दो सौ से अधिक उपन्यास तथा अप्रतिम शोध साहित्य रचने वाले बीसवीं सदी के इस सर्वाधिक लोकप्रिय हिंदी लेखक के व्यक्तित्व व कृतित्व से देश की वर्तमान युवा पीढ़ी पूरी तरह अनजान क्यों है? क्या महज इसलिए कि उनका लेखन श्रेष्ठता अनुमापन के वामपंथी पैमानों के विपरीत था! गुरुदत्त को, जिन्हें 'यूनेस्को’ (संयुक्त राष्ट्र का शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन) जैसी वैश्विक संस्था ने बीती सदी के छठे, सातवें व आठवें दशक का सबसे जनप्रिय साहित्यकार घोषित किया था; वामपंथी इतिहासकारों के सुनियोजित षड्यंत्र के कारण उस मान-सम्मान से वंचित होना पड़ा जिसके वे असली हकदार थे।
खेद का विषय है कि बीसवीं सदी के दिग्भ्रांत भारतीय जनमानस को गुलामी की मानसिकता से उबारने के लिए अपनी लेखनी से भारत के स्वर्णिम अतीत की गौरव गरिमा को पुनर्स्थापित करने वाले मां भारती के इस सच्चे सपूत को न तो तद्युगीन साहित्यिक विमर्श में स्थान मिला, न ही पाठ्य पुस्तकों में स्थान और न ही कोई अलंकरण। बावजूद इसके, हिंदी की यह प्रखर साहित्यिक विभूति अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों से जरा भी विमुख नहीं हुई और वामपंथी लेखकों की हनक से इंच भर भी भयभीत हुए बिना मरते दम तक भारतीयता के जनजागरण में जुटी रही।
वैदिक साहित्य और क्रांति की ओर रुझान
8 दिसंबर,1894 को लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) के एक निम्न मध्यमवर्गीय क्षत्रिय परिवार में जन्मे बालक गुरदास (गुरुदत्त के बचपन का नाम) के वैद्य पिता कर्मचंद आर्यसमाजी थे जबकि माता सुहावी देवी की वैष्णव मान्यताओं में आस्था थी। धार्मिकता और विवेचना के इस पारिवारिक वातावरण ने उनके अंतस को गहरे प्रभावित किया।
स्वामी दयानंद को अपना आदर्श मानने वाले इस युवा का रुझान किशोरवय से ही वैदिक साहित्य की ओर हो गया था। साथ ही स्वामीजी जी की प्रेरणा से सन् 1907 में लाहौर में क्रांतिकारी अजीत सिंह के नेतृत्व में गठित भारतमाता सोसाइटी की बैठकों में भी वे नियमित हिस्सा लेने लगे। अपनी आरम्भिक शिक्षा लाहौर के डीएवी स्कूल से पूरी कर उन्होंने विज्ञान से स्नातकोत्तर परीक्षा पास की और गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के विज्ञान विभाग में सरकारी नौकरी पर लग गये। 1917 में यशोदा देवी से विवाह हो गया। ज्ञातव्य है कि वह दौर देश के लिए भारी उथल-पुथल भरा था। महात्मा गांधी के आह्वान पर सरकारी नौकरी छोड़ वे भी स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। कहा जाता है कि जब वे लाहौर के नेशनल कॉलेज में हेडमास्टर थे तो सरदार भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु उनके सबसे प्रिय शिष्य थे, जो बाद में आजादी की जंग में फांसी का फंदा चूमकर अमर हो गये।
आयुर्वेद का अध्ययन और साहित्य साधना
