देश के संवेदनशील सीमान्त राज्य पंजाब व इसके आसपास क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हो रहे कन्वर्जन पर सिखों की सर्वोच्च पांथिक संस्थार श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने चिंता जताई है। उन्होंने उत्तर भारत में कन्वर्जन पर रोक लगाने की मांग की है। जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के अनुसार, ईसाई मिशनरियों के लोग सीमावर्ती क्षेत्रों में लालच देकर हिंदुओं और सिखों का कन्वर्जन कर रहे हैं।
इस पर सख्ती से रोक लगनी चाहिए। उनका कहना है कि पंजाब में 1834 में जॉन लॉरी व विलियम रीड नामक ईसाई मिशनरियों के प्रवेश के बाद से ही कन्वर्जन का कुचक्र शुरू हो गया था। लेकिन इन दिनों इसमें अचानक आई तेजी ने धर्मगुरुओं के साथ-साथ समाज शास्त्रियों व सामरिक विशेषज्ञों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। हालांकि जत्थेदार के आरोपों पर चर्च की ओर से अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है।
वैसे भी ऐसे अवसरों पर मिशनरियों का रटा-रटाया एक ही जवाब होता है कि देश का संविधान उन्हें अपने मत के प्रचार की अनुमति देता है। उसी के अनुसार वे देश में ईसा के संदेशों का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। संविधान सभा ही नहीं, बल्कि समय-समय पर न्यायालयों ने भी कन्वर्जन को गलत बताया है। इसके बावजूद चर्च प्रचार की मनमाफिक व्याख्या करते हैं और इसे अपना संवैधानिक अधिकार मानते हैं। मिशनरियां पांथिक प्रचार की आड़ में आडंबर को बढ़ावा देती हैं। धन और झूठ का सहारा लेकर जबरन कन्वर्जन कराती हैं।
संविधान सभा में बहस
संविधान के प्रारूप में मौजूदा अनुच्छेद-25 को अनुच्छेद क्रमांक 19 पर रखा गया था, जिस पर 3 और 6 दिसंबर, 1948 को विस्तृत बहस हुई थी। ‘धर्म स्वातंत्र्य’ अधिकार से संबंधित अनुच्छेद पर हुई इस बहस का मुद्दा था कि ‘पांथिक प्रचार’ का अधिकार देना उचित होगा या नहीं। इस बहस में प्रो. के.टी. शाह, सर्वश्री तजामुल हुसैन, लोकनाथ मिश्रा, एच.वी. कामथ, मो. इस्माइल साहिब, पं. लक्ष्मीकान्त मैत्रा, एल. कृष्णास्वामी भारती, के. सन्थानम, रोहिणी कुमार चौधरी, टी.टी. कृष्णामचारी व के.एम. मुंशी सहित 11 सदस्यों ने हिस्सा लिया था। पांथिक प्रचार के अधिकार का विरोध करते हुए तजामुल हुसैन ने कहा था, ‘‘मैं समझता हूं कि मजहब एक व्यक्ति तथा रचनाकार के बीच एक निजी मामला है। मेरा मजहब मेरा और आपका धर्म-पंथ आपका विश्वास है। आप मेरे मजहब में हस्तक्षेप क्यों करें? मैं भी आपके धर्म-पंथ में दखलंदाजी क्यों करूं?’’
वहीं, कन्वर्जन को देश विभाजन का कारण बताते हुए लोकनाथ मिश्रा ने कहा था, ‘‘संविधान प्रारूप का अनुच्छेद-13 (वर्तमान-19) यदि स्व तंत्रता का घोषणापत्र है तो अनुच्छेद-19 (वर्तमान 25) हिंदुओं के सर्वनाश का घोषणापत्र। मैंने सभी संवैधानिक पूर्वनिर्णयों का अध्ययन व उनका चिंतन किया है। मुझे धर्म से संबंधित मौलिक अधिकार में कहीं भी ‘प्रचार’ शब्द नहीं मिला।’’ उनका स्पष्ट कहना था कि जो जैसे जीना चाहता है, उसे जीने दो। लेकिन उसे अपनी संख्या बढ़ाने की कोशिश मत करने दो। यह दीर्घकाल में बहुमत को निगलने वाला उपाय है।
संविधान सभा के वरिष्ठ सदस्य प्रो. के.टी. शाह ‘प्रचार’ के विरोधी तो नहीं थे, पर वे चाहते थे कि इसका दुरुपयोग न हो। उनका मानना था कि चिकित्सक, नर्स, अनाथालयों व बालगृहों के संचालक, अध्यापक या संरक्षक अपने प्रभाव का प्रयोग कर लोगों का कन्वर्जन कराते हैं, जिसे रोका जाना चाहिए। वहीं, एच.वी.कामथ का कहना था कि भारत के सनातन जीवन मूल्यों के बारे में नागरिकों को प्रशिक्षण दिया जाए। उन्होंने कहा, ‘‘युगों से भारत आध्यात्मिक अनुशासन व आध्यात्मिक उपदेश की एक निश्चित पद्धति के लिए कटिबद्ध है, जो संसार में ‘योग’ के नाम से जानी जाती है। महायोगी अरविन्द ने बार-बार कहा है कि आज की सबसे बड़ी आवश्यकता ‘योग’ के अनुशासन द्वारा चेतना के रुपांतरण की है। मानवता को उच्च स्तर तक उठाना है।’’ इसी तरह रोहिणी कुमार चौधरी ने ईसाई मिशनरियों से आग्रह किया कि वे दूसरों के धर्म-पंथ पर कीचड़ न उछालें। समिति के अन्य सदस्य एल. कृष्णास्वामी भारतीय, पं. लक्ष्मीकान्त मैत्रा ने हालांकि प्रचार का समर्थन तो किया, पर यह भी कहा कि इसका मतलब किसी भी सूरत में कन्वर्जन के रूप में नहीं लिया जा सकता।
1968 में लगी थी रोक
मध्य प्रदेश सरकार ने ‘म.प्र. धर्म स्वातंत्र्य अधिनियम’ तथा उड़ीसा सरकार ने भी इसी तरह का अधिनियम पारित करते हुए कन्वर्जन पर रोक लगा दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने रेवरेण्ड स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश (1977) 2-एस.सी.आर. 616, में उपरोक्त अधिनियमों के प्रावधानों को संवैधानिक रूप से सही ठहराया। साथ ही, अनुच्छेद-25 के तहत धर्म स्वातन्त्र्य अधिकार की व्याख्या करते हुए ‘धर्म प्रचार के अधिकार’ की व्याख्या संबंधी महत्वपूर्ण प्रश्न पर निर्णय दिया कि ‘‘यह अनुच्छेद किसी अन्य व्यक्ति को अपने रिलीजन में मतान्तरित करने का अधिकार नहीं देता, बल्कि रिलीजन तत्वों को प्रकट करते हुए उसके प्रचार या प्रसार करने की आज्ञा देता है। अनुच्छेद 25(1) अन्त:करण की आजादी की गारण्टी प्रत्येक नागरिक को देता है, जो अवधारित करता है कि दूसरे व्यक्ति को अपने रिलीजन में मतान्तरित करने का कोई मूल अधिकार नहीं है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो वह सभी नागरिकों को दिए गए ‘अन्त:करण की स्वतन्त्रता’ के मौलिक अधिकार का हनन करेगा।’’
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