प्रभु श्रीराम व माता सीता को सनातन संस्कृति का आदर्शतम युगल माना जाता है। इस युगल के अलावा ऐसी प्रतिष्ठा केवल शिव-पार्वती की जोड़ी को प्राप्त है। भगवान श्रीराम और सीता का विवाह रामकथा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है। वैदिक चिंतन श्रीराम को 'पुरुषोत्तम' की संज्ञा देता है और मां सीता को मूल प्रकृति की।
प्रकृति व पुरुष के मिलन के रूप में मार्गशीर्ष (अगहन) शुक्ल पंचमी को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जनकनंदनी सीता के साथ दाम्पत्य सूत्र में बंधे थे, इसीलिए इस दिन न केवल अयोध्या वरन मिथिला में भी सीता-राम विवाह का आयोजन अत्यंत धूमधाम व श्रद्धाभाव से किया जाता है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण की तैयारियों के बीच फलक पर छाए रामलला के बारे में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि वे महज अपनी जन्मभूमि पर अकेले विराजमान हैं। रामनगरी के शेष अन्य हजारों मंदिरों में उनकी लीला सहचरी सीता का विग्रह अनिवार्य रूप से उनके साथ प्रतिष्ठित है।
वस्तुतः मां सीता और भगवान राम अभिन्न हैं। रामचरितमानस में यह अभिन्नता इस तरह वर्णित है- गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न। अर्थात भगवान राम एवं मां सीता उसी तरह परस्पर अभिन्न हैं, जैसे वाणी और उसका अर्थ तथा जल और जल की लहर। कहने में तो यह अलग-अलग हैं, पर वास्तव में वे एक हैं। सीता-राम विवाहोत्सव के मौके पर अभिन्नता की यह विरासत पूरी राम नगरी में पूरी शिद्दत से शिरोधार्य होती है।
अयोध्या में राम विवाह के भव्य रागरंग
इस दौरान उन सभी वैवाहिक कर्मकांडों और रीति-रिवाजों की पूरे भाव-चाव से पुनरावृत्ति की जाती है, जो त्रेता युग में भगवान राम एवं सीताजी के विवाह के अवसर पर हुई थी। इस दौरान राम बारात भी वैसे ही निकलती है उसी भावधारा से स्फुरित होकर जैसी युगों पूर्व निकली थी। इस दौरान धर्माचार्यों और साधु-संतों के साथ बड़ी संख्या में श्रद्धालु नाचते-गाते हुए राम बारात की भव्य शोभायात्रा निकालते हैं। इस दौरान कनक भवन, विअहुति भवन, रंग महल, दशरथ महल, जानकी महल ट्रस्ट, राम हर्षण कुञ्ज, रामसखी मंदिर, दिव्यकला कुञ्ज सहित विभिन्न मठ-मंदिरों से दूल्हा बने श्रीराम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और बारातियों में महर्षि गुरु वशिष्ठ, राजा दशरथ, हनुमंत लला, जामवंत आदि की झांकी बैंडबाजे और आतिशबाजी के साथ नगर के प्रमुख मार्गों पर निकाली जाती है। इस दौरान सुप्रसिद्ध कनक भवन मंदिर और विअहुति भवन और जानकी महल ट्रस्ट की रामबारात की भव्यता देखने लायक होती है। मंदिरों में बारात के वापस लौटने पर भगवान राम और चारों भाइयों का द्वारपूजा के साथ अन्य विवाह की रस्में वैदिक रीति-रिवाज से उल्लासपूर्ण माहौल में पूरी की जाती हैं।
उत्सव के रंग में डूबी नजर आती है मिथिला
श्रीरामवल्लाभाकुंज सहित कुछ मंदिरों में बारात तो नहीं निकलती, लेकिन वैदिक मंत्रोच्चार के बीच यह महोत्सव यहां भी धूमधाम से मनाया जाता है। इस दौरान 'चारों दुलहा बड़का कमाल सखिया' और 'माथे मणि मंडप सोहे कुंडल सोहे कनवा' जैसे विवाह गीत राम विवाह के इस उत्सव में चार चांद लगा देते हैं। जानना दिलचस्प हो कि इस आयोजन में शिरकत करने के लिए देशभर से श्रद्धालु रामनगरी में जुटते हैं। बताते चलें कि इस पुनीत अवसर पर मिथिला भी सीताराम विवाह के उत्सव के रंग में पूरी तरह डूबी नजर आती है, लेकिन मैथिल समाज के लोग इस दिन कन्यादान करने से परहेज करते हैं। विवाह पंचमी के दिन नेपाल में स्थित जनकपुर से 14 किलोमीटर दूर 'उत्तर धनुषा' नाम स्थान पर भी सीताराम विवाह का आयोजन किया जाता है। बताया जाता है कि रामचंद्रजी ने इसी जगह पर धनुष तोड़ा था। यहां मौजूद पत्थर के टुकड़े को इस प्रसंग का अवशेष बताया जाता है। इस अवसर पर यहां दर्शनार्थियों की भारी भीड़ जुटती है।