क्रांतिकारियों से संपर्क के कारण उनकी नौकरी पर हमेशा तलवार लटकी रहती थी; इस कारण उन्होंने अपने पिता की विरासत को ही आगे बढ़ाने की सोची और आयुर्वेद के भारतीय ग्रंथों का गहन अध्ययन कर लखनऊ, लाहौर और दिल्ली में आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में काम किया। जब दिल्ली में उनकी वैद्यकी चल निकली तो आर्थिक रूप से स्थिर होने के बाद वे लेखन में पूरी तरह सक्रिय हो गये। गुरुदत्त का पहला उपन्यास ‘स्वाधीनता के पथ पर’ वर्ष 1940-41 में सामने आया। यह वह समय था जब भारत ब्रिटिश दासता से मुक्ति के लिए कसमसा रहा था। उनका पहला ही उपन्यास पाठको के मर्म पर गहरी चोट कर गया। 48 वर्ष की परिपक्व अवस्था में उन्होंने जो लेखनी उठाई, वह आगामी पांच दशक तक निर्बाध गति से चलती रही।
राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत लेखक, जो विज्ञान का अध्यापक भी है, राजनीति में अभिरुचि रखता है और अपनी धार्मिक जड़ों से भी सम्बद्ध है; इस सभी विशेषताओं को सम्मिश्रित कर रचनाकर्म में जुटा तो देशवासियों के मन में बसता चला गया। स्वतंत्रता प्राप्ति और देश विभाजन, रियासतों का एकीकरण, गांधी जी की हत्या, तेजी से बदलते सभी घटनाक्रमों के साक्षी गुरुदत्त ने अपने समय की क्रूरता के दस्तावेजों सरल व रोचक भाषा में रचा।
भारत-विभाजन की सर्वाधिक निर्भीक समीक्षा यदि किसी इतिहासकार ने की तो वैद्य गुरुदत्त ने। 1921 के असहयोग आन्दोलन से लेकर 1948 में महात्मा गांधी की हत्या तक की देश की सभी प्रमुख परिस्थितियों को उन्होंने न केवल अपनी आंखों से देखा था; अपितु अंग्रेजों के दमन चक्र, अत्याचारों और अनीतिपूर्ण आचरण को स्वयं गर्मदल के सदस्य के रूप में अनुभव भी किया था। उनके रचनाकर्म पर इन सब बातों का गहरा असर पड़ा।
‘स्वाधीनता के पथ पर’, ‘पथिक’, ‘स्वराज्य दान’, ‘दासता के नए रूप’, ‘विश्वासघात’, ‘देश की हत्या’ और ‘सदा वत्सले मातृभूमे’ जैसे उनके राजनीतिपरक उपन्यास पढ़कर उनकी विचारधारा पाठकों के समक्ष स्वत: स्पष्ट हो जाती है। यहां यह जानना दिलचस्प हो कि आजादी के बाद वे जनसंघ से भी जुड़े और जम्मू एवं कश्मीर आन्दोलन में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जनसंघ के सदस्य के रूप में दो बार जेल भी गये।
स्वतंत्र लेखन
कालांतर में उन्होंने स्वयं को स्वतंत्र लेखन में पूरी तरह डुबो लिया और जीवनपर्यन्त साहित्य साधना में जुटे रहे। उन्होंने लगभग दो सौ के करीब उपन्यास, कहानी, संस्मरण और जीवनचरित के साथ भारतीय इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, विज्ञान, राजनीति और समाजशास्त्र पर अनेक उल्लेखनीय शोध-कृतियों का सृजन किया। उनके कतिपय लोकप्रिय उपन्यास हैं— स्वाधीनता के पथ पर, पथिक, स्वराज्यदान, विश्वासघात, देश की हत्या, दो लहरों की टक्कर, दासता के नए रूप, कुमार सम्भव, उमड़ती घटाएं, अमृत मंथन, परम्परा, अग्नि परीक्षा, कुमकुम, विक्रमादित्य, पुष्यमित्र, लुढ़कते पत्थर, पत्रलता, गंगा की धारा, खण्डहर बोल रहे हैं, अनदेखे बंधन, एक और अनेक, मानव, गुण्ठन, आवरण, यह संसार, धरती और धन, भगवान भरोसे, घर की बात आदि। सुप्रसिद्ध साहित्यकार राजीव रंजन के अनुसार गुरुदत्त के उपन्यास जहां अतीत का विमर्श हैं, वहीं विभाजन और राष्ट्र के पुनर्निर्माण के दौर की त्रासदियों का जीवंत चित्रण भी।
