वामपंथी अपने विरोधियों के साथ किस तरह का व्यवहार करते हैं, इसके एक उदाहरण हैं आईपीएस के. राधाकृष्णन। उन्होंने उनके अनुसार काम नहीं किया तो उन्हें इतना प्रताड़ित किया गया कि अब उन्हें पेंशन तक नहीं मिल रही है। उनकी गलती केवल इतनी थी कि उन्होंने एक हत्याकांड में माकपा का साथ नहीं दिया था। उल्लेखनीय है कि कुछ समय पहले कन्नूर में मोहम्मद फजल की हत्या हुई थी। वह माकपा का ही कार्यकर्ता था। हत्या से कुछ दिन पहले माकपा छोड़कर वह एनडीएफ में शामिल हो गया था। उसकी हत्या के विरुद्ध माकपा ने एक प्रदर्शन किया था और आरोप लगाया था कि संघ के कार्यकर्ताओं ने उसकी हत्या की है। इसके बाद कन्नूर के तत्कालीन डीआईजी अनंतकृष्णन ने इस मामले की जांच तत्कालीन डीएसपी के. राधाकृष्णन को सौंपी और एक 20 सदस्यीय टीम का गठन किया।
एक समाचारपत्र में प्रकाशित के. राधाकृष्णन के बयान के अनुसार, ''फजल की हत्या के अगले दिन माकपा ने एक विरोध प्रदर्शन किया था। इसमें माकपा के क्षेत्र सचिव करयी राजन ने चार संघ कार्यकर्ताओं पर हत्या का आरोप लगाया था। मैंने उन सभी को हिरासत में ले लिया। उनके बयान दर्ज किए और घटना से पहले और बाद में उनकी सभी गतिविधियों पर नज़र रखी। दूसरे दिन गृहमंत्री कोडियेरी बालकृष्णन ने मुझे पय्यम्बलम गेस्ट हाउस बुलाया और सात दिन के अंदर मामला दर्ज करने का निर्देश दिया। जैसा कि मुझे विश्वास था कि संघ के कार्यकर्ता हत्या में शामिल नहीं थे, मैंने उन्हें रिहा कर दिया। इस कारण माकपा नेतृत्व मुझसे नाराज हो गया।''
के. राधाकृष्णन के अनुसार, ''उनहोंने 300 से अधिक लोगों के मोबाइल फोन रिकॉर्ड की जांच की। इस दौरान माकपा के कई कार्यकर्ता संदेह के घेरे में आए। इसके बाद तत्कालीन गृहमंत्री ने उन्हें पुनः अपने फार्म हाउस पर बुलाकर यह निर्देश दिया, ''यदि वे इस मामले में माकपा के किसी कार्यकर्ता के विरुद्ध कोई कार्रवाई करने का विचार कर रहे हैं तो उन्हें इसकी सूचना मंत्री महोदय को देनी चाहिए।''
इसके बाद के. राधाकृष्णन को इस मामले की जांच से हटा दिया गया। इसके बाद इस मामले के दो गवाह की रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई। लेकिन फजल की पत्नी नहीं रुकी। उसने मामले को उच्च न्यायालय तक पहुंचाया। न्यायालय ने इसकी जांच सीबीआई से कराने को कहा। सीबीआई ने 2012 में आरोपपत्र दाखिल किया, उसमें माकपा के आठ कार्यकर्ताओं को हत्या का दोषी बताया गया था।
इससे पहले 15 दिसंबर, 2006 को के. राधाकृष्णन को माकपा के कार्यकर्ताओं ने बुरी तरह मारा था, जिससे उनकी रीढ़ की हड्डी में चोट आ गई। उन्हें डेढ़ वर्ष अस्पताल में रहे। 2016 में के. राधाकृष्णन को झूठे आरोपों में निलम्बित कर दिया गया। उन्होंने अपनी बहाली के लिए साढ़े चार साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी, जिसमें उन्हें जीत मिली। इसके बाद भी षड्यंत्रों का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। बहाली के आठ महीने बाद और सेवानिवृत्ति के एक दिन पहले उन्हें विभाग की ओर से अनुशासनात्मक कार्रवाई का एक नोटिस दिया गया, जिससे सेवानिवृत्ति के बाद उनकी पेंशन और अन्य सुविधाएं रोकी जा सकें।
अब वे केरल से बाहर रहकर गुजारे के लिए सुरक्षा गार्ड की नौकरी कर रहे हैं।
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