रहे थे, वहीं उलटबांसी देखिए, कि वे मानवाधिकार हनन की भी पैरोकारी कर रहे थे। वे लड़कियों को स्कूल न भेजने की सोच का समर्थन करते हुए नजर आए। इमरान ने कहा, ‘‘मानवाधिकार के मामले में हर समाज की अलग-अलग सोच है। पाकिस्तान के पख्तून, जो तालिबान के बेहद करीब हैं, वहां शहरों और गांव में अलग-अलग संस्कृति है। उसी तरह अफगानिस्तान में भी है। हम पेशावर में लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए मां-बाप को आर्थिक सहायता देते हैं। अगर हम सांस्कृतिक मानकों के प्रति संवेदनशील नहीं हैं तो अफगानिस्तान की सीमा पर हम मां-बाप को चाहे दोगुना पैसा दे दें, वे अपनी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजेंगे। हमें मानवाधिकारों और महिला अधिकारों को लेकर संवेदनशील होना होगा।’’ वे जब ये बात कहते हैं कि मानवाधिकारों को लेकर संवेदनशील होना होगा, उसके साथ ही लड़कियों के अशिक्षित रहने की भी वकालत कर रहे होते हैं। ऐसी दोतरफा बातें सुनने के लिए दुनिया आज तैयार नहीं है।
कश्मीर पर भी मुंह की खाई
ऐसी ही दोतरफा बात उन्होंने कश्मीर पर भी करने की कोशिश की। उसमें भी उन्हें मुंह की खानी पड़ी। उन्होंने कहा, ‘‘फिलस्तीन और कश्मीर के लोग अपने मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों के बारे में मुस्लिम दुनिया से एक एकीकृत प्रतिक्रिया देखना चाहते हैं। हमें हर फोरम पर उनकी आवाज को उठाना चाहिए और एक संयुक्त कार्रवाई करनी चाहिए।’’ परंतु बैठक में शामिल किसी देश ने इस बात को न वजन देना था, न दिया। इमरान को भी यह समझना होगा कि वे दुनिया से उलट नहीं चल सकते।
मजहब नहीं, मानवता जरूरी
इस्लामिक सहयोग संगठन यदि बनाया गया है तो मजहब के नाम पर वह मानवता की दिशा को बदल नहीं सकता। दुनिया जिस दिशा में जा रही है, उससे उलट जाकर आप अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। जब आप लोकतंत्र की बात करेंगे तो दुनिया में निश्चित ही यह सवाल उठेगा कि यदि आप इस्लामिक दृष्टि से यह बात कह रहे हैं तो इस्लामिक देशों में कितने में लोकतंत्र है, इस्लामिक शिक्षाओं में कितना लोकतंत्र है और आप इसके लिए कितने खुले विमर्श के लिए तैयार हैं। यही बात मानवाधिकारों के संदर्भ में होगी। यदि कोई मजहबी संगठन बना कर ये बातें करेंगे, तो उस मजहब के भीतर कितनी मानवाधिकारों की बात होती है, यह नई दुनिया उस पर विमर्श करेगी।
आईओसी से जो संकेत मिले हैं, उसमें एक बात यह है कि जितने देशों को इसमें आमंत्रित किया गया था, यदि वे सभी मजहबी लाइन पर बैठक में आ जाते, तो दुनिया इसे अलग नजरिए से देखती। परंतु महज एक तिहाई देशों का आना, अफगानिस्तान में तालिबान को मान्यता देने से पीछे हटना, फिलस्तीन, कश्मीर के मुद्दे को वजन न देना ये बता रहा है कि इस्लामिक दुनिया अलग ढंग से सोच रही है।
सऊदी अरब से भी हाल-फिलहाल में प्रगतिशीलता को पुष्ट करने वाले बड़े संकेत निकले हैं। सुधारों के लिए प्रतिबद्धता और कट्टरता से दूरी सिर्फ इस्लामिक दुनिया के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए भी अच्छी बात है। सभी को समझना पड़ेगा कि दुनिया मजहब से नहीं चलती। विदेश नीति देशीय और वैश्विक आवश्यकताओं और संभावनाओं का रणनीतिक समीकरण और संगम होती है।
@hiteshshankar
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