‘वर्तमान दुर्व्यवस्था का समाधान हिन्दू राष्ट्र’, ‘डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की अन्तिम यात्रा’, ‘हिन्दुत्व की यात्रा’, ‘भारत में राष्ट्र’, ‘बुद्धि बनाम बहुमत’ उनकी विचार-प्रधान कृतियां हैं। ‘धर्म, संस्कृति और राज्य’ से लेकर ‘वेदमंत्रों के देवता’ लिखकर उन्होंने भारतीय संस्कृति का सरल एवं बोधगम्य विवेचन किया तथा भगवद्गीता, उपनिषदों और दर्शन-ग्रंथों पर भाष्य भी लिखे।
तार्किकता और धर्मशास्त्र
विज्ञान की शिक्षा से विकसित तार्किक बुद्धि के आलोक में जब उन्होंने वेद, उपनिषद्, दर्शन इत्यादि वैदिकयुगीन धर्मशास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो ज्ञान के उस अथाह सागर में डूबते चले गये। वेदों व प्राचीन शास्त्रों-स्मृतियों की गहन व्याख्या करते हुए उन्होंने अपनी वैज्ञानिक दृष्टि से बहुत से जटिल प्रश्नों के सरल उत्तर देने का प्रयास किया है। उनके रचनाकर्म का मूल ध्येय वैदिक ऋषियों की अमूल्य ज्ञान सम्पदा को सहज-सरल व बोधगम्य भाषा में देश के जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत करना था। बताते चलें कि ‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ और ‘इतिहास में भारतीय परम्पराएं’ नामक ग्रंथों ने उन्हें प्रखर इतिहासकार बनाया।
इन ग्रंथों में उन्होंने भारत में इतिहास लेखन की विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया है। साथ ही ‘धर्म तथा समाजवाद’, ‘स्व अस्तित्व की रक्षा’, ‘मैं हिंदू हूँ’, आदि अनेक पुस्तकें लिखकर थोथे समाजवाद की पोल भी खोलकर रख दी है। ‘विज्ञान और विज्ञान’ तथा ‘सृष्टि-रचना’-जैसी पुस्तकें लिखकर उन्होंने अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। आज पृथ्वी की उत्पत्ति के संबंध में बिगबैंग थ्योरी को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। गुरुदत्त प्रश्न उठाते हैं कि वैज्ञानिकों के पास वह महान धमाका (बिग-बैंग) किसमें हुआ, क्यों हुआ? इसका कोई उल्लेख नहीं है फिर वेदों के आधार पर वे अपनी कृति ‘सृष्टि रचना’ में सृष्टि की उत्पति की तार्किक व्याख्या करते हैं।
उल्लेखनीय है कि भारतीय पद्धतियों के उपासक और पोषक गुरुदत्त एमएससी होकर भी आयुर्वेद की ओर झुके और आयुर्वेद को एक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति सिद्ध किया। अपनी पुस्तक ‘प्रवंचना’ में वे लिखते हैं, ‘‘शान्ता की चिकित्सा के लिए कितने ही डॉक्टरों को बुलाया गया, पर उन डॉक्टरों ने शान्ता के 'जीवन' की आशा छोड़ दी परन्तु स्वामी निरूपानन्द द्वारा आयुर्वेद पद्धति से चिकित्सा होती है और शान्ता बच जाती है।
