प्रो . गिरीश चंद्र त्रिपाठी
भारत में जब धर्मपरक राजनीति व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख जगाई जा रही थी, तब तमाम प्रतिगामी ताकतों ने अपने-अपने ढंग से इसके विरोध में सुर तेज किए थे। इन शक्तियों को धर्मपरक राजनीति व संस्कृति से जुड़े राष्ट्रवाद से परहेज था। इसकी वजह साफ थी कि ये शक्तियां भारत के समूचे इतिहास को मुगल, तुर्क, अफगानी, उज्बेकी आदि के आक्रमण व ईस्ट इंडिया कंपनी के राज से आगे बढ़ कर देख ही नहीं पा रही थीं। इन्हें यह विश्वास नहीं था कि हमारे यहां अर्थ, काम और मोक्ष धर्म आधारित हैं, धर्मपरक हैं।
धर्म के बिना हमारे समाज व सृष्टि में कोई कल्पना संभव ही नहीं है। हम लोग राष्ट्र को महज एक भूखंड नहीं मानते। हमारे मनीषियों ने राष्ट्र की चिति पर भी चिंतन किया है। हमारा राष्ट्र समाज, संस्कृति, संस्कार व सरोकार के बिना आकार ही नहीं लेता। संभवत: यही वजह है कि 2014 में वाराणसी से सांसद बनने के पूर्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने पहुंचे और उस समय मंदिर की तंग गलियों और वहां फैली गंदगी को देखकर अत्यंत व्यथित हुए। उस समय उन्हें महात्मा गांधी जी द्वारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में 4 फरवरी, 1916 को इस संबंध में की गई टिप्पणी स्मरण हो आई। उनकी उस व्यथा ने ही भगवान विश्वनाथ के धाम को हिंदू आस्था के अनुरूप सुरक्षित व उत्कृष्ट आध्यात्मिक ऊर्जा केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित करने को प्रेरित किया जो लोगों में भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था, समर्पण को फलीभूत कर रहा है और करता रहेगा।
काशी अनादिकाल से अध्यात्म, शिक्षा एवं संस्कृति का केंद्र रही है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार भगवान् विश्वनाथ की नगरी काशी का विनाश प्रलय काल में भी नहीं हुआ था। परंतु सन् 1669 में काशी की गरिमा और प्रतिष्ठा को उस समय गहरा आघात लगा जब औरंगजेब ने भगवान विश्वनाथ के मंदिर को क्षतिग्रस्त किया। इसके बाद 1780 ई. में इंदौर के होल्कर राजघराने की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने भगवान विश्वनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण कराया। 19वीं शताब्दी में शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह ने 22 मन शुद्ध सोना शिखर पर मढ़वा कर कलश स्थापित कराया। इस तरह हमारे माननीय पूर्वजों ने भारतीय संस्कृति की परंपरा को बनाए रखने में अपना महनीय योगदान किया। अंग्रेजों के शासन काल में पाश्चाात्य संस्कृति का प्रभाव चतुर्दिक पड़ा। हमारी संस्कृति का प्रवाह भी मंद पड़ा। यद्यपि स्वतंत्रता आंदोलन में हमारे देशभक्त शहीदों बलिदारियों भारतीय संस्कृति और उसके प्रवाह को बनाए रखने के लिए लगातार संघर्ष किया। परिणामस्वरूप 15 अगस्त,1947 को देश स्वतंत्र हुआ। देश स्वतंत्र हुआ, राजनीतिक सत्ता भी प्राप्त हुई । परंतु जिस दर्शन, दृष्टि और विचार को लेकर हमारे देशभक्त ने अपना सर्वस्व बलिदान किया, उस दर्शन, दृष्टि और विचार की स्वतंत्रता की लड़ाई अभी भी जारी है।
भारत की सभ्यता और संस्कृति का यह अखंड प्रवाह जिन मानदंडों के आधार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित होता रहा है , उन मानदंडों और प्रतिमानों की गरिमा और प्रतिष्ठा की स्थापना की दिशा में वर्तमान शासन काल में जो प्रयास हुआ है , उसके आधार पर भारत अपनी पहचान को न केवल पूरे देश में बल्कि पूरे विश्व में प्रतिस्थापित करने में सफल होता दिख रहा है। ऐसा विश्वास आज समाज में पूर्ण होता हुआ दिखाई पड़ता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के जन्म स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण इस दिशा में उल्लेखनीय उपलब्धि है। इसके साथ ही साथ काशी, जो भारत की ही नहीं, सृष्टि की प्राचीनतम सांस्कृतिक नगरी है, उसमें भगवान विश्वनाथ के मंदिर गलियारे का निर्माण और उसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा लोकार्पण न केवल सांस्कृतिक शंखनाद कर रहा है बल्कि धार्मिक स्थलों की प्रतिष्ठा और सुरक्षा जीवन के सभी क्षेत्रों में हमारी संस्कृति और उसके मूल्यों के प्रभाव को बढ़ा रही है। इससे यह उम्मीद बंधती है कि हम फिर से भारत को विश्वगुरु के रूप में प्रतिस्थापित करने में सफल होंगे। आज सम्पूर्ण विश्व जीवन के सभी क्षेत्रों में जिन चुनौतियों का सामना कर रहा है और भविष्य में करने वाला है, उनका समाधान केवल और केवल भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों में प्रतिष्ठित है। इसको बढ़ावा देने की दिशा में चित्रकूट में हिंदू एकता महाकुंभ का आयोजन किया जा रहा है जिसमें मातृशक्ति की उत्साहपूर्ण मर्यादित और सकारात्मक भागीदारी इस दिशा में अत्यंत श्रेष्ठ एवं सराहनीय कार्य है। अयोध्या में श्रीरामलला के मंदिर के निर्माण की शुरुआत, कुंभ को अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा मिलना, सभी सांस्कृतिक शंखनाद के एक नए युग की शुरुआत करते दिख रहे हैं।