सीता-राम विवाह का आध्यात्मिक संदेश
रामकथा मर्मज्ञ प्रेमभूषन महाराज कहते हैं कि राक्षसराज रावण का वध सीता-राम के मिलन के बगैर संभव ही नहीं था। सीता-राम विवाह का आयोजन न केवल पति-पत्नी के आपसी सम्बन्धों में आदर्श की स्थापना करता है, वरन विवाह के मूल मर्म से भी जन सामान्य को परिचित कराता है। भगवान राम ने अहंकार के प्रतीक धनुष को तोड़ा। यह इस बात का प्रतीक है कि जब दो लोग एक बंधन में बंधते हैं तो सबसे पहले उन्हें अहंकार को तोड़ना चाहिए और फिर प्रेम रूपी बंधन में बंधना चाहिए क्योंकि अहंकार ही आपसी मनमुटाव का कारण बनता है।
प्रकृति व पुरुष के मिलन के रूप में मार्गशीर्ष (अगहन) शुक्ल पंचमी को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम जनकनंदनी सीता के साथ दाम्पत्य सूत्र में बंधे थे, इसीलिए इस दिन न केवल अयोध्या वरन मिथिला में भी सीता-राम विवाह का आयोजन अत्यंत धूमधाम व श्रद्धाभाव से किया जाता है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण की तैयारियों के बीच फलक पर छाए रामलला के बारे में एक दिलचस्प तथ्य यह है कि वे महज अपनी जन्मभूमि पर अकेले विराजमान हैं। रामनगरी के शेष अन्य हजारों मंदिरों में उनकी लीला सहचरी सीता का विग्रह अनिवार्य रूप से उनके साथ प्रतिष्ठित है।
गोस्वामी तुलसीदास की कालजयी कृति 'रामचरितमानस' में सीता-राम विवाह का अत्यंत मनोरम चित्रांकन मिलता है। साथ ही वे सीता-राम विवाह की अनूठी व्याख्या के जरिये 'काम' और 'राम' में विलक्षण समन्वय दर्शाते हैं। सामान्य तौर पर विवाह का प्रमुख देवता काम माना जाता है पर सीता-राम के दिव्य विवाह में 'काम' राम का विरोधी न रहकर सहयोगी बन गया। इस पावन परिणय के जरिए उन्होंने मन के तीनों विकारों काम, क्रोध और लोभ से उत्पन्न समस्याओं का सार्थक समाधान प्रस्तुत किया है।
संसार के विवाह और श्रीराम के मंगलमय विवाह में क्या अंतर है, इस बाबत 'युग तुलसी' के नाम से विख्यात मानस मर्मज्ञ राम किंकर जी महराज कहते हैं- 'मानव जीवन में बाहर से भीतर जाना जीवन में परम आवश्यक है। राम विवाह का भगवद्-रस व्यक्ति को बाहर से भीतर की ओर ले जाता है। सामान्यतया लोक व्यवहार में भी हम देखते और अनुभव करते हैं कि जब तीव्र गर्मी व धूप पड़ने लगती है तो हम बाहर से भीतर चले जाते हैं।
वर्षा में भी आप बाहर से भीतर चले जाते हैं। अर्थात घर के भीतर जाकर हम बाहर धूप व वर्षा दोनों से सुरक्षित हो जाते हैं। ठीक इसी प्रकार जीवन में भी कभी वासना के बादल बरसने लगें, क्रोध की धूप संतप्त करने लगे, मनोनुकूल घटनाएं न घटने से मन उद्द्विग्न होने लगे तो उस समय अगर हम अपने अंतर्जगत के भाव राज्य में प्रविष्ट हो सकें तो सहज ही एक अलौकिक आनंद की अनुभूति कर सकेंगे। सीता-राम का जीवन के इस गंभीर अर्थ की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करता है।'
बांके बिहारी जी का प्राकट्योत्सव
वृंदावन में बांके बिहारी जी का भव्य मंदिर है। इस मंदिर में बिहारी जी की काले रंग की अनूठी प्रतिमा प्रतिष्ठित है। भागवताचार्य मृदुलकृष्ण शास्त्री के अनुसार भगवान महाकाल की तरह वृंदावन के श्री बांके बिहारी जी भी स्वयंभू हैं। मान्यता है कि इस प्रतिमा में साक्षात श्रीकृष्ण और राधा समाए हुए हैं। इसलिए इसके दर्शन मात्र से राधा व कृष्ण दोनों के दर्शन का फल सहज ही मिल जाता है। कहते हैं कि महान कृष्ण भक्त स्वामी हरिदास भक्ति की पर रीझ कर राधा कृष्ण के युगल रूप में मार्गशीर्ष मास की पंचमी तिथि को यहां बांके बिहारी जी का प्राकट्य हुआ था। इसी कारण हर साल इस पावन तिथि को बांके बिहारी जी का भव्य प्राकट्योत्सव मनाया जाता है।
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