यह देखकर एमिली नामक अंग्रेज महिला आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति से बहुत प्रभावित होती है।’’ गुरुदत्त ने एक वैद्य होने नाते कभी भी एलोपैथिक डॉक्टरों का विरोध नहीं किया परन्तु वे इस बात से चिन्तातुर हैं कि लोगों का विश्वास आयुर्वेद पर क्यों नहीं है। वे आयुर्वेद की महत्ता ‘प्राणिग्रहण’ की डॉ. रजनी के रूप में स्थापित करते हैं। डॉ. रजनी प्रतिदिन गरीबों की बस्तियों में जाकर आयुर्वेद से उनकी चिकित्सा करती हैं। चिकित्सा के लिए वह उनसे पैसा नहीं लेती जबकि एलोपैथिक डॉक्टर कलावती काम किए बिना नुस्खा लिख देती है और बीसियों रुपये शुल्क ले लेती है।
‘भारतवर्ष का संक्षिप्त इतिहास’ और ‘इतिहास में भारतीय परम्पराएं’ नामक ग्रंथों ने उनको प्रखर इतिहासकार बना दिया। इन ग्रंथों में उन्होंने भारत में इतिहास लेखन की विसंगतियों पर जमकर प्रहार किया है। साथ ही ‘धर्म तथा समाजवाद’, ‘स्व अस्तित्व की रक्षा’, ‘मैं हिंदू हूँ’, आदि अनेक पुस्तकें लिखकर थोथे समाजवाद की पोल भी खोलकर रख दी है। ‘विज्ञान और विज्ञान’ तथा ‘सृष्टि-रचना’-जैसी पुस्तकें लिखकर उन्होंने अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी परिचय दिया।
‘पाणिग्रहण’ में वैद्यराज मिश्र कहते हैं -‘डॉक्टरों का दोष नहीं। वे बेचारे तो युक्ति करना नहीं जानते क्योंकि मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने के लिए तर्कशास्त्र पढ़ना अनिवार्य नहीं होता। जबकि आयुर्वेद के लिए दर्शनशास्त्र का ज्ञान अनिवार्य होता है।’ गुरुदत्त जी की मान्यता है कि आयुवेर्दाचार्य की उपाधि प्राप्त वैद्य संस्कृत और आयुर्वेद का प्रकाण्ड विद्वान् होता है। दर्शन-शास्त्र और पदार्थ-विज्ञान उसकी विशेष उपलब्धियां होती हैं। खेद का विषय है कि ऐसे वैद्य बेचारे अपने घर तांगा भी नहीं रख सकते जबकि डाक्टर मोटरें भी रख सकता है।
आर्यसमाज के पालने में पले-बढ़े वैद्य गुरुदत्त विशुद्ध राष्ट्रीय विचारधारा के लेखक थे। उन्होंने एक सच्चे राष्ट्रवादी की भांति सदैव देश कल्याण की इच्छा से लिखा और इस मार्ग पर चलते हुए कभी भी यश की कामना नहीं की। गुरुदत्त के उपन्यासों को पढ़कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि राजनीति के क्षेत्र में वे राष्ट्रीय विचारधारा के लेखक और छद्म धर्म निरपेक्षतावादियों के शब्दों में ‘साम्प्रदायिक’ लेखक थे। गुरुदत्त की दृढ़ धारणा थी कि जो भारतवासी देश की धरती से मातृवत सम्बन्ध रखता है, वही सही मायने में देश की सुसम्पन्नता और समृद्धि के लिए समर्पित हो सकता है।
राष्ट्र की उन्नति का अर्थ है देश में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि होना जो देश के सामूहिक हित को व्यक्ति के हितों से ऊपर समझते हैं। वे लिखते हैं, ‘दुष्टों के आगे घुटने टेकना, उन्हें बढ़ावा देना है। किसी थोथे आदर्श की आड़ में उन्हें तुष्ट करने की नीति देश के लिए घातक सिद्ध होती है।’ वामपंथियों द्वारा गुरुदत्त को अर्थार्जन के लिए लिखने वाला लेखक, हिंदूवादी, सस्ती लोकप्रियता के लिए लिखने वाला, अप्रगतिशील, रूढ़िवादी, संस्कृतिवादी आदि कह कर उनकी तीखी आलोचना की है। वस्तुत: यह एक चर्चित लेखक के प्रति उनकी खीझ है। गुरुदत्त जैसे साहित्यकार कभी-कभी पैदा होते हैं। आज उन पर पुन: विमर्श की आवश्यकता है।
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