जब किसी भूखंड पर जीव सृष्टि का निर्माण होता है, तब उसे देश की संज्ञा प्राप्त होती है, परंतु जब वह समाज जीवन मूल्यों, जीवन दर्शन और दृष्टि तथा इनसे जुड़े हुए सिद्धांतों को स्थापित करता है और उसके साथ संबद्ध होता है, तब उसे राष्ट्र की संज्ञा प्राप्त होती है। हमारे ऋषियों और मनीषियों ने अपनी साधना और तपस्या के आधार पर सृष्टि के सत्य और रहस्य का साक्षात्कार किया जिसके आधार पर उन्हें मंत्र द्रष्टा कहा गया। उन्होंने अपने सत्य और सृष्टि के रहस्य के साक्षात्कार को अपने तक ही सीमित नहीं रखा। उन्होंने इसे केवल भारत तक भी सीमित नहीं रखा , अपितु समय से संपूर्ण सृष्टि को समर्पित किया जिसके आधार पर भारत विश्वगुरु बना। उनका यह दर्शन, दृष्टि और विचार हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था का आधार बना। यह हमारे विज्ञान और तकनीक के मूल में भी प्रतिष्ठित रहा। परंतु परमात्मा की सृष्टि में सर्वांग शुद्ध कुछ भी नहीं है।

समय के साथ भारत के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्वरूप में भी विकृतियां आर्इं, जिनके परिणामस्वरूप भारत पराधीन हुआ और लंबे समय तक पराधीनता की शृंखला में आवद्ध था। इस पराधीनता के कालखंड में न केवल हमारी राजनीतिक सत्ता हमसे दूर हुई बल्कि जीवन के अनेक क्षेत्रों में हम दूर- दूर तक पिछड़ गए। परंतु यह भी सत्य है कि पराधीनता के इस कालखंड में हमारे महापुरुषों ने भारत के दर्शन , दृष्टि और विचार को बचाने के लिए भारी संघर्ष किया। हमारे सांस्कृतिक स्वरूप के बीज को बचाने में वे सर्वथा सफल रहे। इसी का परिणाम है कि भारत के ऋषि प्रदत्त सांस्कृतिक स्वरूप को पुन: स्थापित करने की दिशा में आज भारत न केवल प्रयत्नशील है अपितु सफल होता हुआ भी दिख रहा है। यहां यह भी बताना आवश्यक है कि काशी विश्व की प्राचीनतम सांस्कृतिक नगरी रही है और किसी भी महापुरुष ने हमारे दर्शन, दृष्टि और विचार के साथ-साथ भारत के सांस्कृतिक स्वरूप और गौरव को प्रतिस्थापित करने का जब-जब प्रयास किया है तो वह काशी आकर ही सफल हुआ है।
भगवान बुद्ध बोधगया में ज्ञान प्राप्त करने के बाद धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए, वेदान्त के संस्थापक और प्रवक्ता भगवान् आदिगुरु शंकराचार्य केरल प्रदेश के कालडी से, महान संत नानक और दारा शुकोह काशी आते हैं। काशी में निर्गुण के उपासक कबीर और राम कथा के माध्यम से सगुण और निर्गुण के बीच समन्वय स्थापित करने वाले तुलसी भी काशी जाकर ज्ञान का प्रचार करते हैं। भारत रत्न पंडित महामना मदनमोहन मालवीय ने भी प्रयाग से आकर काशी में हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। यहां शास्त्रार्थ और संवाद की परंपरा जीवंत है।
संत शिरोमणि रविदास की कर्मस्थली भी काशी ही रही। आज हमारे प्रधानमंत्री मोदी के प्रयास से काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर और काशी की भव्यता को प्रतिष्ठित और विकसित करने का जो प्रयास किया गया है, वह काशी की सांस्कृतिक चेतना को भारत में ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व में प्रशस्त करेगा। काशी भविष्य में भारत के एक ऐसे रूप की संवाहक बनेगी, जिसके वर्तमान में उसका शताब्दियों का इतिहास गौरवशाली रूप में संरक्षित रहेगा। काशी के गौरवशाली अतीत, संरक्षित वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य की पटकथा में काशी विश्वनाथ मंदिर का नवीनतम रूप एक प्रस्थान बिंदु की तरह जाना जाएगा। अयोध्या, काशी से सांस्कृतिक पुनर्जागरण का जो पाञ्चजन्य नरेंद्र मोदी फूंक रहे हैं, उसने एक नई अलख जगाई है।
(लेखक उत्तर प्रदेश राज्य उच्च शिक्षा परिषद, लखनऊ के अध्यक्ष हैं)
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